टूटे हुए वादों से लेकर असमर्थ मतदाताओं तक
लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाना
टूटे हुए वादों से लेकर असमर्थ मतदाताओं तक
लोकतांत्रिक व्यवस्था पर सवाल उठाना
From Broken Promises to Powerless Voters का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
भारतीय लोकतंत्र राज में, “जनता की” “जनता के द्वारा”, “जनता के लिए”, सरकार है, यह वादा अक्सर भ्रांतिजनक अर्थात भटकाने वाला लगता है, जिससे हताश करने वाली समस्याओं या निराशाओं की एक श्रृंखला उत्पन्न होती है जो शासन की इस प्रणाली को परेशान करती रहतीं है।
ये गहराई से जड़े जमा चुके हुए सामाजिक-आर्थिक, राजनीतिक-आर्थिक और सामाजिक-राजनीतिक मुद्दे हैं और इन लगातार बनी रहने वाली दुविधाओं पर प्रकाश डालना अनिवार्य हो जाता है।
हम भारतीय लोकतांत्रिक प्रक्रिया को प्रभावित करने वाले महत्वपूर्ण समस्याओं की जांच करते हैं, उनके पहलुओं, उत्पत्ति और संभावित समाधानों की खोज करते हैं।
विमुख मतदाता और उदासीनता
किसी भी लोकतंत्र की आधारशिला उसके मतदाता होते हैं, एक सरकार का मूलतत्व, जो अपनी शक्ति लोगों से प्राप्त करती है।
हालाँकि, एक ज्वलंत मुद्दा जो हमेशा बना रहता है वह है योग्य मतदाताओं की उदासीनता।
ऐसी दुनिया में जहां सूचना एक तेज़ धारा की तरह बहती है, कई नागरिक चुनावी प्रक्रिया से मायूस, विमुख और अलग रहते हैं।
यह अनिच्छा एक दोधारी तलवार है, क्योंकि जब योग्य मतदाता अपने मत डालने के लिए बाहर नहीं आते हैं, तो लोकतंत्र का मूल सिद्धांत लड़खड़ा जाता है।
सवाल यह है कि मतदाता चुप रहना क्यों पसंद करते हैं?
क्या यह व्यवस्था में उनके भरोसे की कमी है या यह उनका गहराई से जड़े जमा चुका हुआ विश्वास है कि उनके वोटों से कोई फर्क नहीं पड़ेगा?
ये प्रश्न विस्तृत परीक्षण और, अधिक महत्वपूर्ण तरीके से, कानूनी कार्यवाही योग्य समाधानों की एक आधिकारिक अनुमति की मांग करते हैं।
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जब योग्य मतदाता अपने मत डालने के लिए बाहर नहीं आते हैं, तो लोकतंत्र का मूल सिद्धांत लड़खड़ा जाता है
सबसे महत्वपूर्ण चिंताओं में से एक है, सार्वजनिक सेवा के लिए प्रदान की जाने वाली उम्मीदवारों की क्षमता ।
कई मामलों में, उम्मीदवार अपने फीके असर वाले वादों और सार्वजनिक सेवा के संदिग्ध इतिहास के कारण मतदाताओं में आत्मविश्वास जगाने में विफल रहते हैं।
उम्मीदवारों के विवादास्पद अतीत और खराब रिकॉर्ड उनकी महत्वाकांक्षी भूमिकाओं के लिए उनकी योग्यता पर संदेह पैदा करते हैं।
परिणामस्वरूप, मतदाता अक्सर सार्वजनिक सेवा उत्कृष्टता के मूर्त रूप के बजाय दो अप्रिय विकल्पों में से कम अप्रिय विकल्प के बीच चयन करते हैं।
इसके अलावा, उम्मीदवारों के बारे में जानकारी का अभाव इस दुविधा की स्थिति को और अधिक बिगाड़ देता है।
ऐसे युग में जहां पारदर्शिता सर्वोपरि है, कई मतदाता उनसे वोट मांगने वालों के सार्वजनिक सेवा रिकॉर्ड के बारे में बहुत कम जानते हैं।
ज्ञान की यह कमी नए उम्मीदवारों की छान- बीन करने की इच्छा को बाधित करती है, जिससे यथास्थिति बनी रहती है।
आधुनिक दुनिया की तेज़ गति और बहुत अधिक अपेक्षा रखने वाली जीवनशैली एक और बाधा है।
दैनिक जिम्मेदारियाँ कई मतदाताओं पर हावी हो जाती हैं, जिससे उनके पास लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ने के लिए बहुत कम समय बचता है।
