कठिन परिस्थिति: मध्य पूर्व में भारत की भूराजनीति
भाग 2
कठिन परिस्थिति: मध्य पूर्व में भारत की भूराजनीति
भाग 2
Walking Tightrope: India's Geopolitics in the Middle East का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
लेख के भाग एक में, हमने 1948 से लेकर आजतक कि, भारत-इज़राइल संबंधों की यात्रा और यह कैसे विकसित हुआ है, इस पर चर्चा की।
यहां पर हम इस रिश्ते के हमारे द्वारा अनुमानित भविष्य में होने वाले परिणामों और जोखिमों पर चर्चा करेंगे।
भारत, दुनिया की भू-राजनीति के बीच में केवल अपने आर्थिक और व्यावसायिक लाभों की पेशकश की वजह से है। इसीलिए दुनिया के अन्य देश भारत को 1.4 अरब उपभोक्ताओं के बाज़ार के रूप में देखते हैं।
इस कारण से, इस भारतीय उदार बाजार (Liberal market) को दुनिया भर के कई देशों और कंपनियों के लिए अस्तित्व में बने रहने के मौके के रूप में भी देखा जाता है ।
लेकिन फिर दूसरी तरफ भारत भौगोलिक रूप से परस्पर -विरोधी पक्षों के बीच भी स्थित है और दुश्मनों के बीच एक कठिन परिस्थिति में चल रहा है।
तो, इस प्रकार, हमारे पास इजराइल, ईरान, अफ़ग़ानिस्तान का लड़ाई का मैदान है, पाकिस्तान, चीन और किसी भी समय अमेरिका को प्रभावित करने वाले देश हैं।
आइए कुछ अहम बातों की जाँच करें जो भारतीय भू-राजनीति की किताब में जोखिम को परिभाषित करते हैं। साथ ही, हम गाजा संघर्ष में भारत के रुख पर भी संक्षेप में बात करेंगे और इसके बारे में एक राय भी साझा करेंगे।
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भारत, दुनिया की भू-राजनीति के बीच में केवल अपने आर्थिक और व्यावसायिक लाभों की पेशकश की वजह से है
शुरुआत के लिए, हमारे पास ईरान से एक संबंध है। जैसे कि, ईरान एक प्रमुख तेल उत्पादक देश है और भारत उसका एक बड़ा तेल उपभोक्ता रहा है।
और अगर भारत को अपने लिए 6 प्रतिशत या 8 प्रतिशत की वृद्धि का लक्ष्य रखना है, तो तेल एक अहम और महत्वपूर्ण कारक बन जाता है।
अतीत में, वर्ष 2019 तक, ईरान भारत का दूसरा सबसे बड़ा तेल आपूर्तिकर्ता था, जब तक कि अमेरिकी प्रतिबंधों ने भारत को वहां से तेल आयात करने से नहीं रोका।
हालाँकि, * ऊर्जा सुरक्षा, अभी भी भारत के लिए एक गंभीर चिंता का विषय बनी हुई है, और इस कारण से, ईरान के साथ एक आजीवन चलने वाला और स्थिर संबंध, दोनों देशों के बीच भविष्य के ऊर्जा सहयोग के लिए, महत्वपूर्ण रहा है और रहेगा।
ईरानी तेल पर निर्भरता इतनी अनिवार्य और बड़ी रही है कि, जिसके कारण मैंगलोर में स्थित, भारतीय तेल रिफाइनरी, मुख्य रूप से, ईरान से आने वाले ‘भारी कच्चे तेल’ (heavy crude) को ध्यान में रखते हुए बनाई गई थी।
इस तरह, इतना आर्थिक निवेश और उसकी निर्भरता सिर्फ ईरानी तेल पर है।
फिर, 2019 में भारत ने ईरानी तेल का आयात करना बंद कर दिया। नतीजतन, भारत रूसी तेल पर निर्भर हो गया और फिर, यूक्रेन युद्ध के कारण, रूसी तेल प्रतिबंधित उत्पाद निर्यात सूची (Restrictive product export list) में शामिल हो गया।
