क्या नया भारत औपनिवेशिक गुलामी की ओर वापिस लौट रहा है?
क्या नया भारत औपनिवेशिक गुलामी की ओर वापिस लौट रहा है?
Is New India Heading Back to Colonial Subjugation? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
जिस समय में भारतीय अपने कठिन संघर्ष से प्राप्त स्वतंत्रता की 78वीं वर्षगांठ मना रहे हैं, उसी समय मे इसके नागरिकों को इतिहास से मिले सबकों पर भी चिंतन करना चाहिए।
क्योंकि, लगभग 250 वर्ष पहले भारतीयों द्वारा की गई रणनीतिक गलतियों के कारण उनकी स्वतंत्रता और संप्रभुता उनसे छिन गई थी, और इसीलिए उन्हें अब यह सुनिश्चित करना होगा कि, वैश्वीकरण और आर्थिक उदारीकरण के इस युग में वे इन गलतियों को दोबारा न दोहराएं।
एक्सपर्टएक्स इस बात का विस्तारपूर्ण विश्लेषण करेगा और यह जानने का प्रयास करेगा कि आखिर भारत ही क्यों, सबसे पहले, ब्रिटेन, डच, फ्रांसीसी और पुर्तगालियों का उपनिवेश बना,
तथा इस औपनिवेशिक प्रभुत्व को आसान बनाने वाली आर्थिक अनिवार्यताओं और व्यापार गतिशीलता पर ध्यान केंद्रित करेगा।
भारतीयों को अपने भविष्य की सुरक्षा के लिए अपने अतीत को समझना होगा, तथा औपनिवेशिक शासन का मार्ग आसान करने वाली व्यापारिक नीतियों और आज की कुछ
आर्थिक रणनीतियों में निहित जोखिमों के बीच समानताएं रेखांकित करनी होंगी, विशेष रूप से वे जो लंबे समय के आर्थिक लचीलेपन की तुलना में थोड़े अरसे के पूंजी प्रवाह को प्राथमिकता देते हैं।
अब, आइए हम 1600 के दशक के भारत की ओर रुख करें।
ईस्ट इंडिया कंपनी की आर्थिक आधिपत्य की यात्रा को मोटे तौर पर तीन चरणों में विभाजित किया जा सकता है।
प्रथम चरण, 1600 के दशक के शुरुवात से लेकर 1757 तक, जिसे प्लासी के युद्ध के रूप में चिह्नित किया गया, में कंपनी ने धीरे-धीरे आर्थिक शक्ति हासिल की, तथा व्यापार पर अपने एकाधिकार नियंत्रण का लाभ उठाते हुए एक मजबूत सैन्य-औद्योगिक परिसर का निर्माण किया।
दूसरा चरण भारत के आर्थिक संसाधनों के शोषण से चिह्नित है, जहां ईस्ट इंडिया कंपनी ने व्यवस्थित रूप से स्वदेशी उद्योगों को नष्ट कर दिया और स्थानीय कारीगरों को गरीब बना दिया, जिससे गहरा औद्योगिकीकरण हुआ।
तीसरा चरण 1857 के विद्रोह के बाद शुरू हुआ, जिसके परिणामस्वरूप ब्रिटिश राज स्थापित हुआ, जहां भारतीय स्वतंत्रता की बढ़ती आवाज के बावजूद आर्थिक शोषण तेज हो गया, क्योंकि औपनिवेशिक प्रशासन ने शोषणकारी संस्थाएं लागू कीं, जिनसे भारत की संपत्ति को लूटा गया।
यह लेख 1600 से 1757 तक की अवधि पर ध्यान केंद्रित करेगा, विशेष रूप से उन आर्थिक नीतियों और व्यापार प्रथाओं पर, जिन्होंने ईस्ट इंडिया कंपनी को एकाधिकार प्रतिस्पर्धा और बलपूर्वक व्यापार समझौतों के माध्यम से अपना प्रभुत्व स्थापित करने में सक्षम बनाया।
इन नीतियों के पीछे छिपा हुआ आर्थिक दर्शन क्या था?
