भारत को अफ़ग़ानिस्तान से आखिर कितनी दूरी रखनी चाहिए ?
भारत को अफ़ग़ानिस्तान से आखिर कितनी दूरी रखनी चाहिए ?
Should INDIA Keep Out of Afghanistan? का हिन्दी रूपांतर
~ सोनू बिष्ट
हम सभी इस बात से अवगत है, की देर सबेर, काबुल तालिबानी हाथों में आ जायेगा। स्थिति बहुत विकट है, और इस तबाही को रोकने के लिए, कोई ठोस प्रयास नही किये जा रहे।
तालिबान क्रूर बल के साथ, अग्रवर्ती ढंग से, तेजी से आगे बढ़ा है। बाईडन (Biden) के आकड़ों से बनी युद्ध रणनीति, विफल हो रही है। नाटो (NATO) प्रशिक्षित तीन लाख (3,00,000) सुसज्जित अफ़ग़ान सेना, सिर्फ 75,000 तालिबान से पिछड़ती नजर आ रही है।
अगस्त के पहले सप्ताह तक, अफ़ग़ानिस्तान के 421 में से, आधे जिलों पर तालिबान सेना का कब्ज़ा हो चूका है। बहुत से देश अफ़ग़ान की परिस्थितियों को ठीक करना और इस हिंसा को कम करना चाहते है।
बड़े देशों से शुरु वात करें तो भारत, पाकिस्तान, ईरान, रूस और चीन से लेकर, महत्वपूर्ण पड़ोसी देश तुर्कमेनिस्तान, उज्बेकिस्तान, ताजकिस्तान सभी अफ़ग़ानी कुप्रबंधन में फस गये है। यह सभी सशक्त शरणार्थी केंद्र होने वाले है।
अभी के लिए, अमेरिका और नाटो सहयोगी अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने के लिए उत्सुक हैं। भले ही उनका उद्देश्य बीस साल पहले की तुलना में खराब है, फिर भी अफ़ग़ानिस्तान छोड़ने से पहले स्थिति स्थिर करने का कोई प्रयास नहीं है।
क़तर में तालिबान के साथ, वह कोई शांति समझौता नहीं कर सकते, क्योंकि अमेरिका और नाटो (NATO) सहयोगियों के पास देने को कुछ नहीं है। उनका 20 साल पहले अफ़ग़ान आने का उद्देश्य भी अब अप्रिय सा लग रहा है। अफ़ग़ान स्थिति को स्थिर करने के भी कोई प्रयास नहीं किए गए ।
अफ़ग़ानिस्तान आना सिर्फ अमेरिका का 'बदला' था। नाटो (NATO) सहयोगी, तो कानूनी तौर पर बाध्य है, इसलिए अफ़ग़ानिस्तान में असहाय होकर लड़ते रहे।
यह उनकी एक असंपूर्ण लड़ाई है, अपने दुश्मन के साथ, जो बहुत ज्यादा हौसले से भरे हुए है। अगर उनकी यही धारणा रही की अफ़ग़ानिस्तान एक स्थानीय समस्या है, तो उनकी यह सोच निरर्थक है।
तथ्य यह है की, अगर वह इस भूभाग में है, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान एक वैश्विक समस्या है।
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तथ्य यह है की, वह इस भूभाग में है, क्योंकि अफ़ग़ानिस्तान एक वैश्विक समस्या है
इस तरह से समस्या का समाधान किए बिना, अफ़ग़ान छोड़ना एक गंभीर गलती होगी, भविष्य के लिए । यदि तालिबान अपनी इसी इस्लामिक विचारधारा के साथ युद्ध जारी रखता है, तो पश्चिम के पास कोई रास्ता नहीं बचेगा दोबारा हस्तक्षेप करने को। यह उनकी ही फैलाई अव्यवस्था है, जिसको उन्हें ही ठीक करना होगा।
दुनिया को अब तक यह समझ जाना चाहिए था, की तालिबान एक कठोर और मजबूत समूह है, जो अमेरिका युद्ध के दौरान 20 वर्षो तक जीवित बचा रहा और अब दोबारा संपन्न हो रहा है।
यह तालिबान की रणनीति और ताकत ही है, जिसने सफलतापूर्वक अपने विरोधियों को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया है । हालांकि उन्हें " निर्दयी समूह " का नाम दिया गया है।
ज्यों-ज्यों उन्नत तालिबान 'काबुल' की तरफ बढ़ रहा है, प्रांतीय राजधानियाँ रेत की दीवार की तरह ढह रही है। शरणार्थी संकट पहले से ही मंडरा रहा है, जिसकी वजह से मानव तस्कर सोशल मीडिया (Social Media) के जरिये तस्करी कर रहे है।
