विश्व शक्ति और विश्व गुरु का टकराव
विश्व शक्ति और विश्व गुरु का टकराव
भारत के इतिहास में जून 2020 के लंबे और तेज़ धुप वाले दिन, अंधकारमय महीने के रूप में याद किया जाएगा। हिमालय के एक दूर दराज कोने में, भारत फिर घायल हुआ। उसके 20 निहत्थे सैनिकों को चीनी सेना ने बेरहमी से मार डाला।
ऐसा तब हुआ जब दोनों देश के उच्च स्तरीय सैनिक अफसरान, बढ़ रहे तनाव को नियंत्रण में करने की कोशिश में जुटे थे ।
LAC (वास्तविक नियंत्रण रेखा) भारत और चीन के बीच की सीमा अस्पष्ट रूप से परिभाषित है। यह परिस्थिति, हमें अंग्रेजों से विरासत में मिली है । ऐसा होने के कारण बार-बार भारत चीन सीमा पर, झड़प होती रहती है। लेकिन ज्यादातर ये नियंत्रण में ही रहती थी ।
पिछले 45 सालों से कभी हिंसा नहीं देखी गयी। लेकिन इस बार की हिंसा को देख कर लगता है की यह चीन की एक पूर्वचिन्तित योजना थी। इस समय की गंभीरता यह प्रतीत करता है की, यह परिस्थिति सेना, कूटनीति और राजनीतिक नेतृत्व के नियंत्रण से बाहर चली गयी है ।
समस्या की जड़ें गहरी और व्यापक हैं। आइए भारत के दृष्टिकोण से, स्थिति की जटिलता की परतों को समझें।
यह शोकपूर्ण सैनिक घटना जरूरी नहीं कि सीमा विवाद पर आधारित है । इसको समय ने गहरा और गंभीर बनाया। एक पूर्ण रूप रेखा और विश्लेषण से, इस त्रासदी के कई अन्य कारण प्रकट हो रहे हैं।
मुख्य रूप से यह चीनी नेतृत्व की महत्वाकांक्षा और हल्का (कमजोर नहीं) पड़ोसियों की उपलब्धता से प्रेरित है। चाहे वह वियतनाम हो, हांगकांग, ताइवान, ऑस्ट्रेलिया हो या फिर जापान, चीन अपने क्षेत्रीय और वैश्विक प्रभुत्व को आगे बढ़ाने के लिए दबाव और कूटनीतिक धमकियों का प्रयोग कर रहा है ।
इस प्रयास में, वह अपने पड़ोसियों को नाराज कर रहा है और एक हमलावर की छवि बना रहा है। अपनी महत्वाकांक्षाओं की खोज में इसने WTO, समुद्री सीमाओं, आई. पी अधिकारों (Intellectual Property Rights) और देशों की संप्रभुता अधिकारों के नियमों का भी उल्लंघन, नियमित रूप से किया है ।
इसी संदर्भ में हमें यह भी संज्ञान में रखना चाहिए कि चीन का आधुनिक इतिहास सामूहिक हिंसा और उत्पीड़न से चिह्नित है। चाहे वह 1927-37 और 1945-49 के बीच गृहयुद्ध हो या 1974 के भूमि सुधार हो, हिंसा, चीन के इतिहास का अटूट हिस्सा है । यह लाखों सैनिकों और नागरिकों की मौत से जुड़ा हुआ हैं।
असंतोष और विवादों को सुलझाने के लिए, शायद अहिंसक तरीके शासन के लिए प्राथमिक नहीं हैं । इसलिए, आज 2020 में, उनके राजकीय और अंतर राष्ट्रीय दृष्टिकोण में उल्लेखनीय अंतर की उम्मीद करना गलत होगा।
संक्षिप्त में अगर हम तथ्य रखे, तो आधुनिक चीन के इतिहास को देखते हुए यह समझ लेना चाहिए की जनमत उनके लिए सबसे कम चिंता का विषय है । यह भी संभव है की, यह सैनिक घटना उनके सार्वजनिक समाचार में दर्ज ही नहीं हो।
एक पार्टी राष्ट्र होने के नाते, विपक्ष रहित शासन के कारण, चीन की नीतियाँ और यह व्यवहार कोई आश्चर्य की बात नहीं है ।
इसके विपरीत, जनमत, शांति प्रिय राष्ट्रीय दृष्टिकोण, चर्चा और बहस, भारत में सर्वोच्च प्राथमिकता है। संविधान के अनुसार, सरकार को संसद में आधिकारिक बयान देना और बहस के लिए सांसदों को आमंत्रित करना जरूरी है।