उस समय की एक महत्वपूर्ण गलती मुगल सम्राट जहांगीर द्वारा ईस्ट इंडिया कंपनी (East India Company )को व्यापारिक विशेषाधिकार प्रदान करना था।
टैरिफ और शुल्कों से छूट सहित इन विशेषाधिकारों ने कंपनी को अपार धन और संसाधन जमा करने में सक्षम बनाया, जिसका उपयोग उसने बाद में राजनीतिक और सैन्य अधिकार का प्रयोग करने के लिए किया, जिससे वह भारत के भीतर एक प्रोटो-संप्रभु इकाई बन गई।
समय के साथ, कई शासक आर्थिक रूप से यूरोपीय व्यापारिक वस्तुओं और सैन्य आपूर्ति पर निर्भर हो गए, जिससे ऋण जाल निर्मित हो गया, जिससे वे ब्रिटिश दबाव के प्रति संवेदनशील हो गए, जो कि आधुनिक समय के ऋण कूटनीति के मुद्दों के समान है।
अपने अस्तित्व से ही यूरोप अपनी असुरक्षा की भावना और व्यापारिक प्रतिस्पर्धा के कारण युद्धों में उलझा रहा है, जिसके कारण हथियारों, सैन्य रणनीतियों और सामानों में निरंतर नवाचार हुआ है।
जब ये सैन्य आपूर्ति भारत में आई, तो हमारे शासक और राजा उनके नवाचार, गुणवत्ता और दक्षता से मोहित हो गए, अक्सर इसके साथ आने वाली रणनीतिक निर्भरता को नजरअंदाज कर दिया।
ईस्ट इंडिया कंपनी ने इस निर्भरता का कुशलतापूर्वक दोहन किया, तथा निरंतर आर्थिक लाभ के बदले में भूमि रियायतें और राजनीतिक अधिकार की मांग करके आर्थिक लाभ को क्षेत्रीय नियंत्रण में परिवर्तित किया, जो आर्थिक साम्राज्यवाद की अवधारणा का अग्रदूत था।
आज की बात करें तो नया भारत विदेशी व्यापार और निवेश के प्रति अपने दृष्टिकोण में समानताएं देखता है, खासकर वैश्वीकरण और व्यापार उदारीकरण के संदर्भ में।
भारत ने विभिन्न देशों के साथ WTO ( विश्व व्यापार संगठन ), TRIPS और *सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र ( Most Favoured Nation ) संधियों जैसे समझौतों के माध्यम से विदेशी पूंजी के लिए अपने दरवाजे खोले हैं।
हालांकि ये समझौते प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) और प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के माध्यम से शुरू में सकारात्मक आर्थिक दृष्टिकोण बनाते हैं, लेकिन वे अक्सर स्वदेशी प्रतिभा, शिल्प कौशल और नवाचार को नष्ट कर देते हैं।
जिस तरह भारत ने एक बार अपने उद्योगों को विदेशी प्रभुत्व के लिए खो दिया था, आज, पारंपरिक कृषि पद्धतियाँ, विशेष धातु कार्य, मिश्र धातु और वस्त्र अत्यधिक प्रतिस्पर्धी वैश्विक बाजारों के युग में, विदेशी वस्तुओं और प्रौद्योगिकियों द्वारा ग्रहण किए जाने का खतरा है।
रेशम और कपास, जो कभी भारत के व्यापार की आधारशिला थे, अब वैश्विक बाजार में प्रतिस्पर्धा करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं, तथा व्यापार की मात्रा के मामले में विलुप्त होने के कगार पर हैं।
2024 के बजट के बाद स्वीकृत की जाने वाली आनुवंशिक रूप से संशोधित जीएम (GM Crops) फसलों के मामले पर विचार करें।
जलवायु लचीलेपन की आड़ में पेश किए गए ये तथाकथित नवाचार पारंपरिक फसलों को विस्थापित करने की धमकी देते हैं, जिससे जैव विविधता और कृषि संप्रभुता के क्षरण पर चिंताएं बढ़ जाती हैं।
यह उल्लेखनीय है कि यूरोप में जीएम फसलों पर प्रतिबंध लगा हुआ है, जिससे यह सवाल उठता है कि भारत में उन्हें अनुमति क्यों दी गई है - जो नियामक मध्यस्थता के जोखिम को उजागर करता है।