परिणामस्वरूप, * मतदान प्रतिशत प्रभावित होता है और लोगों की आवाज़ को अनसुना कर दिया जाता है।
इसके अलावा, "राजनीति" शब्द ही कई लोगों के लिए गंदगी और धोखे का पर्याय बन गया है। यह नकारात्मक धारणा व्यक्तियों को राजनीतिक कार्यक्षेत्र में सक्रिय रूप से भाग लेने से हतोत्साहित करती है।
राजनीतिक व्यवस्था में विश्वास की यह कमी मतदाता भागीदारी और सार्थक राजनीतिक परिवर्तन के रास्ते में एक अवरोध की तरह है।
कम मतदान प्रतिशत और प्रतिनिधित्व
कम मतदान प्रतिशत लोकतांत्रिक समस्या को और अधिक बिगाड़ देता है। ऐसी परिस्थितियों में, निर्वाचित उम्मीदवार वास्तव में जनसंख्या के विभिन्न घटकों का प्रतिनिधित्व नहीं कर सकता है।
इस समस्या की जड़ को कारकों की जटिल परस्पर क्रिया में खोजा जा सकता है, जैसे राजनीतिक शिक्षा की कमी, तार्किक चुनौतियाँ, या केवल प्रेरणा की कमी।
लोकतंत्र में विविधता का जश्न मनाया जाता है, लेकिन जब निर्वाचित प्रतिनिधि इस विविधता का वास्तविक प्रतिबिंब नहीं होता है, तो यह स्वाभाविक रूप से अपने आप ही सरकार की वैधता के बारे में चिंताएँ पैदा करता है।
चुने हुए उम्मीदवारों और मतदाताओं के बीच इस अलगाव के दूरगामी परिणाम होते हैं, जिनका असर उनके कार्यों पर पड़ता है जैसे नीतिगत निर्णयों से लेकर सामाजिक एकजुटता तक।
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दैनिक जिम्मेदारियाँ कई मतदाताओं पर हावी हो जाती हैं, जिससे उनके पास लोकतांत्रिक प्रक्रिया से जुड़ने के लिए बहुत कम समय बचता है
लोकतंत्र के क्षेत्र में, एक वोट की शक्ति अक्सर राजनीतिक निर्णय लेने के विशाल महासागर में एक बूंद मात्र की तरह महसूस होती है।
व्यक्तिगत महत्वहीनता की इस भावना, को इस सुपरिचित दोहराए जाने वाले शब्दों से समझा जा सकता है, "एक वोट से कैसे फर्क पड़ सकता है?" मतदाता सहभागिता में यह एक पर्याप्त बाधा है।
यह प्रचलित तर्क कई लोगों को नकारात्मक रूप से प्रेरित करता है, और उन्हें अपने लोकतांत्रिक अधिकार का इस्तेमाल करने से रोकता है।
इसके अलावा, मतदाता अक्सर अपने निर्णय ऐतिहासिक चुनावी परिणामों को आधार बनाकर करते हैं।
उम्मीदवारों की पिछली जीतें उनकी धारणा को आकार देती हैं, जिससे वे यह मान लेते हैं कि परिणाम एक पूर्व निश्चित निष्कर्ष हैं।
यह पूर्व धारणा, इस विश्वास से प्रेरित है कि उनका वोट चुनाव फैसले को प्रभावित नहीं करेगा, जिसके परिणामस्वरूप मतदाता उदासीनता होती है।
उम्मीदवारों और स्थानीय मुद्दों के बीच का अलगाव इस मुद्दे को अधिक बिगाड़ देता है।
कई मतदाता अपने द्वारा चुने गए उम्मीदवारों और उनकी स्थानीय चिंताओं के प्रत्यक्ष प्रतिनिधित्व के बीच एक गलत संरेखण का अनुभव करते हैं।
जब तक कोई गंभीर मुद्दा सीधे तौर पर उनके समुदाय या स्थानीय राजनीति को प्रभावित नहीं करता है, मतदाता अक्सर चुनावी प्रक्रिया में भाग लेने के लिए एक प्रबल प्रेरक कारण को खोजने का बहुत अधिक प्रयत्न करते हैं।
टूटे हुए वादे और अधूरे जनादेश
चुनावों से पहले उम्मीदवारों द्वारा अक्सर बड़े-बड़े वादे चिन्हित किए जाते है। प्रत्येक उम्मीदवार मतदाताओं के अनुमोदन के लिए प्रतिस्पर्धा करता हैं।
हालाँकि, निर्वाचित होने के बाद ये वादे अक्सर अधूरे रह जाते हैं, जिस कारण मतदाता निराशाग्रस्त हो जाते हैं और खुद को ठगा हुआ महसूस करते है।
