रक्षा, कूटनीति, दुविधाएँ: इजराइल की तरफ
भारत का रणनीतिक बदलाव
रक्षा, कूटनीति, दुविधाएँ: इजराइल की तरफ
भारत का रणनीतिक बदलाव
Defence, Diplomacy, and Dilemmas: India's Strategic Shift towards Israel का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
यह एक और संवेदनशील और विवादास्पद विषय है, लेकिन तब हम मुद्दों को लेकर निष्पक्ष दृष्टिकोण बनाए रखना पसंद करते हैं और पत्रकारिता के दृष्टिकोण से जितना संभव हो, लेख में उतना ब्यौरा और विश्लेषण लाने का प्रयास करते हैं।
गाजा, फिलीस्तीन और इजराइल इन दिनों समाचार की सुर्खियों में सबसे ऊपर हैं और इसी तरह है मौजूदा चल रहे गाजा संकट में भारत की भूमिका भी।
यह विषय आज इसलिए इतना महत्वपूर्ण हो गया है क्योंकि, इजराइल के लिए, भारत इजराइली रक्षा उत्पादों का सबसे बड़ा आयातक है और भारत के लिए इजराइल, रूस के बाद, रक्षा सामग्री का दूसरा सबसे बड़ा निर्यातक है।
1948 जब इजराइल बना था उस समय अवधि से लेकर अब तक जब यह गाजा संकट चल रहा है यानी कि 2024 , भारत की स्थिति इजराइल के संबंध में मौलिक रूप से बदल गई है।
ऐसे कई सारे तत्व हैं जिन्होंने भारत के साथ इजराइल के संबंधों में योगदान दिया।
इसलिए, इस दो-भाग की श्रृंखला में, हम भारत और इजराइल के बीच इन संबंधों के इतिहास के बारे में जानेंगे।
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60, 70 और 80 के दशक में, भारत और इजराइल के बीच संबंध अनौपचारिक ही बने रहे
इसके अलावा, यह भी जानेंगे कि, वे कौन सी वैश्विक घटनाएँ, घरेलू घटनाएँ और स्थितियाँ थीं जिनके कारण भारत-इजराइल में आपस में संबंध बने? 2024 में और आगे चलकर, भारत को किन परिणामों और जोखिमों का सामना करना पड़ेगा? विदेश नीति तब उस स्थिति को कैसे संतुलित करेगी?
इजराइल राज्य के साथ भारत का संबंध बहुत पुराना है यानी 1948 से, जब संयुक्त राष्ट्र (UN), फिलिस्तीन से अलग इज़राइल राज्य की स्थापना पर चर्चा कर रहा था। उसी समय, भारत खुद भी 1947 के दुखद और खूनी विभाजन के दर्द और चोटों से गुजर रहा था, जो धार्मिक आधार पर हुआ था।
यद्यपि महात्मा गांधी और जवाहरलाल नेहरू जैसे भारतीय स्वतंत्रता सेनानियों का मानना था कि यहूदियों के पास इज़राइल राज्य के लिए एक अच्छा मामला और एक पूर्व दावा था, लेकिन उन्होंने धार्मिक आधार पर इजराइल के निर्माण का विरोध किया।
यह एक वैचारिक रुख अधिक था जिसे भारत ने विश्व मंच पर भी अपनाया और 1949 में संयुक्त राष्ट्र में भारत ने, फिलिस्तीन के विभाजन के खिलाफ मतदान किया।
हिंदू महासभा और आरएसएस (RSS) जैसे हिंदू राष्ट्रवादी समर्थकों और उनसे सहानुभूति रखने वालों ने नैतिक और राजनीतिक आधार पर इजराइल के निर्माण का समर्थन किया, और उन्होंने संयुक्त राष्ट्र में इजराइल के खिलाफ भारत के वोट की भी निंदा भी की।
इसलिए, उनके अनुसार, यहूदी राष्ट्रवाद उचित था, और फिलिस्तीन यहूदी लोगों का प्राकृतिक क्षेत्र था, खासकर यहूदियों के लिए राष्ट्रीयता की आकांक्षा के लिए।
हालाँकि, फिर, एक अंतरराष्ट्रीय कानून का पालन करने वाले राष्ट्र के रूप में, भारत ने 1958 में इजराइल राज्य को मान्यता दी और बाद में बॉम्बे (वर्तमान मुंबई) में इजराइली वाणिज्य दूतावास खोलने को मंजूरी दे दी।
दुनिया के सभी देश इजराइल को मान्यता नहीं देते हैं। जैसे कि, संयुक्त राष्ट्र के 193 सदस्य देशों में से 28 सदस्य देश इजराइल को मान्यता नहीं देते, जिनमें से 15 अरब लीग से हैं, दस गैर-अरबी देशों से हैं और तीन अन्य जैसे क्यूबा, उत्तर कोरिया और वेनेजुएला हैं।
विदेश नीति विशेषज्ञों के अनुसार, भारत ने इजरायल-भारत संबंध पर काफी कम काम किया, ऐसा इसलिए क्योंकि भारत अरब देशों के साथ अपने संबंध खराब नहीं करना चाहता था।
