क्या भारत की न्याय व्यवस्था, राष्ट्र की दुश्मन बन रही है?
क्या भारत की न्याय व्यवस्था, राष्ट्र की दुश्मन बन रही है?
Is India's Legal System Becoming Nation's Enemy? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
यहाँ पर हम कुछ गंभीर और परिणामी मुद्दों पर चर्चा करना जारी रखेंगे जिनसे भारत की सम्पूर्ण सरंचना को ही खतरा हैं।
दिलचस्प बात यह है कि ये मुद्दे, इस राष्ट्रीय चुनाव, यानि 2024 के चुनावों में, राजनीतिक दलों के घोषणापत्र या एजेंडे में भी नहीं हैं।
इस लेख में वास्तविक खतरों के बारे में चल रही चर्चा में, एक महत्वपूर्ण पहलू जो अक्सर जांच के दायरे में आता है, वह है न्याय प्रणाली (Justice system) ।
न्याय का वितरण इसके अंदर रहने वालों नागरिकों के अधिकारों और स्वतंत्रता को कायम रखने वाली बुनियाद के रूप में खड़ा है।
हालाँकि, भारत में न्याय की ओर यात्रा चुनौतियों से भरी हुई है जो इसके मूलतत्व और आबादी की सम्पूर्ण भलाई को खतरे में डालती है।
जब हम न्याय की बात करते हैं, तो इसमें अदालती लड़ाई या कानूनी फैसलों से कहीं ज़्यादा शामिल होता है।
यह हमारे संविधान में निहित अधिकारों और विशेषाधिकारों की विस्तृत श्रेणी (Spectrum) को सम्मिलित करता है, जिसमें समानता, अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता, महिलाओं के अधिकार, सामान्य रूप से मानवाधिकार, गोपनीयता और संपत्ति के अधिकार शामिल हैं।
इसलिए, अपने दैनिक जीवन में हम अक्सर इन अधिकारों को अपने सहज बोध से सुरक्षित रखते हैं, केवल तभी कानूनी उपायों की सहायता लेते हैं जब इन अधिकारों का उल्लंघन होता है, जैसे कि केवल चरम मामलों में।
कानूनी प्रक्रिया सभी पक्षों के लिए सजा बन गई है।
वरना, क्यों लोग, आम तौर पर कानूनी लड़ाइयों से दूर एक अविवादित जीवन और उसे सामंजस्यपूर्ण तरीके से रहना पसंद करते हैं। वे क्यों हर दिन अपने अधिकारों के उल्लंघन का विरोध करने के लिए अदालत नहीं जाना चाहते।
जैसा कि हम सभी जानते हैं, भारतीय न्याय व्यवस्था, तीन-स्तरीय संरचना पर काम करती है: निचली अदालतें, उच्च न्यायालय और सर्वोच्च न्यायालय। सर्वोच्च न्यायालय शीर्ष निकाय के रूप में कार्य करता है।
तो वह खतरा कहां है? लंबित मामलों की संख्या एक डरावनी तस्वीर पेश करती है, जैसे कि न्यायपालिका के विभिन्न स्तरों पर लगभग 5 करोड़ मामले लंबित हैं।
भारत की न्याय व्यवस्था एक आश्चर्यजनक और अत्यधिक बोझ से जूझ रही है।
“
सिर्फ 34 जज हैं जिन्हें 70,000 लंबित मामलों को निपटाना है
फिर इसमें एक और मुद्दे को जोड़ दे तो समस्या अधिक जटिल बन रही है जो की
है, न्यायाधीशों की कमी, विशेष रूप से उच्च न्यायालयों में जहां लगभग 30% पद रिक्त हैं।
इस प्रकार, हमारे पास उच्च न्यायालय में न्याय प्रदान करने के लिए लगभग 1100 न्यायाधीश हैं, और जिसमें से 330 रिक्तियां अभी भी लंबित हैं।