इस स्थिति पर काबू पाने के लिए भारत ने, ईरानी तेल का आयात ना करने से होने वाले नुकसान की भरपाई के लिए अमेरिका से, तेल आयात करना शुरू कर दिया।
रूस के प्रतिबंध सूची में आने के बाद, यह महसूस किया गया कि, एक तरह से, अमेरिका ने अनजाने में भारत की तेल नीति का नेतृत्व करना शुरू कर दिया था।
शुरू में, इसने ईरानी तेल नीति को निर्धारित किया, जिस कारण भारत का ईरान से तेल का आयात 2019 में बंद हो गया, और अब यह रूसी तेल पर प्रतिबंध लगा चुका है। लिहाजा, भारत गंभीर जोखिम की कगार पर खड़ा है।
इसके साथ ही, ईरान और भारत दोनों अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता से प्रभावित हैं, और वे दोनों ही पाकिस्तान के साथ सुरक्षा संबंधी चिंताओं को भी साझा करते हैं।
ईरान, अफ़ग़ानिस्तान और पाकिस्तान के बीच एक स्थिर पड़ोस होना ईरान और भारत के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण है।
इसके अलावा, भारत को, पाकिस्तान में चीन की भूमिका को संतुलित करना होगा।
क्योंकि, चीन के पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह (Gwadar port) में आर्थिक और सामरिक हित हैं, जो एक अनुबंध के आधार पर संचालित होता है लेकिन फिर आगे चलकर अपना राजनीतिक नियंत्रण स्थापित करने का प्रयास कर सकता है।
ईरानी चाबहार बंदरगाह (Chabahar port) में भारत की साझेदारी क्षेत्र में चीनी रणनीतिक मौजूदगी के लिए जवाबी प्रतिक्रिया थी।
इसलिए, हम देखते हैं कि भारत,एक शतरंज के खेल के बीच में फंसा दिखता है, जिसमें वह अमेरिका और चीन जैसी महाशक्तियों और इस क्षेत्र में राजनीति को परिभाषित करने में उनकी भूमिका के बीच संतुलन बनाने की कोशिश कर रहा है।
हालांकि, भारत एक संतुलनकारी कार्य कर रहा है, जैसे कि, अक्टूबर 2022 तक, भारत और इजराइल ने कई * समझौता ज्ञापनों यानी कि
Memorandums of understanding (MoU), में प्रवेश किया है, और उनमें से एक जो सबसे महत्वपूर्ण है वह है अदानी समूह (Adani group) और इजराइल के गैडोट समूह (Gadot group of Israel) के बीच।
अरबन्यूज़.ओआरजी (ArabNews.org) के अनुसार, अदानी समूह इजराइल के साथ एक संयुक्त बुनियादी ढांचा परियोजना का पता लगाएगा, उदाहरण के लिए, उसके हाइफ़ा बंदरगाह (Haifa port) के लिए।
यह अनेकों समझौता ज्ञापनों में से एक है।
जैसा कि हम सभी जानते हैं, अदानी समूह का वर्तमान भारत सरकार के साथ एक शक्तिशाली संबंध है। इसके अलावा, यह भी अनुमान लगाया गया है कि लगभग एक लाख भारतीय श्रमिक, इजराइल के निर्माण उद्योग में शामिल होंगे।
चाहे वह निर्माण इजराइल के भीतर हो या नए गाजा में, भविष्य में जब भी ये होगा, हम नहीं जानते कि, कब तक, किन्तु; फ़िलहाल, भारत और इजराइल के बीच एक मजबूत व्यापार और रणनीतिक साझेदारी उभर रही है।
