परदे के पीछे से - हिन्दू घूँघट
परदे के पीछे से - हिन्दू घूँघट
From Behind the Veil का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
हम महिलाओं के सिर ढकने के कपड़े के बारे चर्चा करेंगे, दुनिया के तीन प्रमुख धर्मों से : इस्लाम, ईसाई और हिंदू धर्म ।
हिंदू घूँघट
यद्यपि, पर्दा करना और सिर ढंकना आम तौर पर इस्लाम या ज्यादातर इब्राहीमी धर्मों से जुड़ा होता है, किंतु, यह एकमात्र उसी धर्म के लिए नहीं है।
भारत में महिलाएं, पूरे इतिहास के दौरान कई प्रतिबंधों और सीमाओं के अधीन रही हैं। ऐसा ही एक प्रतिबंध 'घूंघट' या पर्दा करने की प्रथा है।
हालांकि, इस प्रथा की उत्पत्ति स्पष्ट नहीं है, परन्तु, यह आमतौर पर हिंदू धर्म से जुड़ी है और उत्तर भारत में सबसे अधिक देखी जाती है।
'घूंघट' हिंदू महिलाओं द्वारा पहने जाने वाले आवरण (clothing) का एक पारंपरिक टुकड़ा है। एक स्कार्फ या दुपट्टा सिर और चेहरे को ढक देता है, जिससे केवल आंखें दिखाई देती हैं।
हालाँकि हिंदू धर्म में महिलाओं को,यह चुनने की स्वतंत्रता है कि, वे अपने सिर और चेहरे को ढकें या नहीं, भारत के कई हिस्सों में चेहरे को ढंकने की प्रथा सख्ती से प्रचलित है।
वे धार्मिक कारणों से पर्दा कर सकती हैं, या वे बड़ों अथवा प्रभुत्व धारी व्यक्तियों के (authority figures) सम्मान के संकेत के रूप में ऐसा कर सकती हैं। कुछ मामलों में, महिलाएं अपनी शालीनता के प्रतीक के रूप में पर्दा करती हैं।
हाल के वर्षों में, 'घूंघट' को लेकर बहुत बहसें हुई है, कई महिलाओं का तर्क है कि, यह उत्पीड़न और अपमान का प्रतीक है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि, 'घूंघट' महिलाओं की स्वतंत्रता और पसंद को प्रतिबंधित करता है। जो महिलाएं घूंघट पहनती है वे दूसरों के साथ बातचीत करने या समाज में पूरी तरह से भाग लेने की अपनी क्षमता को सीमित कर देती हैं।
इसके अलावा, यह प्रथा पुरुष प्रधान मूल्यों को मजबूत करती है और लैंगिक असमानता को बढ़ावा देती है। हालांकि, घूंघट पहनने के लिए कोई कानून आदेश नहीं देता, किन्तु, इसका उपयोग अभी भी भारत के कई हिस्सों में लोकप्रिय है।
दिलचस्प बात यह है कि, कोई भी कानून या शास्त्र में हिंदू महिलाओं को घूंघट और सिर ढकने को आवश्यक नही बताया गया है ।
वाल्मीकि की रामायण में स्त्रियों के सिर ढकने का कोई उल्लेख नहीं है। हिंदू धर्मशास्त्रों भी में रानी और अन्य महिलाएं बिना किसी अवरोध के जनता के सामने मौजूद रहती थीं।
या न शक्या पुरा द्रष्टुम् भूतैः आकाशगैः अपि |
ताम् अद्य सीताम् पश्यन्ति राज मार्ग गता जनाः || 2-33-8(अयोध्याकांड)
पुरा = पहले; या = जिसे; भूतैरापी = जीव भी; आकाशगईह = हवा से गुजरना; न शक्या = नहीं कर सका; द्रष्टुम = देखना; आद्य = आज; ताम सीतां = ऐसी सीता जनाः = लोग; मार्ग गता = सड़क पर चलना; पश्यन्ति = देख रहे हैं।
"ओह ! पहले जिसे आकाश में विचरने वाले प्राणी भी नही देख पाते थे, उसी सीता को आज सड़क पर चलते हुए लोग देख रहे है।
भारत में 'पुरातत्वविदों' द्वारा गुप्त, शुंग और होयसल काल की कलाकृतियों से पता चलता है कि, महिलाओं को हमेशा सिर ढके हुए नहीं दर्शाया जाता था।
इसके बजाय, केश सज्जा (हेयर स्टाइल), गुथे हुए बाल, बालों के लिए कांटा और सिर के आभूषणों का अत्यधिक महत्व था।
'होयसला' मंदिर की मूर्तिकला स्त्री सौंदर्य, शोभा और काया को प्रतिबिम्बित करने के लिए नज़ाकत और शिल्प कौशल पर जोर देती है।
भारत के जनजातीय क्षेत्रों में, विशेष रूप से पूर्वी भारत में, कभी भी सिर ढकने की प्रथा नही रही है।
तो आखिर, घूंघट भारतीय उपमहाद्वीप में कैसे आया?