परिणामस्वरूप, मुकदमों की संख्या और न्यायिक क्षमता के बीच यह स्पष्ट खामियां साफ साफ एक बड़ी विफलता है, और यह कानूनी व्यवस्था की कार्यक्षमता और प्रभावकारिता को कमजोर करता है।
इसके अलावा, न्यायिक नियुक्तियों की गुणवत्ता के बारे में भी चिंताएं हैं; यह माना
जाता है कि अपर्याप्त जांच प्रक्रिया और कड़े मापदंडों की अनुपस्थिति के कारण
अक्सर निचली न्यायपालिका में न्यायाधीशों की क्षमता में विसंगति आती है, और
फिर दूसरी तरफ भारत में उच्च न्यायालय में न्यायिक नियुक्तियों के लिए *कॉलेजियम प्रणाली है।
अब, गुडतंत्र और क्षमता सुनिश्चित करने के लिए कुछ सुधार की भी आवश्यकता है, क्योंकि, न्यायपालिका में जनता के विश्वास के बावजूद, न्याय मिलने की
प्रकिया अक्सर बहुत लंबी हो जाती है, तथा अत्यधिक मामलों से जूझ रही अदालतों में मामलें वर्षों या फिर दशकों तक लटके रहते हैं।
एक तुलनात्मक विश्लेषण में भारत की न्यायिक समयसीमा की कड़वी हकीकत की तुलना यूरोपीय न्यायालयों से की गई है। जिसमें पाया गया कि, यूरोपीय
न्यायालय औसतन 16 महीने में मामलें निपटाते हैं , ब्रिटेन 6 महीने यानी करीब 180 दिन में और इसके उलट भारतीय न्यायलयों में मामलों का निपटान औसत 10 (दस) साल से अधिक है।
अकेले सुप्रीम कोर्ट में ही लगभग 70,000 मामले लंबित हैं , जो इस चुनौती की गंभीरता को दर्शाता है।
हमें यह भी पता होना चाहिए कि सुप्रीम कोर्ट में अधिकांश मामलें राज्य और उसके अधिकारियों से जुड़े हैं। कई बार, यह *संवैधानिक पीठ (Constitutional bench) में भी होते है।
इसलिए, इन अदालतों में, खास तौर पर उच्चतम न्यायालय में, फैसले सुनाने में होने वाली कोई भी देरी, देश की बड़ी आबादी के लिए परिणामी है।
यहां मुद्दा यह है कि सिर्फ 34 जज हैं जिन्हें 70,000 लंबित मामलों को निपटाना है।
भारत के लिए 5 करोड़ लंबित मामलों का क्या मतलब है? भारत की 18 साल और उसके ऊपर की आबादी को देखते हुए , इसका मतलब है लगभग 96 करोड़ ।
तो इस तरह से यह लगभग 5% भारतीयों को , किसी न किसी तरह से न्यायालयों से उपाय और न्याय पाने की चाह में , कतार में खड़े करता है।
इसका मतलब है कि हर 20 में से 1 भारतीय को, औपचारिक न्यायालय, निचली अदालत या उच्च न्यायपालिका से कुछ नतीजे का इंतजार करना पड़ता है।
अब विचार करें कि प्रत्येक मुकदमा लड़ने वाला व्यक्ति, 4 से 5 व्यक्तियों के लिए परिणामी है।
इसलिए, इससे प्रभावित भारतीयों की संख्या हर 4 में से 1 है। एक बुनियादी अंकगणित से समझे तो यह जनसंख्या का लगभग 25% बनाता है।
इस प्रकार, प्रणालीगत विफलताओं के प्रभाव मानव जीवन के कानूनी तकनीकी पहलुओं से परे फैले हुए हैं।
एक और उदाहरण है विचाराधीन कैदियों के मामले में एक और समस्या यह है कि वे दशकों तक जेल में बंद रहते हैं।
*राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (National Crime Records Bureau) के अनुसार, जेलों में बंद 67% कैदी विचाराधीन हैं ।