अतः, समकालीन भारत के लिए ये नीतियां ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा किए गए ऐतिहासिक विस्थापनों की प्रतिध्वनि हैं, जो हमारी आर्थिक संप्रभुता के लिए समान जोखिम पैदा करती हैं।
पेटेंट बीजों को लेकर पेप्सिको के खिलाफ गुजरात के आलू किसानों की कानूनी लड़ाई इस बात की स्पष्ट याद दिलाती है कि किस प्रकार बहुराष्ट्रीय निगम अपनी शर्तों और नीतियों को लागू
करने के लिए बौद्धिक संपदा अधिकारों (IPR) और बौद्धिक संपदा अधिकारों के व्यापार-संबंधी पहलुओं (Trade-related aspects of intellectual property rights (TRIPS) ) का लाभ उठा सकते हैं, जिससे स्थानीय अर्थव्यवस्था और खाद्य सुरक्षा को नुकसान पहुंचता है।
किसानों के अधिकारों की रक्षा के लिए एक लम्बी कानूनी लड़ाई और अर्ध-क्रांति की आवश्यकता पड़ी, जिससे स्थानीय हितधारकों और वैश्विक निगमों के बीच शक्ति असंतुलन पर प्रकाश पड़ा।
कल्पना कीजिए कि 109 विदेशी जीएम फसलों को अब नवाचार के नाम पर भारत में प्रवेश की अनुमति दे दी गई है, जो संभवतः कई दशकों तक हमारे कृषि क्षेत्र पर हावी रहेंगी तथा विदेशी जैव प्रौद्योगिकी पर निर्भरता को और बढ़ा देंगी।
औपनिवेशिक युग में कच्चे माल के शोषण की तरह, आज भारतीय मानव पूंजी - उच्च शिक्षित और कुशल युवा, इंजीनियर, वैज्ञानिक और आईटी पेशेवरों - का शोषण अतीत के आर्थिक शोषण को प्रतिबिंबित करता है।
वे वैश्विक दिग्गजों के लिए काम करने के लिए आकर्षित होते हैं, लेकिन आर्थिक लाभ भारत के व्यापक आर्थिक विकास में पर्याप्त रूप से योगदान नहीं करते हैं।
इसके बजाय, हम प्रतिभा पलायन जैसी घटना देखते हैं, जहां लाभ मुंबई, दिल्ली, बैंगलोर और गुड़गांव जैसे कुछ शहरी केंद्रों में केंद्रित होते हैं, जिससे क्षेत्रीय आर्थिक असमानताएं पैदा होती हैं।
यद्यपि विदेशी निगमों द्वारा दी जाने वाली मजदूरी आकर्षक प्रतीत हो सकती है, लेकिन यह उस मजदूरी का केवल एक अंश है जो ये निगम अपने देश में समान कार्य के लिए देते हैं, जो मजदूरी अंतरण का एक ऐसा रूप दर्शाता है जो भारतीय श्रम के वास्तविक मूल्य को कमतर आंकता है ।
इसलिए, पुराने भारत के शासकों की तरह, समकालीन भारतीय सरकार अक्सर दीर्घकालिक आर्थिक संप्रभुता की तुलना में अल्पकालिक आर्थिक लाभ या सकल घरेलू उत्पाद के आंकड़ों में
वृद्धि को प्राथमिकता देती है, जिससे विदेशी निगमों को हमारे शिक्षित श्रम पूल से असंगत लाभ प्राप्त करने की अनुमति मिलती है, जबकि घरेलू क्षमताओं को बढ़ाने के लिए न्यूनतम ज्ञान हस्तांतरण होता है।
उदाहरण के लिए, F-16 लड़ाकू विमानों का निर्माता लॉकहीड मार्टिन (Lockheed Martin), जिसने कभी हमारे पश्चिमी पड़ोसी पाकिस्तान के माध्यम से भारत की संप्रभुता को ख़तरा पैदा किया था, अब इन विमानों के कुछ हिस्सों का निर्माण भारत में करना चाहता है, बिना पूरी तकनीक हस्तांतरण की पेशकश किए।
उनका लक्ष्य भारत को उन्नत लड़ाकू विमान (F-21) बेचना भी है, लेकिन ऐसी कीमतों पर जो स्थानीय विनिर्माण की लागत बचत को नहीं दर्शाती हैं, जिससे ऐसे रक्षा सौदों में असीमित लाभ का पता चलता है।
यह व्यापार समझौता अतीत की याद दिलाता है जब भारतीय शासकों ने लंबे समय के आर्थिक प्रभावों का विस्तृत विश्लेषण किए बिना विदेशी व्यापार का स्वागत किया था, जिसके परिणामस्वरूप आर्थिक संप्रभुता को नुकसान पहुंचा था।