'घूंघट' ज्यादातर भारत के उत्तरी और उत्तर-पश्चिमी भागों में प्रचलित है। ये वे क्षेत्र थे जहां मुगलों जैसे आक्रमणकारियों का प्रभाव था।
क्योंकि, हमलावर सेनाएं आक्रामक थी, इसलिए महिलाएं आसानी से उनका निशाना बनने योग्य थीं और अपराध की चपेट में आ सकती थीं।
अतः महिलाओं को सैनिकों द्वारा दुरुपयोग या अपहरण से बचाने के लिए उन्हें, उनके घरों से बाहर पर्दे में रखना एक प्रथा बन गई।
इस प्रथा ने कब अपना स्वरूप परंपरा में बदल लिया? इसकी समयरेखा धुंधली है।
इस्लामी शासकों ने शायद ही दक्षिण भारत को प्रभावित किया हो। इसलिए, सिर ढकना अभी भी व्यवहार में नहीं है, न तो परंपरा के रूप में और न ही धर्म के रूप में।
यह एक संयोग हो सकता है कि, 'मध्य-पूर्व एशिया' में दुल्हन के अपहरण की संस्कृति अभी भी मौजूद है। उदाहरण के लिए, किर्गिस्तान में, दूल्हा लड़की का अपहरण कर लेता है।
एक स्वीकृति समारोह समाप्त होने तक वह उसे अपने घर में ही रखता है। उसके बाद, दुल्हन के माता-पिता को सूचित किया जाता है और शादी को स्वीकार करने के लिए मजबूर किया जाता है।
यदि संस्कृति ने आक्रमणकारियों के साथ यात्रा की है, जैसी उसने भारतीय उपमहाद्वीप में की थी, तो दुल्हन की जीत की यह संस्कृति ,भारतीय परंपरा 'बारात' (धूमधाम से शादी) का एक अशिष्ट रूप है।
इस प्रथा में दूल्हा घोड़े पर सवार होकर दुल्हन के घर जाता है जैसे कि, उसने अपनी दुल्हन को जीत लिया हो। बारात की परंपरा और उसमें निहित तत्व अभी भी भारतीय उपमहाद्वीप में जारी है।
एशिया और भारतीय उपमहाद्वीप में आक्रमणकारियों की क्रूरता से सुरक्षा के रूप में जो प्रथा शुरू हुई, वह एक गहरी जड़ें जमा चुकी संस्कृति बन गई है।
महिलाओं के साथ प्रतिबंधात्मक पद्धति के विषय और लूट की वस्तु के रूप में बर्ताव किया जाता है जिसे, सुरक्षा की आवश्यकता होती है। दुर्भाग्य से, यह मानसिकता 21वीं सदी में भी जारी है।
महिलाओं का शोषण
'हिजाब', 'विंपल', घूंघट या किसी भी अन्य प्रकार के शरीर को ढकने वाले रूपों को लेकर काफी बहस होती है क्योंकि, इसे महिलाओं का शोषण माना जाता है।
जो लोग ये दावा करते हैं कि, यह महिलाओं के शोषण का एक रूप है, उनका तर्क है कि, महिलाओं को उनके पिता, भाइयों और पति द्वारा इन कपड़ों को पहनने के लिए मजबूर किया जाता है और उन्हें कोई अन्य विकल्प भी नहीं दिया जाता ।
यहां तक कि, वे महिलाएं जो कभी इस जुल्म के अधीन रही थी, वे ही अब इसे कड़ाई से थोपने वालों में से एक बन चुकी हैं।
उनका यह भी तर्क है कि, जो महिलाएं हिजाब नहीं पहनती, उनके साथ अक्सर परिवारों और समुदायों के द्वारा भेदभाव किया जाता है और उन्हें दबाव का सामना भी करना पड़ता है।
“
भारत के जनजातीय क्षेत्रों में, विशेष रूप से पूर्वी भारत में, कभी भी सिर ढकने की प्रथा नही रही है।
निष्कर्ष
समय बदल गया है।
अब महिलाओं का लूट की वस्तु की तरह सड़क से अपहरण नहीं किया जाता। आवश्यक सुरक्षा अलग तरह के दर्ज़े की है जो, 21वीं सदी से जुड़ी हुई है।
ऐसे मानवाधिकार हैं जिनके, बारे में लोगों को अब 'इंटरनेट' (Internet) की बदौलत जानकारी हैं।
इस आधुनिक अवधारणा के बारे में केवल एक सैद्धांतिक ज्ञान ही सशक्तिकरण के लिए पर्याप्त है।