इसलिए, उनके मामलों की सुनवाई के लिए प्रतीक्षा सूची लंबी है। मई 2022 में, चंद्रेश मस्कहोल (एक MBBS छात्र ) के मामले में, उन्हें 13 साल जेल में रखने के बाद, मध्य प्रदेश उच्च न्यायालय ने बरी कर दिया।
ये कोई अकेले इंसान नही थे जिनके साथ ऐसा अन्याय हुआ। बिहार का एक और आदमी था, जो 28 साल जेल में रहने के बाद हत्या के आरोप से बरी हुआ।
जब उसे गिरफ्तार किया गया था, तब उसकी उम्र 28 साल थी और जब वो कोर्ट से रिहा हुआ, तब उसकी उम्र 58 साल हो गई थी। इस तरह यहां पर एक और जीवन बर्बाद हो गया ; ऐसे ही कई मामले हैं।
इस तरह, प्रत्येक फैसले में देरी होना, न्याय के कुप्रबंध को दर्शाता है। यह एक व्यक्ति के सुनहरे दिनों को छीन लेता है और यह एक व्यवस्था के द्वारा अन्याय है जो पूरे समाज में झलकता है।
यह समाज में एक निष्क्रिय, कानूनी प्रणाली के रूप में गहरा प्रभाव डालता है। इसलिए जब भारत की जेलों में बंद दो-तिहाई लोग अदालत में अपने मुकदमे की
सुनवाई के दिन का इंतजार कर रहे हैं, यह सिर्फ अनैतिक प्रथाओं और सत्ता के दुरुपयोग के लिए एक प्रजनन स्थान है।
इसलिए, इन प्रणालीगत चुनौतियों का समाधान करने, न्यायालय प्रणाली को मजबूत करने, कानूनी कार्यवाहियों में तेजी लाने पर तत्काल ध्यान देने की आवश्यकता है और एक मजबूत न्याय वितरण प्रणाली लाने की भी आवश्यकता है।
यह सब करने के लिए एक लक्षित प्रणाली की आवश्यकता है, और सरकारों को अदालतों को यह कहना होगा कि अगले 10 वर्षों के भीतर, वे लंबित मामलों के संग्रह को केवल 10% तक लाएंगे।
तो, मूल प्रश्न पर वापस लौटते हुए कि भारत में न्याय वितरण प्रणाली देश की ही दुश्मन क्यों है और यह भारत को क्यों डरा रही है। ऐसा इसलिए है क्योंकि यह लोकतंत्र और कानून के शासन को कमजोर करती है।
“
सुप्रीम कोर्ट में ही लगभग 70,000 मामले लंबित हैं
लोकतंत्र को बनाए रखने के लिए एक मजबूत न्याय प्रणाली अत्यंत महत्वपूर्ण है।
जब यह प्रणाली समय पर और निष्पक्ष न्याय देने में विफल हो जाती है, तो यह लोकतांत्रिक संस्थाओं में जनता के विश्वास को खत्म कर देती है, दंड से मुक्ति की
भावना को बढ़ावा देती है, भारत के लोकतंत्र की नींव को कमजोर करती है और इसे शोषण और हेरफेर के प्रति संवेदनशील बनाती है।
यह बहुत ज़रूरी है कि हम ‘न्याय में देरी’ (Delayed justice) की वजह से पैदा होने वाले सामाजिक असंतोष और अस्थिरता को रोकें।
जैसा कि हमने निर्भया के मामले में देखा, अपराध से लेकर दोषियों को फांसी देने तक 7 साल लग गए और वह भी तब जब यह सब फास्ट-ट्रैक (Fast- track) कोर्ट में हुआ, जिसे जन आक्रोश के तुरंत बाद स्थापित किया गया था।
जैसा कि हमने देखा है, न्याय में देरी भी, मानवाधिकारों का उल्लंघन है क्योंकि इससे हाशिए पर पड़े और कमज़ोर लोगों का शोषण होता है, जो बिना किसी
सुनवाई के, भीड़भाड़ वाली जेलों में सड़ रहे हैं। गौरतलब है कि इससे राष्ट्रीय सुरक्षा भी कमज़ोर होती है।
कैसे?