उपभोक्ताओं को आकर्षित करते हुए, भारत में चीनी वस्तुओं की आमद ने भारतीय नवाचार और आर्थिक स्वायत्तता को कम कर दिया है।
उदाहरण के लिए, देश का दूरसंचार क्षेत्र विशिष्ट नेटवर्क उपकरणों का उपयोग करना जारी रखता है जो राष्ट्रीय सुरक्षा जोखिम पैदा करते हैं, भले ही इन उपकरणों को डेटा सुरक्षा और
जासूसी की चिंताओं के कारण यूरोप और अमेरिका में प्रतिबंधित कर दिया गया हो, जो विदेशी प्रौद्योगिकी पर निर्भर होने की रणनीतिक भेद्यता को दर्शाता है।
इसके विपरीत, जब विदेशी सरकारें संरक्षणवादी नीतियां अपनाती हैं, तो उन्हें विकासशील देशों से बहुत कम प्रतिरोध का सामना करना पड़ता है।
उदाहरण के लिए, अमेरिका ने पिछले आठ वर्षों में मैक्सिकन निर्यात के खिलाफ संरक्षणवादी उपाय लागू किए हैं और चीनी वस्तुओं पर टैरिफ लगाया है।
यूरोप ने भी अपने घरेलू ऑटो उद्योग, खास तौर पर टेस्ला को बचाने के लिए चीनी इलेक्ट्रिक वाहनों पर लगभग 50% टैरिफ लगाया है।
वहीं, भारत जीवन रक्षक दवाओं की कीमतों को बचाने के लिए भी संघर्ष कर रहा है, जो वैश्विक अर्थव्यवस्था में आर्थिक संप्रभुता बनाए रखने की चुनौतियों को उजागर करता है।
इसलिए, भारत की आर्थिक संप्रभुता एक नाजुक संरचना है, और यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि भारत का वर्तमान आर्थिक परिदृश्य 1600 के दशक से परेशान करने वाली समानताएँ रखता है।
अगर हमारी व्यापार नीतियाँ और आर्थिक संप्रभुता मज़बूत होती, तो भारतीय किसान वैश्विक बाज़ारों में अपनी चाय, कॉफ़ी और मसालों के लिए प्रीमियम मूल्य प्राप्त कर सकते थे।
भारतीय वाहन दुनिया भर की सड़कों पर छा जाएंगे और उनकी प्रतिष्ठा और मांग सऊदी तेल के समान होगी।
इसके अलावा, भारतीय पारंपरिक औषधियों को विकसित देशों के अस्पतालों में मुख्य औषधि के रूप में शामिल किया जाना चाहिए, न कि उन्हें वर्जित या 'वैकल्पिक चिकित्सा' के रूप में देखा जाना चाहिए।
1600 के दशक में विभाजित भारत द्वारा की गई एक रणनीतिक गलती, स्वतंत्रता और संप्रभुता को खोने का कारण बनी। यह आर्थिक निर्भरता और शोषण के माध्यम से स्वायत्तता का क्रमिक क्षरण था।
इसलिए, भारत को यह सुनिश्चित करना होगा कि 21वीं सदी में एकजुट भारत विदेशी व्यापार और निवेश की खोज में आर्थिक संप्रभुता से समझौता करके पिछली गलतियों को न दोहराए।
अंत में, यहां कुछ और उदाहरण दिए गए हैं।
1997 में टाइटन घड़ियों (Titan Watches) को स्विटजरलैंड के बेसल वॉच एवं ज्वेलरी मेले में प्रवेश देने से मना कर दिया गया था, क्योंकि भारतीय घड़ियाँ, जो कि बड़े पैमाने पर उत्पादन की अर्थव्यवस्था और कम उत्पादन लागत से लाभान्वित होती हैं, को स्थापित ब्रांडों के लिए प्रतिस्पर्धी खतरे के रूप में देखा गया था।
इसी प्रकार, भारतीय किसान अमेरिकी कम्पनियों के पेटेंट दावों के कारण बासमती चावल खोने से बाल-बाल बच गए, जिससे जैव-चोरी के जारी जोखिम तथा वैश्विक बौद्धिक संपदा व्यवस्था में पारंपरिक ज्ञान की सुरक्षा की चुनौतियों पर प्रकाश पड़ा।
भारत को हल्दी के उपचारात्मक गुणों पर पेटेंट संबंधी चुनौतियों का भी सामना करना पड़ा है, जिससे हमारी बौद्धिक, आर्थिक और सांस्कृतिक विरासत को सुरक्षित रखने की आवश्यकता पर बल मिलता है।