आधुनिक समाज भी 'व्यक्तिवाद' की ओर बढ़ रहा है। इसका अर्थ यह है कि,व्यक्ति के मामलों में उसी समय हस्तक्षेप करना चाहिए, जबकि व्यक्ति दूसरे व्यक्ति की स्वतन्त्रता में हस्तक्षेप करे।
कानून के प्रति सम्मान और कानून का पालन करने की मांग बढ़ रही है। अतः शरीर को ढकने के इस्तेमाल से जुड़ा 'सुरक्षा का तत्व' सड़कों पर से फीका पड़ने लगा है।
इसलिए, महिलाओं के कपड़ों से जुड़े "सुरक्षा" के तर्क को, समाप्त करने का समय आ गया है।
बल्कि, औद्योगीकरण और उपभोक्तावाद को लोगों की आवश्यकता होती है अपनी योग्यता और प्रतिभा के प्रदर्शन के लिए ताकि वे आगे बढ़ सके।
प्रतियोगिता की इस आधुनिक दुनिया में सभी क्षेत्रों में 'दृष्टि विद्या' अत्यावश्यक है। बहुत आसान काम, इसे उपयुक्त ध्यान आकर्षित करने के लिए कई अन्य गुणों के साथ में 'ड्रेसिंग' (पुरुष और महिला दोनों) की आवश्यकता होगी।
कोई भी चेहरा या शरीर ढकने की कोशिश प्राचीन धारणा को फिर से बहाल करती है, कि, पुरुष विकृत हैं और एक महिला को इनकी परभक्षी आंखों से खुद को बचाने के लिए पूरी तरह से ढके रहने की आवश्यकता है।
दुख की बात है कि, यह आंशिक रूप से सच है। क्योंकि, 21वीं सदी में भी, महिलाओं के खिलाफ अपराध एक वैश्विक मुद्दा बना हुआ है, चाहे युद्ध हो या शांति। इसके उलट कोई स्थिति नही है।
यदि शरीर को ढकना महिलाओं की रक्षा का एक उपाय था तो, एक कुरूप तथ्य अभी भी बना हुआ है।
पश्चिम के आधुनिक समाज में, जहाँ, 'उदारवाद' महिलाओं के पहनावे को मज़बूती से समर्थन देता है, वही महिलाओं के खिलाफ अपराध ठीक उतने ही अधिक और समान है जैसे कि, प्रतिबंधात्मक समाज में है।
महिलाओं के शोषण, लैंगिक असमानता और भेदभाव का स्तर आँकड़ो की दृष्टि से भिन्न हो सकता है, किन्तु फिर भी, यह बुराइयाँ हर जगह उल्लेखनीय ढंग से मौजूद हैं। अतः, इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि, महिलाएं खुद को ढक कर रखती हैं या नहीं।
धर्म एक अत्यधिक व्यक्तिगत मामला है और प्रत्येक महिला को अपना सिर ढकना है या नहीं, इस बारे में अपना निर्णय स्वयं करना चाहिए।
किन्तु, आखिरकार,सवाल यही है कि, हम धर्म की व्याख्या कैसे करते हैं और अनुयायियों पर धार्मिक प्रथा कैसे थोपी जाती है।
यदि राज्य, 'ड्रेस कोड' के साथ हस्तक्षेप नहीं करता है और इसे महिलाओं की पसंद पर छोड़ देता है, तो इसपर विवाद कम होगा। ऐसा करने पर, महिलाओं के चेहरे को ढकने का मुद्दा, एक कठोर कानून से हटकर जो की महिलाओं की स्वतंत्रता का उल्लंघन करता है।
एक प्रतिबंधात्मक परंपरा की ओर मुड़ जाएगा जिसमें, आलोचनात्मक समीक्षा की आवश्यकता होती है। इसके साथ-साथ, यह लोगों को इस प्रथा की व्याख्या करने और इसे चुनने के लिए और अधिक स्वतंत्रता देगा।
आज़ाद ख्याल के मानदंडों और धर्मनिरपेक्ष जीवन शैली के बारे में तेजी से जागरूक होती इस दुनिया में, 'धार्मिक स्वतंत्रता' की रक्षा करना पहले से कहीं अधिक महत्वपूर्ण हो गया है।
इस प्रकार से, यह 'सिर ढंकना' या 'ड्रेसिंग' नहीं है जो, समाज में हिजाब, विंपल या घुंघट की भूमिका को परिभाषित करता है।
बल्कि, यह तत्व है धर्म, संस्कृति, परंपरा, भय, संरक्षण, शिक्षा, कानून, राज्य और प्रभुत्व के लिए संघर्ष का मिश्रण। यह सभी, जटिलता में लिपटे हुए , इतिहास द्वारा परिभाषित है, जिनका, महिला पर असर भारी है।
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