सार्वजनिक जांच, पारदर्शिता भारत के राष्ट्रीय ताने-बाने को परिभाषित करता है।
भारत और चीन, भौगोलिक पड़ोसी हो सकते हैं, लेकिन दोनों राष्ट्र के दृष्टि कोणों में नितांत अंतर है। दोनों देशों को इन मौलिक अंतरों को समझना चाहिए, जो दुर्भाग्य से, आज विफल है।
जबकि चीनी आक्रामक व्यवहार पिछले दशक से ध्यान योग्य था, परन्तु इतना गंभीर नहीं था । लेकिन राजनीतिक रूप से पिछले साल अगस्त में स्थिति बदल गई।
भारतीय गृह मंत्री ने पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर (PoK) और अक्साई चिन (Aksai Chin) को वापस लेने की अपनी सरकार की महत्वाकांक्षा को आधिकारिक तौर से, संसद में जताया ।
इसके बाद 2020 के मई में भारत ने अपने मौसम विभाग के दैनिक मौसम प्रसारण के तहत, गिलगित-बाल्टिस्तान, (PoK) को सममित कर किया। इन सभी भारतीय रुखों के साथ-साथ अनुच्छेद 370 के निराकरण ने चीन के व्यवहार को अति आक्रामक कर दिया ।
संभवतः भारतीय घरेलू राजनीति के लिए, भारत के यह कदम उचित होते लेकिन, विदेश नीतियों पर साथ समन्वय नहीं थे ।
भारत ने अपने लंबे इतिहास को ध्यान में रखते हुए यह कदम उठाया था | यह क्षेत्र पूर्ण कानूनी और राज्यारोहण के आधार पर भारतीय है ।
साथ ही भारत ने पाकिस्तान में चीन की सड़क परियोजना पर भी आपत्ति जताई थी, जो चीन-पाकिस्तान आर्थिक गठबन्दन (CPEC) के तहत गिलगित-बाल्टिस्तान से होकर गुज़रती है।
यह चीन के लिए एक अंतर्राट्रीय रणनीति कार्यक्रम है। यह चीन को अरब सागर से जोड़ता है। इस परियोजना के पूर्व चीन को मलक्का स्ट्रेट के लम्बे समुद्री रास्ते को तय करना पड़ता था ।
भारत के इस कदम का चीन के CPEC कार्यक्रम पर गंभीर परिणाम था। कानूनी रूप से, अब चीन भारतीय क्षेत्र में एक सामरिक सड़क का निर्माण कर रहा था और यह व्यवस्था का प्रारूप भारत, चीन या पाकिस्तान को स्वीकार्य नहीं होगा । शायद यही चीन के आक्रामक व्यवहार का स्रोत है ।
गलवान घाटी में गंभीर परिस्थितियां होने वाली है, यह बहुत पहले से, भारत को दिखना चाहिए था । परन्तु भारत चूक गया ।
आज भारत के पास कोई विकल्प भी नहीं है । ऐतिहासिक रूप से भारत की पाकिस्तान केंद्रित नीति रही है और इन कुछ कदम ने गलत पड़ोसी को क्रोधित कर दिया । बर्फीली हिमालय के उस पार खलबली हो गयी है ।
चीनी दुश्मनी को रोकने के लिए अब बहुत देर हो चुकी है क्योंकि अब अनुच्छेद ३७० का निराकरण, लद्दाख को केंद्र शासित प्रदेश के रूप में नामित करना और गिलगित-बाल्टिस्तान को कश्मीर में वापस लेने का भारतीय इरादा स्थाई है ।
नतीजतन, भविष्य में, हम कई और झड़पे देखेंगे । वह और भी अधिक हिंसक हो सकती हैं, क्योंकि भारत और चीन के बीच, अब सैनिक वचनबद्धता के नियम बदल गए हैं ।
वास्तव में यह बदलाव क्या हैं, हमें अभी तक पता नहीं है, लेकिन निश्चित रूप से, वे वर्तमान शांति और अहिंसा नियम के प्रतिबंधात्मक नहीं हैं ।
अगर हम समग्र रूप से देखे तो पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और श्रीलंका जैसे पड़ोसियों की तुलना में भारत मजबूत है । लेकिन, भारत और चीन के बीच व्यापक असममिति बनी हुई है । असममिति का दायरा प्रौद्योगिकी, सैन्य सामग्री, विनिर्माण क्षमताओं और अर्थव्यवस्था के मामले में है ।