अब इस क्षेत्र का सबसे पेचीदा हिस्सा आता है। जो है, इजराइल और ईरान के संबंध, ये दोनों देश 1987 से आपस में एक बहुत ही अधिक तनावपूर्ण और प्रतिकूल स्थिति में शामिल हैं।
वर्तमान में चल रहा छद्म संघर्ष (proxy conflict) इसका वर्णन कर सकता है और ये पूरे मध्य पूर्व में विभिन्न तरीकों से अपनी जगह ले सकता है। नतीजतन, इन दोनों कट्टर दुश्मनों के बीच 1987 के बाद से ही आधिकारिक राजनयिक संबंध नही है।
और दोनों देश सीरियाई गृहयुद्ध और वर्तमान में गाजा संघर्ष जैसे क्षेत्रीय संघर्षों में विपरीत गुटों का समर्थन कर रहे हैं।
वे एक-दूसरे पर लक्षित हमले और तोड़- फोड़ करने वाले हमले करवाने के भी आरोप लगाते हैं, इसके अलावा, इजराइल, अमेरिका जैसे अपने सहयोगियों के साथ,
ईरान के परमाणु कार्यक्रम का विरोध करता है, क्योंकि उसे डर है कि, वह परमाणु हथियार विकसित कर सकता है। यह उनके संबंधों में एक और ज्वलनशील मुद्दा है।
जैसा कि इस लेख के भाग एक में, चर्चा की गई थी कि, इजराइल के साथ, भारत की साझेदारी एक वैचारिक रुख से, एक व्यावहारिक दृष्टिकोण की ओर बढ़ गई है।
यह एक अमेरिकी दृष्टिकोण अधिक बन गई है, और मैं यहां पर हेनरी किसिंजर (Henry Kissinger) का हवाला देना चाहूंगा, जिन्होंने कहा था कि, अमेरिकियों का कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं है, हर किसी से उनका अपना स्वार्थ हैं।
उस अमेरिकी व्यावहारिक दृष्टिकोण ने अब फिलिस्तीन पर भारत के रुख को भी परिभाषित किया है। सिर्फ इसलिए कि इजराइल और भारत अब एक दूसरे के अच्छे दोस्त है , भारत ने 7 अक्टूबर के हमले के तुरंत बाद युद्धविराम के लिए संयुक्त राष्ट्र के प्रस्ताव से परहेज किया।
लेकिन इसके बाद, दिसंबर के मध्य तक, उसने युद्धविराम के लिए मतदान किया, लेकिन तब तक, संघर्ष के परिणामस्वरूप 18,000 लोगों की जान जा चुकी थी।
पहले मामले में युद्धविराम का समर्थन न करना तब हुआ, जब भारत ने अपनी साहसिक नेतृत्व स्थिति खो दी जहां पर विश्व शांति का सवाल था । यही वह दृष्टिकोण है।
देश की स्थापना के शुरुआत से ही जीवन की हानि को रोकना, भारत का वैचारिक रुख रहा है और यहीं पर यह असफल हो गया।
आज इस समय, फरवरी 2024 के मध्य में, संघर्ष शुरू होने के 130 दिन बाद भी, युद्धविराम लाने में भारत की भूमिका अस्पष्ट है, फिलिस्तीनी मुद्दे के लिए
भारत की भूमिका या उसकी आवाज़ धुंधली है, और यह भी छिपा हुआ है कि, भारत कैसे अपने 30 करोड़ भारतीय मुसलमानों की लोकतांत्रिक आवाज़ को ऊपर उठा रहा है, जो कि फिलिस्तीन के मुद्दे के प्रति सहानुभूति रखते हैं।
इस स्थिति के लिए कई कारक जिम्मेदार हैं. जैसे कि, भारतीय घरेलू नीति ने विदेश नीति को भी परिभाषित किया है और दोनों में एक मजबूत परस्पर क्रिया है।
जब फिलिस्तीनी सरकार का नेतृत्व हमास (Hamas) नामक घोषित आतंकवादी संगठन कर रहा है तो, हिंदू राष्ट्रवादी भारत सरकार, फिलिस्तीन के मुद्दे का समर्थन कैसे कर सकती है?