क्योंकि कमजोर न्याय प्रणाली अपराधियों को प्रोत्साहित करती है, यह आतंकवाद और संगठित अपराध (organized crime) से संबंधित अपराध को प्रोत्साहित
करती है, मुजरिमों को साहसी बनाती है, और उनके लिए कानून और प्रवर्तन प्रयासों (Enforcement efforts) के साथ समझौता करना आसान बनाती है;
इसलिए, सुरक्षा खतरों को तेजी से और प्रभावी ढंग से संबोधित करने में विफलता, यह राष्ट्र की रक्षा को सुरक्षा की भावना को कमजोर करती है।
हमारे सामने कसाब का मामला है; यह कैमरे पर कैद हुआ था, और सबूत भी मौजूद थे, लेकिन फिर भी, दोषी को फांसी पर लटकाने में लगभग 4 साल लग गए, जबकि यह राष्ट्रीय हित का एक हाई-प्रोफाइल मामला था।
इसलिए, जब हम कहते हैं कि निष्क्रिय न्याय वितरण प्रणाली भारत की दुश्मन है, तो हम *राष्ट्र के मूल मूल्यों (Core values), राष्ट्र की स्थिरता और आर्थिक प्रगति के लिए जो ये खतरा उत्पन्न कर रही है उसको उजागर करना चाहते हैं।
इसलिए, इन चुनौतियों से कैसे निपटा जाए ये सोचना और प्रणाली में सुधार
करना एक "अनिवार्य" आवश्यकता है,भारत के लोकतांत्रिक सिद्धांतों, सामाजिक सद्भाव, आर्थिक जीवंतता और बेशक, आखिरी पर कमतर नहीं, राष्ट्रीय सुरक्षा की हिफ़ाजत के लिए ।
एक्सपर्टएक्स भारत में माननीय न्यायालयों के प्रति उचित सम्मान व्यक्त करते हुए इस लेख को प्रस्तुत करना चाहता है।
भारतीय न्याय प्रणाली का कोई भी संदर्भ सार्वजनिक रूप से उपलब्ध जानकारी और सामान्य अवलोकन पर आधारित है । इसे आलोचना या न्यायालय की अवमानना के रूप में नहीं समझा जाना चाहिए।
इसलिए, यह अस्वीकरण, मुक्त भाषण के सिद्धांतों के अनुपालन को सुनिश्चित करने और बेशक जनहित के मामलों पर खुली बातचीत को बढ़ावा देते हुए न्यायपालिका को उचित सम्मान देता है।
*क्या है कॉलेजियम प्रणाली?
सुप्रीम कोर्ट यानि सर्वोच्च न्यायालय के निर्णय से बनाई गई यह एक प्रणाली है, जिसके अंतर्गत न्यायाधीशों की नियुक्ति और स्थानांतरण किया जाता है।
यह कॉलेजियम सिस्टम भारत के संविधान के अनुच्छेद 124 और 217 सर्वोच्च और उच्च न्यायालय में क्रमशः न्यायाधीशों की नियुक्ति से संबंधित है। हालांकि यह प्रणाली संसद के किसी अधिनियम या फिर संविधान के प्रावधान द्वारा स्थापित नहीं है।
कैसे विकसित हुई यह प्रणाली?
प्रथम न्यायाधीश मामला : इस मामले के तहत न्यायिक नियुक्तियों और स्थानांतरण पर मुख्य न्यायाधीश के सुझाव की प्रधानता को उचित कारणों के साथ अस्वीकार किया जा सकता था।
ऐसा किए जाने पर आगामी 12 सालों के लिए न्यायपालिका के ऊपर कार्यपालिका की प्रधानता स्थापित हुई।
द्वितीय न्यायाधीश मामला : इस प्रणाली के शुरू होने के साथ सर्वोच्च न्यायालय का कहना था कि इसके अंतर्गत परामर्श का अर्थ सहमति होगा।
यही नहीं इसमें सर्वोच्च न्यायालय के 2 वरिष्ठ न्यायाधीशों का परामर्श लिया जाएगा।
तृतीय न्यायाधीश मामला : इसके कुछ समय बाद राष्ट्रपति के द्वारा प्रेसिडेंशियल रेफरेंस पेश किया गया। जिसमें सुप्रीम कोर्ट के द्वारा कॉलेजियम प्रणाली को 5 सदस्यों के रूप में माना गया।
इनमें सीबीआई और चार वरिष्ठ जज शामिल होंगे।
1. संविधान पीठ क्या है?
• संविधान पीठ भारत के सर्वोच्च न्यायालय की एक पीठ है जिसमें पाँच या अधिक न्यायाधीश होते हैं।
यह भारतीय संविधान के अनुच्छेद 145 के अनुसार संविधान की व्याख्या से संबंधित कानून के पर्याप्त प्रश्नों को तय करने के लिए गठित किया गया है।
2. संविधान पीठ क्यों बनाई जाती है?