उस वक़्त, अरब दुनिया के खिलाफ जाने का मतलब भारत में विभाजनकारी राजनीति का होना होता। उस वक़्त दोबारा से, भारत धार्मिक आधार पर एक और विभाजन के कगार पर बैठा था। इसलिए, भारत की रक्षा करना उस वक़्त बहुत आवश्यक था।
60, 70 और 80 के दशक में, भारत और इजराइल के बीच संबंध अनौपचारिक ही बने रहे।
भारत अरब देशों के साथ अपने संबंधों को ख़राब नहीं करना चाहता था क्योंकि, वे भारत के लिए सबसे महत्वपूर्ण तेल आपूर्तिकर्ता थे। सिवाय इसके, वह भारत की अर्थव्यवस्था को सही तरीके से चलाने के लिए एक आवश्यक संसाधन था।
इसके अलावा, जैसे-जैसे अर्थव्यवस्था विकसित हुई और उत्प्रवास (Emigration) बढ़ा, मध्य पूर्व और खाड़ी देशों से प्रवासियों द्वारा भेजी जाने वाली * हार्ड करेंसी (कठिन मुद्रा) भारत की अर्थव्यवस्था के लिए महत्वपूर्ण थी।
उस दौरान भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस (Indian National Congress) सरकार में थी और उनका वोट बैंक मुस्लिम आबादी पर निर्भर था।
इस वजह से, वे नही चाहते थे कि वह मुस्लिम आबादी, विशेषकर उन लोगों की भावनाओं की अनदेखी करके जो कि फ़िलिस्तीन के प्रति सहानुभूति रखते थे, चुनावी संभावना पर, इसका विपरीत प्रभाव पड़ने दे।
यह वैचारिक रुख, अर्थशास्त्र और घरेलू राजनीति की आवश्यकता का मिश्रण था।
हालाँकि, फिर आया 80 और 90 का दशक जिसके बाद से, भू-राजनीतिक विकास परिणामी तौर पर जल्दी और तेजी से हुए जिससे जबर्दस्त तरीके से भारत और इजराइल के बीच संबंधों में भारी बदलाव हुए।
पहली भूराजनीतिक घटना सोवियत संघ के विघटन के साथ आई।
यूएसएसआर (USSR) अब अस्तित्व में नहीं था, लेकिन भारत अभी भी अपनी सैन्य हार्डवेयर सप्लाई के लिए यूएसएसआर और रूस पर बहुत अधिक निर्भर था।
इसके अलावा, अंतर्राष्ट्रीय राजनीति, एकध्रुवीय दुनिया में खेली गई, जिसमें अमेरिका शामिल था और सबसे ऊपर भी था। इसलिए, भारत के हितों को अमेरिका और उसके सहयोगियों के साथ जोड़ना आवश्यक था।
तो, एक तरह से, भारत रूस से समर्थन के नुकसान की भरपाई करने की कोशिश कर रहा था; इसलिए, भारत ने तुरंत इजराइल के साथ औपचारिक राजनयिक संबंध स्थापित किए।
भारत ने जनवरी 1992 में तेल अवीव में एक दूतावास खोला। फिर, कुछ साल बाद, 1998 में, इजराइल के साथ भारत की परमाणु एजेंडे की तलाश शुरू हुई और हम देखते हैं कि भारत को अमेरिका और उसके सहयोगियों द्वारा प्रतिबंधों के अधीन करने की कोशिश की गई थी।
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1949 में संयुक्त राष्ट्र में भारत ने, फिलिस्तीन के विभाजन के खिलाफ मतदान किया
ऐसे समय में, अमेरिका द्वारा थोपे गए प्रतिबंधों को नजरअंदाज करते हुए इजराइल, भारत के समर्थन में आया था। अब तक, हम देख सकते हैं कि इजराइल के साथ भारत के रिश्ते ऊपर उठ रहे थे और अभी भी सिद्धांतों, मुद्दे-आधारित और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार पर आधारित थे।
फिर आया 1999 का कारगिल युद्ध , यही वह समय था जब भारत को एहसास हुआ कि उसे पाकिस्तान के साथ अपनी अत्यधिक ऊंचाई वाली सीमा के लिए एक मजबूत ‘सीमा निगरानी प्रणाली’ (Border surveillance system) की आवश्यकता है।
कारगिल क्षेत्र सहित वे सीमाएँ लगभग 140 किलोमीटर लंबी हैं और पाकिस्तान जैसे एक आक्रामक पड़ोस के सामने हैं।
उस वक़्त तक, इजराइल पहले से ही उन्नत सीमा निगरानी विकसित कर चुका था, जो भारत के लिए उपयोगी हो सकता था।
भारतीय और इजरायली नेतृत्व को यह भी एहसास हुआ कि दोनों देशों के पड़ोस आक्रामक हैं और वे शक्तिशाली भी हैं ; इसलिए, दोनों देशों को जिन रक्षा प्रौद्योगिकियों की जरूरत है, वे प्रकृति में समान हैं।