इसके अलावा, भारतीय मीडिया ने फिलिस्तीनी मुद्दे के साथ आतंकवाद के संदेहों को धुंधला कर दिया है। जिसने भारत सरकार के रुख और उसके इस मुद्दे में लिए गए यू-टर्न में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
नतीजतन, भारत के लिए, गाजा को लेकर घरेलू राजनीति, हिंदुत्व परियोजना और फिलिस्तीनी मुद्दे के कोहरे और इस्लामोफोबिया के धुएं से ढके दर्पण के बीच का एक मिश्रण है।
लेकिन फिर, अगर हम इसकी तुलना 1948 में भारत के रुख से करने की कोशिश करते हैं, तो पाएंगे कि तब इस्लामोफोबिया अपने चरम पर था, और
हिंदुत्व राष्ट्रवाद ने महात्मा गांधी की हत्या कर दी थी, आश्चर्यजनक रूप से हम पाएंगे कि भले ही, 1948 के उस समय में भारत कमजोर था, आजादी के कुछ ही महीने बीते थे, जब भारत खूनी विभाजन के उस दौर से धीरे धीरे बाहर निकल रहा था और गरीबी की समस्या का सामना भी, कर रहा था।
किन्तु, तब भी उसने भू-राजनीति के परिणामों से ना डरते हुए एक वैचारिक रुख अपनाया।
इसलिए, तथ्य यह है कि, यही वह समय था, जब भारत को कई देशों के समर्थन की सबसे ज्यादा जरूरत थी, जिनके खिलाफ उसने वह रुख अपनाया था।
इसके विपरीत, आज, जब भारतीय कहानी एक सुपर ब्रांड के रूप में ताकतवर देश की है, जहां यूनाइटेड किंगडम, फ्रांस और अमेरिका जैसी महाशक्तियां आर्थिक और वाणिज्यिक लाभ के लिए उसके दरवाजे पर कतार में खड़ी हैं, भारत एक वैचारिक रुख अपनाने से कतरा रहा हैं ।
यहीं पर भारत की विदेश नीति की कमजोरी प्रदर्शित हो रही है।
इसके अलावा, यह दुनिया के लिए एक संदेश है कि अब, 2024 में, जब भारत के पास इतनी ताकत है उसके बावजूद भी, उसने अमेरिकी "हित की भाषा" को अपना लिया है।
जो स्थायी मित्र या शत्रु होने की भाषा नहीं बल्कि अपने हित को साधने की भाषा है, परिस्थितियों के आधार पर किसी देश का पक्ष लेना न कि विचारधारा के आधार पर।
खैर, भारत ने अब खुद को 1948 में चुनी गई उसकी नेतृत्व की भूमिका से अलग करने का रास्ता चुन लिया है और अब इसकी जगह पर उसने हितों के प्रबंधन की भूमिका में कदम रख लिया है।
इस तरह, भारत जिसने आजादी के बाद से ही, शांतिदूत की सर्वोत्तम भूमिका निभाने के लिए अपना एक मजबूत बायोडाटा बनाया हुआ है, जिसकी गाजा संघर्ष में भी बहुत ज्यादा जरूरत थी।
किंतु अब ये साफ दिख रहा है कि, 2024 में उसने यह भूमिका निभाने का
अपना एक महत्वपूर्ण अवसर खो दिया है।
के बारे में:
ऊर्जा सुरक्षा को किफायती मूल्य पर ऊर्जा स्रोतों की निर्बाध उपलब्धता के रूप में परिभाषित किया गया है।
ऊर्जा सुरक्षा = उपलब्धता + सामर्थ्य + पहुंच
दीर्घकालिक ऊर्जा सुरक्षा आर्थिक विकास और पर्यावरणीय आवश्यकताओं के अनुरूप ऊर्जा की आपूर्ति के लिए समय पर निवेश से संबंधित है।
अल्पकालिक ऊर्जा सुरक्षा आपूर्ति-मांग संतुलन में अचानक बदलावों पर तुरंत प्रतिक्रिया देने की ऊर्जा प्रणाली की क्षमता पर केंद्रित है।
महत्व
भारत का लक्ष्य अग्रणी वैश्विक आर्थिक शक्ति बनना है जो बुनियादी ढांचा उपलब्ध कराने, बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति, मानव कौशल विकसित करने, रोजगार सृजन और विनिर्माण क्षमताओं के लिए ऊर्जा जरूरतों को पूरा करेगा।
भारत की आर्थिक किस्मत तेल की अंतरराष्ट्रीय कीमतों में भारी उतार-चढ़ाव से जुड़ी हुई है।
मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग (एमओयू) दो या दो से अधिक पक्षों के बीच एक कानूनी समझौता है।