वर्तमान में, भारत ब्रिटेन के साथ एक व्यापार समझौते पर बातचीत कर रहा है, जिससे हमारे बाजारों में सस्ते सेबों की बाढ़ आ सकती है, और जिस वजह से हिमाचल प्रदेश और कश्मीर के किसानों की आजीविका को ख़तरा हो सकता है।
ये वार्ताएँ घरेलू उद्योगों को मुक्त व्यापार समझौतों के प्रतिकूल प्रभावों से बचाने के महत्व को रेखांकित करती हैं।
हमारे उत्तरी पड़ोसी चीन से सीखने के लिए हमारे पास मूल्यवान सबक हैं, जिसने अपनी आर्थिक संप्रभुता से समझौता नहीं होने दिया है।
चीन की सालाना 240 सुपर फाइटर जेट बनाने और शामिल करने की क्षमता, जो दुनिया के सर्वश्रेष्ठ को चुनौती देने में सक्षम है, उसके महत्वपूर्ण उद्योगों पर नियंत्रण बनाए रखने के रणनीतिक लाभ को रेखांकित करती है।
भारत सालाना 20 विमानों को भी शामिल नहीं कर सकता।
यहां तक कि सबसे मुखर आलोचक भी सहयोग और *संयुक्त उद्यमों (Joint ventures) के महत्व को पहचानते हैं।
हालांकि, भारतीय कारीगरों, इंजीनियरों, वैज्ञानिकों और किसानों के हितों को दरकिनार करने या हमारे पारंपरिक ज्ञान के आधार को नष्ट करने का कोई भी प्रयास खतरे की घंटी होना चाहिए।
आधुनिक अर्थशास्त्री चाहे जो भी सुझाव दें, किंतु, अपनी अर्थव्यवस्था और जनसंख्या के बारे में संरक्षणवादी होना कोई अनुचित बात नहीं है।
भारत प्राकृतिक और मानव संसाधनों से समृद्ध देश है, और विदेशी शोषण के लिए अपने दरवाजे खुले छोड़ना हमें फिर से औपनिवेशिक गुलामी के युग में वापस ले जा सकता है।
*"संयुक्त उद्यम।" संयुक्त उद्यम वह व्यापारिक व्यवस्था है जिसमें दो या अधिक पार्टियाँ (व्यक्तिगत, कॉर्पोरेट, या सरकारी इकाइयाँ) मिलकर एक नई व्यापारिक गतिविधि या परियोजना को पूरा करने के लिए साथ आती हैं।
इस व्यवस्था में पार्टियाँ अपने संसाधन, पूंजी, और विशेषज्ञता का योगदान देती हैं और उत्पन्न होने वाले लाभ और हानि को साझा करती हैं।
*GM Crops: Genetically Modified (जीएम) फसलें वे फसलें होती है जिन्हें जेनेटिक इंजिनियरिंग के जरिए किसी भी जीव या पौधों के जीन को दूसरे पौधों में डालकर विकसित किया जाता है।
इसको हम इस तरह भी समझ सकते है कि बीजों के जीन्स में बदलाव करके उनमें मनचाही विशेषता पैदा करने हेतु प्राकृतिक बीजों को मोडिफाई कर नई फसल (जीएम फसल) की प्रजाति तैयार की जाती है।
*सर्वाधिक पसंदीदा राष्ट्र (एमएफएन) सिद्धांत इस विचार पर आधारित है कि देशों को अपने सभी व्यापार भागीदारों के साथ समान व्यवहार करना चाहिए - अर्थात किसी भी देश को "अधिक पसंदीदा" नहीं माना जाना चाहिए।
इसका मतलब है कि किसी भी देश को किसी एक विशेष व्यापारिक भागीदार से आने वाली वस्तुओं या सेवाओं को विशेष दर्जा नहीं देना चाहिए।
विश्व व्यापार संगठन (WTO) ने अपने नियमों में सबसे पसंदीदा राष्ट्र सिद्धांत को शामिल किया है।
WTO के सदस्यों को किसी एक देश को तरजीह देने की अनुमति नहीं है, उदाहरण के लिए, किसी विशेष उत्पाद पर कम टैरिफ लगाना, जबकि सभी सदस्यों को समान लाभ न दिया जाए।
देशों को अपने उत्पादों और सेवाओं को भी वरीयता नहीं देनी चाहिए - जिसे राष्ट्रीय व्यवहार के रूप में जाना जाएगा।
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