साथ ही, दोनों देशों को अपने लोकतंत्र को जीवित रखने के लिए, एक मजबूत सुरक्षा तंत्र की आवश्यकता थी।
रूसी रक्षा सामग्री सप्लाई की क्षमताओं को खोने के बाद, भारतीय नेतृत्व ने यह समझ लिया कि, उन्हें अमेरिकी राजनीतिक और रक्षा मंत्रालय लॉबी को चतुराई से संचालित करना होगा, जिसे यहूदी अमेरिकियों ने नियंत्रित किया हुआ था।
9/11 के हमले हुए, और अमेरिका अफगानिस्तान में आतंक के विरुद्ध युद्ध में शामिल हो गया। दिलचस्प बात यह है कि अमेरिका ने अफगानिस्तान युद्ध में, भारत या इजराइल को शामिल नहीं किया, भले ही भारत एक क्षेत्रीय शक्ति है।
भारत का अफगानिस्तान के साथ एक मजबूत प्राचीन संबंध है लेकिन यह, अफगानिस्तान मुद्दे को हल करने के लिए कोई रास्ता निकालने में असफल रहा।
इसके बजाय, अमेरिका को पाकिस्तान में एक भागीदार मिला, जहां क्षेत्र में अमेरिका और भारत के बीच संबंधों का संतुलन बदल गया।
इसके बाद भारत इजराइल के करीब आ गया, क्योंकि अमेरिका द्वारा बाहर किए जाने के बाद दोनों एक दूसरे को सांत्वना देने वाले साथी बन चुके थे।
फिर भी, भारत खुले तौर पर और निडरता से इजरायली रिश्ते के पक्ष में नहीं था, लेकिन तब, भारत को ‘इस्लामिक सहयोग संगठन’ (ओआईसी) (Organization of Islamic Cooperation) से ज्यादा समर्थन नहीं मिला।
क्योंकि, भारत विरोधी भावना (Anti-India sentiment) पैदा करने में पाकिस्तान अहम भूमिका निभा रहा था ।
पिछले 75 वर्षों में इन सभी घटनाओं के कारण भारत के रुख में बदलाव आया है।
फ़िलिस्तीन मुद्दे के लिए वैचारिक समर्थन से लेकर रक्षा, कृषि, ख़ुफ़िया जानकारी साझा करने और अन्य भू-राजनीतिक मुद्दों में इजराइल को एक ईमानदार भागीदार बनाने के ख़िलाफ़ मतदान करने तक, भारत की स्थिति ने 75 वर्षों में यू-टर्न ले लिया है।
जहां एक ओर भारत, इसराइल और अमेरिका के साथ अपने संबंधों और अन्य अरब देशों के साथ फिलिस्तीनी मुद्दे के बीच एक नाजुक परिस्थिति से गुज़र रहा है, वहीं पर हमें भविष्य में गंभीर जोखिमों की भी आशंका है।
भारत फ़िलिस्तीनी मुद्दे के प्रति सहानुभूति रखने वाले लगभग 30 करोड़ मुस्लिमों का घर है।
भारत सरकार का कोई भी कदम जो फिलिस्तीनियों के खिलाफ जाता है, देश मे अशांति पैदा करने की क्षमता रखता है।
इजराइल और चीन के रक्षा सौदों के साथ भारत की चुनौतियां बढ़ रही हैं, क्योंकि मुमकिन है कि इनका इस्तेमाल भारत के खिलाफ किया जाएगा।
भारत की ईरान से नजदीकी, भारत और इजरायल के रिश्ते के खिलाफ जा रही है। ईरान, इजरायल के अस्तित्व के लिए सबसे बड़ा खतरा है, और ईरान की किसी भी प्रकार की उन्नति को इजरायल द्वारा संदेह की दृष्टि से देखा जाएगा।
भारत का परमाणु ऊर्जा में विकास, क्षेत्र में परमाणु हथियारों की होड़ लाता है। पाकिस्तान, परमाणु रक्षा प्रणाली विकसित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है, जो "इस्लामिक आतंकवाद" को प्रोत्साहित करता है, जैसा कि कुछ देशों द्वारा दावा किया गया है।
भारत और इज़राइल के संबंधों ने क्षेत्र की भू-राजनीति को बदल दिया है और इसमें भारतीय घरेलू राजनीति को बदलने की क्षमता भी है।
*हार्ड करेंसी देशों द्वारा जारी की जाने वाली एक प्रकार की मुद्रा है जिस पर सभी निवेशक और देश भरोसा कर सकते हैं।
विकसित देश और दुनिया की प्रमुख वैश्विक शक्तियां इसे अधिकतर जारी करती हैं क्योंकि वे अपनी राजनीतिक और आर्थिक गतिविधियों में अधिक स्थिर, मजबूत और विश्वसनीय हैं।
उदाहरण के लिए- अमेरिकी डॉलर सबसे प्रमुख हार्ड करेंसी है, जिसे सामान्यतः दुनिया की प्राथमिक आरक्षित मुद्रा माना जाता है।
इसका उपयोग अधिकांश अंतरराष्ट्रीय लेनदेन में और अधिकांश वस्तुओं के लिए बेंचमार्क मुद्रा के रूप में किया जाता है।
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