बयानबाजी और धरातल पर कार्रवाई के बीच का यह अंतर एक बुनियादी चुनौती है जिससे दुनिया भर के लोकतंत्र शासन जूझ रहे हैं।
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कम मतदान प्रतिशत लोकतांत्रिक समस्या को और अधिक बिगाड़ देता है
निर्वाचित अधिकारियों को उनके वादों के प्रति जवाबदेह ठहराने के तंत्र की अनुपस्थिति स्थिति को और अधिक गंभीर बना देती है।
बड़ा सवाल यहां पर यह खड़ा होता है कि अभियान प्रतिज्ञाओं और चुनाव के बाद के शासन के बीच की खाई को कैसे भरा जाए।
दुनिया में एक अधिक कुशल प्रणाली अनिवार्य है, जो कि पारदर्शिता और जवाबदेही की मांग करे।
लोकतंत्र के जटिल जाल में, राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों के वादे चुनावी परिदृश्य को एक महत्वपूर्ण लेकिन विवादपूर्ण तत्व का रूप देते हैं।
बड़ी प्रतिज्ञाओं के तथ्य, जिन्हें अक्सर पहुँच से बाहर माना जाता है, का उपयोग मतदाताओं को प्रलोभन देने और लुभाने के लिए किया जाता है।
ये वादे, हालांकि अत्यधिक प्रभावित करने वाले होते हैं, परन्तु, बारम्बार अधूरे रह जाते हैं, जिससे मतदाता मायूस हो जाते हैं।
अभियान के वादों से मतदाताओं का संतुष्ट न होना किसी भी राष्ट्र के लिए अनोखी बात नहीं हैं; यह दुनिया भर के लोकतंत्र की शासनों में एक व्यापक दुविधा है।
एक विशाल और विविधतापूर्ण लोकतंत्र के रूप में भारत कोई अपवाद नहीं है।
यह समस्या एक ज्ञात शैतान की तरह अपनी जड़ें जमा चुकी है, लोकतांत्रिक प्रक्रिया के अभिन्न हिस्से के रूप में।
मतदाता इन बड़े बड़े और प्रभावशाली वायदों के आदी हो गए हैं, जो अक्सर चुनाव के बाद के शासन से काफी कम समानता रखते हैं।
इस परिस्थिति की सबसे महत्वपूर्ण चुनौतियों में से एक है,चुनाव से पहले और बाद में उम्मीदवारों को उनके वादों के लिए ज़िम्मेदार ठहराने के लिए जवाबदेही तंत्र की कमी ।
इस संबंध में मतदाताओं की असमर्थता उनके लिए कोई भी संभव हो सकने वाला विकल्प नहीं छोड़ती , बजाय फिर से नए आश्वासनों पर भरोसा करने के।
टूटे हुए वादों और नए सिरे से उम्मीदों का यह बारम्बार चलने वाला चक्र लोकतंत्र के शासनों में अधूरे जनादेश की समस्या को कायम रखता है।
यह मुद्दा सीमाओं से परे है और दुनिया भर के लोकतंत्र के शासनों को प्रभावित करता है।
वैश्विक लोकतांत्रिक परिदृश्य इस प्रणालीगत दोष से बिगड़ चुका है, जो दिखाता है कि समस्या किसी विशेष देश तक ही सीमित नहीं, बल्कि लोकतंत्र की पूरी संरचना में ही अंतर्निहित है।
लोकतांत्रिक व्यवस्था में, एक बार एक प्रतिनिधि चुन लिए जाने के बाद, जवाबदेही का स्पष्ट रूप से अभाव होता है।
मतदाताओं के पास "निर्वाचित" उम्मीदवार के खिलाफ एकमात्र शक्ति जो होती है, वह है, विरोध की शक्ति और अगले चुनाव में वोट देने से इनकार करना ।
हालाँकि, यह प्रतिक्रियाशील दृष्टिकोण मतदाताओं को अपने प्रतिनिधियों के प्रदर्शन का प्रभावी ढंग से मूल्यांकन करने में सशक्त नहीं बनाता है।
निरंतर मूल्यांकन की यह कमी निर्वाचित अधिकारियों को जिम्मेदारी और संपूर्ण जाँच से बचने की अनुमति देती है, जिससे एक ऐसा लोकतंत्र बनता है जो नियंत्रित निगरानी के बजाय अंध विश्वास के साथ काम करता है।
मापीय और प्रदर्शन संकेतकों से भरी हुई इस दुनिया में, निर्वाचित अधिकारियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन करने के लिए एक अधिक व्यवस्थित दृष्टिकोण पेश करने का समय आ गया है।
राजनीतिक दल का प्रभाव और उम्मीदवार का चयन