काबुल पासपोर्ट ऑफिस पर अंधाधुंध भीड़, एक ज्वलंत सन्देश है, की जल्द एक आतंक पलायन वहाँ इंतजार कर रहा है।
यहां एक महत्वपूर्ण बिंदु यह है, की आखिर अफ़ग़ान किस दिशा में भाग रहे है । वे तुर्की के जरिये पश्चिम में यूरोप की तरफ बढ़ रहे है, तो इस वजह से पश्चिम पहले से ही दुष्प्रभाव की कतार में है।
चलिए, अब हर एक महत्वपूर्ण पड़ोसी देशों की भूमिका की समीक्षा करें।
पाकिस्तान की भूमिका पहले से ही छानबीन के दायरे में है, क्योंकि वह शुरू से तालिबानी सरकार के समर्थन में रहा है।
ऑस्ट्रिया ने भी पाकिस्तान को अफ़ग़ानिस्तान में हुए छद्म युद्ध (proxy war) के लिए जिम्मेदार बताया है।
तालिबान को पाकिस्तान का यह प्रत्यक्ष सहयोग, उनके लिए अच्छी खबर है, किन्तु पाकिस्तान के लिए यह बुरा होने वाला है क्योंकि अगर कुछ महीनों बाद मौजूदा काबुल सरकार तालिबान के हाथों आती है, तो वह पाकिस्तान में भी समान वैचारिक समूह को उत्साहित करेगा।
इसके अलावा , काबुल का अधिग्रहण एक वैचारिक जीत का संकेत दे रहा है, जिसका प्रभाव इस्लामाबाद भी महसूस करेगा।
इन दो दुष्प्रभावों के चलते, अब पाकिस्तान मुश्किल में पड़ गया है। ना वह तालिबान से समर्थन वापिस ले सकता है और ना ही सहयोग जारी रख सकता है
कभी अमेरिका का मित्र रहा, पाकिस्तान अब उसके विपरीत दिशा में खड़ा है । पाकिस्तान की आबादी में से काफी संख्या में एकीकृत विपक्ष नाटो (NATO) के अफ़ग़ानिस्तान पर हस्तक्षेप के विरोध में है।
कोई भी पाकिस्तानी सरकार इस विचार को बदलने की कोशिश नहीं करेगी, क्योंकि इससे उन्हें चुनावी हार का खतरा है।
चीन दो महत्वपूर्ण कारणों से पाकिस्तान का समर्थन करना चाहता है, जिससे वह खुद पर मंडराने वाले खतरे को भी कम कर सके।
पहला कारण है - उनका पाकिस्तान में निवेश, जिसमें रणनीति व्यापार मार्ग शामिल है। चीन, पाकिस्तान आर्थिक गलियारा (CPEC) सड़क परियोजना, जो दक्षिण में चीन से कराची बंदरगाह तक जाती है, उससे चीन को मध्य पूर्व और यूरोप के लिए एक निकट तम मार्ग मिल जाता है।
इसके अतिरिक्त ऊर्जा अवसरंचना (Infrastructure), मेगा सोलर फार्म (Mega Solar Farm) और गैस पाइप लाइनो (Gas Pipe Line) में निवेश भी है।
दूसरा कारण है – तालिबान को और उइगर मुसलमानों पर उनके प्रभाव को नियंत्रित रखना।
ईरान, अफ़ग़ानिस्तान का पड़ोसी देश है, जो पहले से ही अमेरिकी नेतृत्व द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों से व्याकुल है। तो वह ऐसा कुछ नहीं करना चाहेगा जिससे अमेरिका को मदद मिले।
वही एक 'शान्त' किन्तु ताकतवर देश भी है, इन सब घटनाओं के दलदल के बीच। रूस का क़तर शांति वार्ता में भूमिका को स्वीकार किया जाना चाहिए था, हालाँकि उसे कथित तौर से तालिबान का छुपा हुआ समर्थक कहा जाता है, लेकिन उनकी सहभागिता से मदद मिलती।
चीन और भारत की भांति, रूस भी वर्तमान स्थिति से डरता है। अफ़ग़ानिस्तान के विशाल अनियंत्रित जिलों से निर्यात होने वाला 'सीमा पार आतंकवाद' पूर्व सोवियत संघ के सहयोगियों के लिए बिल्कुल अनुकूल नहीं होगा, वह आसानी से चेचन्या (Chechnya) और रूस के अन्य क्षेत्रों में भी फैल सकता है ।
अब जबकि अमेरिका, हारकर, थककर और परेशान होकर वापिस जा रहा है, तो अफ़ग़ानिस्तान में रूस को पैर जमाने से कोई नहीं रोकेगा ।
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यह सारी परिस्थितियाँ भारत को कहाँ लाकर छोड़ती है ?