आधिकारिक साझेदारी स्थापित करने के लिए कंपनियां और संगठन एम ओ यू का उपयोग कर सकते हैं एम ओ यू कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं हैं लेकिन वे सज्जनों के समझौते से अधिक ईमानदारी और पारस्परिक सम्मान की डिग्री
प्रदान करते हैं आमतौर पर, एमओयू एक कानूनी अनुबंध या एक समझौते की दिशा में प्रारंभिक चरण हैं समझौता ज्ञापन को 'आशय पत्र' के रूप में भी जाना जाता है जो एक गैर-बाध्यकारी लिखित समझौता है जिसका अर्थ है कि एक बाध्यकारी अनुबंध का पालन किया जाना चाहिए।
एक मेमोरेंडम ऑफ़ अंडरस्टैंडिंग जारी रखने या आगे बढ़ने के लिए समझौते की अभिव्यक्ति या वर्णन है। यह प्रतीक है कि पार्टियां एक समझौते पर पहुंच गई हैं और अपने व्यापारिक संबंधों के साथ आगे बढ़ रही हैं
हालांकि यह कानूनी रूप से बाध्यकारी नहीं है यह एक बयान घोषणा है कि एक अनुबंध तात्कालिक या वर्तमान समय मे शीघ्र होने वाला है।
किसी भी व्यापारिक व्यवहार के साथ यह सर्वोपरि है कि दोनों पक्ष एक-दूसरे के लक्ष्यों और उद्देश्यों को समझते हैं।
एक एम ओ यू आपके व्यापारिक संबंधों के लिए एक बड़ी संपत्ति हो सकती है।
यह स्पष्ट शब्दों और प्रभावी संचार और व्यवहार के साथ अत्यधिक फायदेमंद है।
व्यापार वार्ता कई बार कठोर और अनिश्चित हो सकती है वे पार्टियों के बीच संबंधों की शुरुआत में विशेष रूप से धुंधला (कमजोर) हो सकते हैं।
अनुबंध की शर्तों पर व्यापार भागीदार के साथ असहमत होने से खराब कुछ नहीं है।
इसलिए उम्मीदों और उद्देश्यों में अनिश्चितता के जोखिम को कम करने के लिए एमओयू एक महान सुरक्षा प्रदान करता है।
अक्सर बातचीत के दौरान दो या दो से अधिक पार्टियां कुछ शर्तों पर सहमत होती हैं जो तब भविष्य के अनुबंध में दिखाई देती हैं यदि कोई पार्टी इन शर्तों को वापस लेती है या भूल जाती है तो एम ओ यू काम आता है।
हालांकि दस्तावेज़ कानूनी रूप से बाध्यकारी (बलपूर्वक) नहीं है यह उपयोगी है क्योंकि यह रिकॉर्ड करता है कि बातचीत के दौरान क्या सहमति हुई है।
इसलिए यह पार्टियों को उनके सामान्य उद्देश्यों के रूप में एक स्पष्ट समझ प्रदान करता है।
एम ओ यू पार्टियों के बीच सकारात्मक (स्वीकार करने योग्य) संबंधों की सुविधा प्रदान कर सकता है क्योंकि शर्तें स्पष्ट रूप से निर्धारित की गई हैं एक समझौता ज्ञापन एक महान प्रारंभिक बिंदु है जो यह स्थापित करता है कि दोनों पक्ष समझौते से क्या हासिल करना चाहते हैं।
इसलिए यदि आप अनुबंध बनने के बाद समझौते से बाहर निकलना चाहते हैं तो एक औपचारिक समाप्ति प्रक्रिया सुनिश्चित की जानी चाहिए। यह अधिक जटिल, तनावपूर्ण और कभी-कभी महंगा हो सकता है।
एक एमओयू हमारे दिमाग को कम कर सकता है पहले से ही एक पूर्व दस्तावेज़ (कागजात) में निर्धारित प्रस्तावित शर्तें होने से भविष्य में होने वाले कार्यों के लिए एक रूपरेखा उपलब्ध होती है।
एमओयू को पार्टियों के उद्देश्यों और इरादों की याद दिलाने के रूप में भी संदर्भित (उल्लेख) किया जा सकता है यदि कोई भ्रम पैदा होता है।
मास्टर सर्विस एग्रीमेंट व्यवसाय के मालिक और ग्राहक के बीच के सम्पूर्ण संबंधों को अच्छा बनाता है इस समझौते के सभी पहलुओं को कवर करता है जो उभरने की संभावना है इस तरह के एक अनुबंध एक डीलर या एक ग्राहक के साथ लंबे समय से सहयोग शुरू करने वाले किसी के लिए एक फायदा है।
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