साथ ही श्रीलंकाई बंदरगाह, मालदीव द्वीप और पाकिस्तान के सीपीईसी में चीनी रणनीतिक मौजूदगी से भारत के क्षेत्रीय मजबूती को चुनौती दे रहा है । और तो और, नेपाल की राजनीति में भी अब चीन की पैठ है ।
नेपाल की यह नयी दुश्मनी, भारत के पक्ष में नहीं है ।
भारत ने काफी समय पहले अपनी आर्थिक सीमाएं, एक सुविचारित योजना के तहत खोल दी है।
इसका मकसद लाना और घरेलू क्षमताओं को विकसित करना था। इसके बजाय, समय के साथ, इसने भारतीय विनिर्माण क्षमताओं को ध्यस्थ कर दिया है और इसके परिणाम से चीनी कंपनियों को गहरी पैठ दी है ।
चीनी आर्थिक पैठ इतने व्यापक हैं, कि वे भारतीय रेल , बंदरगाहों, कोयला आपूर्ति, मोबाइल फोन, मोबाइल ऐप और यहां तक कि दूरसंचार के बुनियादी ढांचे तक पहुंच गयी हैं । भारत में लगभग ९० स्टार्ट-अप चीन द्वारा वित्त पोषित हैं ।
इस सूची में छोटे घरेलू सामान, चाय के प्याले,पतंग, देवता की मूर्तियां और खिलौने शामिल हैं। जाहिर है, भारत में व्यापार और विदेशी निवेश को बढ़ावा देने के इरादे से सुरक्षा और रणनीतिक पहलू को नजरअंदाज किया है ।
एक उदाहरण के तौर पर अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड और अन्य जैसे देशों ने चीन 5G के निर्माता हुआवेई पर प्रतिबंध लगा दिया है, जबकि भारत ने बिना प्रतिबंधों के इस कंपनी को अनुमति दी है ।
भारत अपने आधुनिक सैन्य सामग्री के लिए आयात पर निर्भर है। इसकी अपनी बाधाएं हैं और रक्षा खरीद की लंबी प्रक्रिया का पालन करना पड़ता है । दूसरी ओर चीन खुद ही रक्षा सामग्री उदपादन करता है और उसे अन्य देशों को निर्यात भी करता है।
इसलिए जब भी मौका होता है , वह अपने पड़ोसियों के अनुरूप सैनिक क्षमताओं को प्राप्त कर लेता है ।
हमेशा से भारतीय रक्षा खरीद का अधिकांश हिस्सा पाकिस्तान केंद्रित रहा था । इस निति के कारण चीन सीमा क्षेत्र के लिए भारतीय क्षमतायें, उतनी मजबूत नहीं है जितनी होनी चाहिये |
अगर चीन और उनके मित्र देश पाकिस्तान के बीच युद्ध स्तरीय मिलीभगत हो जाए तो भारत के लिए खतरा और भी गंभीर हो जाता है । भारतीय सेनाओं को एक साथ दो मोर्चों से निपटना पड़ सकता है ।
यदि भारत को दो मोर्चे पर पारंपरिक युद्ध का सामना करना पड़ा, तो यह बहुत संभव है कि भारत की किलेबंदी कमज़ोर पड़ सकती है । इन परिस्थितियों में युद्ध एक परमाणु युद्ध में भी बदल सकता है । हालांकि इसकी कम संभावना है और यह हमारी अटकलें भी है ।
रक्षा के बजट और निवेश के लिहाज से, भारत चीन से पांच गुना कम है। हालांकि यह थोड़ा विषम तुलना हो सकती है, क्योंकि चीन के रक्षा का दायरा भारत की तुलना में काफी बड़ा है । लेकिन असममिति तो निश्चित ही है ।
भविष्य में, अर्थशास्त्र महत्वपूर्ण भूमिका निभाने जा रहा है। कोविड19 स्थिति से पहले, भारतीय अर्थव्यवस्था स्वस्थ नहीं थी । वह मंदी में थी और विनिर्माण सिकुड़ रही थी । नौकरियां कम थी या छटाई हो रही थी ।
महामारी नियंत्रण से बाहर होने के साथ, अर्थव्यवस्था बिखर गई है और कामगार विस्थापन हो गये है । इन परिस्थितियों में आर्थिक पुनः आरंभ करना कठिन हो रहा है ।
यह कहना गलत नहीं होगा की वर्तमान में भारत का मनोबल एक चुनौती भरे पल से गुजर रहा है। यह वो कमजोर पल हो सकता है जिसे चीन सरकार घात लगा कर बैठी थी ।