भारत ने, अफ़ग़ानिस्तान में कई महत्वपूर्ण विकास परियोजनाओं में निवेश किया हुआ है, जिनको अब तालिबान शासन की वजह से खतरा पैदा हो सकता है। इस तरह परियोजनाओं से हाथ वापिस लेना, अफ़ग़ान जनता के साथ विश्वासघात होगा।
साथ ही, यदि खतरनाक तरीके से काबुल सरकार गिरती है तो पूरा अफ़ग़ान क्षेत्र, कश्मीर में आतंकी हमलों के लिए एक प्रशिक्षण स्थल बन जायेगा। अफ़ग़ानिस्तान के साथ भारत की एक 'पेचीदा' सीमा रेखा है और वक्त पड़ने पर, वहां के आतंकी शिविरों पर बालाकोट शैली की सर्जिकल स्ट्राइक (Surgical Strike) करना जटिल होगा ।
अफ़ग़ानिस्तान में, सैनिकों की तैनाती करना वही गलती दोहराना होगा जो अमेरिका, नाटो (NATO) और सोवियत संघ ने की थी। वहां के बेजान पहाड़ी, भूमि बद्ध: रेगीस्तानी इलाकों और अनेक गुटों के जटिल समीकरण से पहले ही यह सबक मिल चूका है।
हालाँकि इस बार, संयुक्त राष्ट्र शांति स्थापना मिशन के तत्वाधान के अंतर्गत रहकर, भारत, रूस, चीन, और पाकिस्तान जैसे देश एक सकारात्मक भूमिका निभा सकते है।
संयुक्त राष्ट्र का, अफ़ग़ानिस्तान में विकास के लिए, पहले से एक मिशन है, जिसे शांति स्थापना के लिए पुनः उद्देशित करने की आवश्यकता है। किन्तु यदि यह देश एकता के साथ कार्य करने में विफल रहे, तो इन सभी पर मुसीबत आना तय है।
आइए, अफ़ग़ानिस्तान के संदर्भ में, चीन और पाकिस्तान का भारत के साथ समीकरण का विश्लेषण करें।
चीन भारत के साथ अपने संबंधों को बिगाड़ने से बचेगा, क्योंकि अब वह सबसे बड़े व्यापारिक भागीदार के रूप में उभर चूका है। पिछले साल गलवान घाटी में हुई विनाश पूर्ण भिड़ंत के बावजूद, उसने यह मुकाम हासिल किया है।
चीन और भारत दोनों सीमा विवाद पर वार्ताओं में लगे हुए है, ताकि किसी भी आमने - सामने आने वाली स्थिति को छिन्न -भिन्न किया जा सके, फिलहाल दोनों देशों के बीच सब ठीक चल रहा है।
चीन को तालिबान का नेतृत्व करने देने से भी पाकिस्तान की मंशा संतुलन में आ जाएगी। चीन यह बिलकुल नहीं चाहेगा की भारत और पाकिस्तान के बीच, कोई विवाद हो, जिससे उसकी CPEC (चीन -पाकिस्तान इकोनॉमिक कॉरिडोर ) परियोजना इसकी चपेट में आ जाये।
पाकिस्तान, भारत के साथ तब तक उलझा रहेगा जब तक कश्मीर पर बयान बाजी जिंदा रहेगी । यह मुद्दा अभी भी वहाँ वोट हासिल करने के लिए महत्वपूर्ण है। सरकार किसी भी राजनीतिक सोच की हो, उनकी परवाह किए बिना, वहाँ की सेना कश्मीर मुद्दे की आग को कभी शांत नहीं होने देंगे ।
क्योंकि उनकी पूरी वित्त पोषण (funding) इसी पर निर्भर है । साथ ही उसकी अर्थव्यवस्था गंभीर स्थिति में है, तो फिलहाल भारत को यथास्थिति बनाये रखनी चाहिए, पाकिस्तान के खतरे से खुद की रक्षा करना जारी रखना चाहिए, जैसा वह करता आ रहा है ।
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चीन और पाकिस्तान को यहां पर स्थिति सँभालने देना, समझदारी होगी
इस स्वयं निर्मित समस्या, तालिबान को अपने पड़ोस में रहने देने के अलावा, पाकिस्तान के पास कोई अन्य विकल्प नहीं होगा।
देर - सबेर तालिबान का "कोप" ही काफी होगा पाकिस्तान का ध्यान भारत से हटाने के लिए । वह असहाय होगा क्योंकि तालिबान का जाल उसकी सीमा के अंदर तक पहुँचता है । इसलिए भारत को अपनी सीमाओं को मजबूत करना होगा और आंतरिक सुरक्षा, का कड़ाई से प्रबंध करना होगा।
बहुत अधिक संभावना है की रोहिंग्यों की तरह एक 'शरणार्थी संकट' भारत में धकेला जा सकता है।
भारत को यहां पर दो अहम बिन्दुओं को समझना होगा। पहला की अमेरिका ने अपनी कूटनीतिक तरीके से तालिबान समस्या को रूस, चीन और पाकिस्तान पर 'विस्थापित' कर दिया है ।
और दूसरा, इनमें से दो, चीन और पाकिस्तान, भू - राजनीतिक, ऐतिहासिक कारणों से प्राकृतिक रूप से सहभागी है, और भारत के प्रतिद्वंद्वी भी है ।
आकलन करें, तो अफ़ग़ानिस्तान में, भारत से अधिक हित, चीन,पाकिस्तान और रूस के है ।
इन सभी 'गतिकी' पर विचार करते हुए भारत को इस झंझट से दूर रहना चाहिए। हालाँकि, मानवीय संकट को दूर से देखना, यह बहुत कठिन प्रस्ताव है।
इस वक़्त, भारत को राजनीतिक चुप्पी का अनुकरण करते हुए केवल " मानवीय हस्तक्षेप " पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
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