भारत जैसी राजनीतिक दलों पर आधारित लोकतांत्रिक व्यवस्था में, इन दलों का प्रभाव उम्मीदवार के चयन और अंतिम चुनावी परिणाम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
यह गतिशीलता एक विरोधाभास प्रस्तुत करती है जिसमें एक कम योग्य या अनचाहा उम्मीदवार, दल के समर्थन के कारण जीत सकता है, जबकि एक सुयोग्य उम्मीदवार को दरकिनार किया जा सकता है।
लोकतंत्र का यह पहलू लोगों की सच्ची इच्छा और राजनीतिक दलों द्वारा चुनावी प्रक्रिया में किस हद तक हेरफेर किया जाता है, इस पर सवाल उठाता है।
यह पार्टियों और मतदाता समूहों के बीच संबंधों का पुनर्मूल्यांकन करने का आह्वान करता है ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि लोकतंत्र, लोकप्रिय चुनाव की वास्तविक अभिव्यक्ति बनी रहे।
भारतीय लोकतंत्र की जटिल गतिशीलता में, "जीतने की क्षमता" अक्सर उम्मीदवार की योग्यता और गुणवत्ता से आगे होती है।
राजनीतिक दल अक्सर समुदाय, जाति और धार्मिक महत्व जैसे कारकों के आधार पर उम्मीदवारों को नामांकित करते हैं, जो प्रभावी रूप से उम्मीदवारी को निर्वाचन क्षेत्र की जनसांख्यिकी से बाँधते हैं।
जब चुनावी जीत हासिल करने का उद्देश्य रखा गया हो, तब यह दृष्टिकोण उम्मीदवारों की वास्तविक गुणवत्ता से समझौता करने की कीमत पर आता है।
आपराधिक पृष्ठभूमि वाले और लंबित सजा वाले उम्मीदवार खुद को पार्टी के टिकट पर केवल इसलिए पाते हैं क्योंकि उन्हें "जीतने की क्षमता" का कारक समझा जाता है।
यह प्रवृत्ति भारतीय राजनीति में उम्मीदवार चयन के नैतिक मानकों पर गंभीर सवाल उठाती है।
कई मामलों में, भारतीय मतदाताओं में संसद या विधानसभा में उनके प्रतिनिधित्व की गुणवत्ता और उनके व्यक्तिगत जीवन की गुणवत्ता में ठोस सुधार के बीच व्यापक विश्लेषण तैयार करने के लिए आवश्यक जागरूकता का अभाव है।
आर्थिक समृद्धि, नौकरी के अवसर और सड़क, बिजली, स्कूल और स्वास्थ्य देखभाल सुविधाओं जैसी आवश्यक नागरिक सुविधाओं तक पहुंच जैसे मुद्दे अक्सर विभाग के लिए चुने गए उम्मीदवारों की गुणवत्ता से अलग कर दिए जाते हैं।
लोकतंत्र के वादे को जीवंत करना
लोकतंत्र, शासन की एक उल्लेखनीय प्रणाली है, जो सशक्तिकरण और प्रतिनिधित्व का वादा करती है।
फिर भी, यहां पर जिन समस्याएं पर चर्चा की गई है वह उन खामियों को रेखांकित करते हैं जो इस प्रणाली को बार - बार परेशान करती हैं।
लोकतंत्र के वादे को फिर से जीवंत करने के लिए, हमें निराश मतदाता को संबोधित करना होगा, मतदान प्रतिशत को बढ़ावा देना होगा, वादों और कार्यों के बीच की खाई को भरना होगा, जवाबदेही के उपाय पेश करने होंगे और राजनीतिक दलों की भूमिका को फिर से परिभाषित करना होगा।
हम लोकतंत्र को सिर्फ राजनीतिक दलों के हाथों में या विविध और खंडित मतदाताओं के हाथों में नहीं छोड़ सकते। इसके लिए सामूहिक सोच के साथ जांच और प्रयास करना होगा।
केवल इन मूलभूत सिद्धान्तों को बदलने और सुधारने के लिए सोचकर और इन्हें और अधिक सक्रिय और मजबूत बनाकर ही हम यह सुनिश्चित कर सकते हैं कि, लोकतंत्र भारत की सेवा करने के अपने मिशन को पूरा कर सके, जिसमें "जनता द्वारा, जनता के लिए, जनता की सरकार" का भाव शामिल हो।
* यह आमतौर पर या तो पंजीकृत मतदाताओं, योग्य मतदाताओं या मतदान आयु वाले सभी लोगों का प्रतिशत होता है
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