• संविधान पीठ का गठन तब किया जाता है जब किसी मामले में महत्वपूर्ण संवैधानिक प्रश्न शामिल होते हैं या जब पिछले सुप्रीम कोर्ट के फैसलों पर पुनर्विचार या स्पष्टीकरण की आवश्यकता होती है।
3. संविधान पीठ नियमित पीठ से किस प्रकार भिन्न है? • सर्वोच्च न्यायालय की एक नियमित पीठ में आमतौर पर दो या तीन न्यायाधीश होते हैं और यह कानूनी मुद्दों की एक विस्तृत श्रृंखला से निपटता है।
इसके विपरीत, पांच या अधिक न्यायाधीशों वाली संविधान पीठ विशेष रूप से महत्वपूर्ण संवैधानिक मामलों को संबोधित करती है।
• भारत के मुख्य न्यायाधीश (CJI) मामले की प्रकृति और इसमें शामिल कानून के सवालों पर विचार करते हुए एक संविधान पीठ के गठन का फैसला करते हैं। हालांकि, CJI के लिए पीठ का नेतृत्व करना आवश्यक नहीं है।
संविधान पीठ कानूनी मिसालों को कैसे प्रभावित करती है?
• संविधान पीठ के फैसले निचली अदालतों और भविष्य के मामलों के लिए बाध्यकारी मिसाल कायम करते हैं। वे भारत में संवैधानिक कानून की व्याख्या और उसे आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हैं।
7. क्या संविधान पीठ के फैसलों को खारिज किया जा सकता है? • हालांकि संविधान पीठ के फैसले अत्यधिक आधिकारिक होते हैं, उन्हें सुप्रीम कोर्ट की एक बड़ी पीठ द्वारा खारिज या संशोधित किया जा सकता है, जिसमें पांच से अधिक न्यायाधीश होते हैं।
8. संविधान पीठ में किसी मामले की सुनवाई की प्रक्रिया क्या है?
• यह प्रक्रिया मुख्य न्यायाधीश द्वारा पीठ का गठन करने के साथ शुरू होती है। पीठ दोनों पक्षों की दलीलें सुनती है, प्रासंगिक कानूनी और संवैधानिक प्रावधानों की जांच करती है, और एक फैसला सुनाती है जिसमें कानूनी तर्क और संविधान की व्याख्या शामिल होती है।
9. संविधान पीठ कानून के विकास में कैसे योगदान देती है?
• संवैधानिक कानून के पर्याप्त प्रश्नों को संबोधित करके, एक संविधान पीठ कानूनी सिद्धांतों के विकास और स्पष्टीकरण में योगदान देती है 10. संविधान पीठों का गठन कितनी बार किया जाता है?
• संविधान पीठों का गठन आवश्यकतानुसार, प्रस्तुत मामलों की प्रकृति और महत्व के आधार पर किया जाता है। हालांकि यह रोज़ाना नहीं होता, लेकिन संवैधानिक मुद्दों पर ध्यान देने के लिए इनका नियमित रूप से गठन किया जाता है
*राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी), एक भारतीय सरकारी एजेंसी है जो भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) और विशेष और स्थानीय कानूनों (एसएलएल) द्वारा परिभाषित अपराध डेटा एकत्र करने और उसका विश्लेषण करने के लिए जिम्मेदार है। एनसीआरबी का मुख्यालय नई दिल्ली में है और यह भारत सरकार के गृह मंत्रालय (एमएचए) का हिस्सा है।
*हमारे राष्ट्रीय मूल्यों में अनुशासन, संयम और निम्नलिखित लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए सभी की चेतना को प्रेरित करने का आदर्श शामिल है:
स्वार्थ और लोभ से उत्पन्न आंतरिक संकीर्णताओं को मिटाओ,
समाज के प्रति हार्दिक स्नेह और सामूहिक भलाई के प्रति चिंता का भाव पैदा करें, और
व्यक्ति, परिवार और समग्र समाज में पर्याप्त आंतरिक शक्ति और चरित्र का निर्माण करें।
Other Articles
Did Western Medical Science Fail?
How to Harness the Power in these Dim Times?
Is India’s Economic Ladder on a Wrong Wall?
Taking on China – Indian Challenges
British Border Bungling and BREXIT
When Health Care System Failed – others Thrived.
3 Killer Diseases in Indian Banking System
Work from Home - Forced Reality
Why Learning Presentation Skills is a Waste of Time?
Is Social Justice Theoretical?
Will Central Vista fit 21st Century India?
Why Must Audit Services be Nationalized?
To Comment: connect@expertx.org
Support Us - It's advertisement free journalism, unbiased, providing high quality researched contents.