इस समय जरूरी है कि, भारत अपनी रक्षा को और मजबूत करें, तो इसके लिए भीमकाय आयात करना होगा। यह भविष्य के कर दरें और ऋण बोझ की कीमत पर होगा । यह एक स्वस्थ विकल्प तो नहीं है, लेकिन यही रास्ता है इस संकट से उभरने का।
हमें यह भी समझने की जरूरत है कि चीन का भारत में 4 गुना अधिक व्यापार अधिशेष है ।
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यदि भारत स्वदेशीकरण और आयात प्रतिस्थापन का मार्ग लेने का निर्णय लेता है, तो यह २०३० तक ही कुछ ठोस परिणाम दे सकते हैं ।
वे सभी वर्ष, जब भारत स्वदेशी करण से भटक गया था , उस गुज़रे हुए समय की कीमत सबसे अधिक आहत करने वाली है । खोई हुई क्षमताएं जो 'मेड इन इंडिया' को रोशन कर सकती थीं, उसको पुनर्निर्माण में समय लगेगा।
यह एक मैराथन प्रतिबद्धता होगी, जो लंबे समय चलने वाला एकाग्र प्रयास और एक राष्ट्रीय दृढ़ निश्चय होगा | इसके लिए भारत के उच्चतम स्तर के नेतृत्व की मंशा अनिवार्य है ।
चीन के लिये भारतीय आर्थिक सीमाएं खोलते समय एक धारणा भारत ने चीन के लिये सोची थी, यह की भारत में अपनी हिस्सेदारी के साथ चीन का भौगोलिक महत्वाकांक्षा संतुलित रहेगी।
शायद, भारतीय में आर्थिक साझेदारी में चीन के सीमा मुद्दे महत्वपूर्ण नहीं रहेंगे और कमजोर हो जायेंगे। लेकिन चीनी नेतृत्व के वर्तमान रूप से , यह धारणा गंभीर रूप से गलत हो गयी हैं ।
चीन के साथ व्यापार जारी रखना और भारतीय सैनिकों को सीमाओं पर मरने देना संभव नहीं है । वे 20 सैनिक भारत के कोने-कोने के निवासी थे और यह एक राष्ट्रीय चोट है, जिसका घाव दशकों तक ताज़ा रहने वाला है।
यदि भारत सरकार चीन के साथ व्यापार जारी रखने का फैसला करती है, तो यह भारत-पाकिस्तान व्यापार जैसी कहानी दोबारा होगी । कोई भी राजनीतिक पार्टी इस विकल्प को आगे बढ़ाने का जोखिम नहीं उठायेगी ।
अब कूटनीतिक मोर्चे पर भी गंभीर सबक सीखे जाने हैं । पिछले कुछ वर्षों में भारत सरकार, विदेश नीति को उत्सव और इवेंट मैनेजमेंट के साथ मिला रही थी । भारत-अमेरिका दोस्ती के भव्य जश्न (नमस्ते ट्रम्प) के साथ भारत ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रंप का स्वागत किया।
एक महीने बाद वही ट्रंप ने भारत को जवाबी कार्रवाई के साथ धमकी देने में कोई कसर नहीं छोड़ी | कारण वह हाइड्रोक्सी क्लोरो-क्विन (HCQ) दवाई थी जिस पर भारत ने निर्यात प्रतिबंध लगाया था ।
इसी तरह भारतीय प्रधान मंत्री ने पिछले 6 साल में 18 बार चीन के राष्ट्रपति से मुलाकात की थी। उनमें से कुछ अनौपचारिक भी थी। आखिरी बार अक्टूबर 2019 में ममलापुरम में दोनों मिले थे । लेकिन एक साल से भी कम समय में चीन भारत को गलवान घाटी में संघर्ष करते हुए देखा गया ।
समझने वाली बात यह है की, यदि दो विरोधी महाशक्तियां, जैसे चीन और अमरीका, भारत के साथ, एक ही तरह का व्यवहार करते हैं, तो भारतीय विदेश नीति के विशेषज्ञों के लिए एक बड़ा प्रश्न चिन्ह है ।
इन नेताओं की सद्भावना हासिल करने के लिए भारत ने धूमधाम से समय और धन का प्रयोग किया । आदर सत्कार में कोई कमी नहीं छोड़ी, लेकिन रिश्ते मजबूत होने ने बजाये विपरीत रह पर चलते साबित हुए है ।
गलवान घाटी हिंसक होने के साथ ही भारत-चीन के रिश्ते 1962 की दुश्मनी में लौट चले गए हैं। दोनों देशों में विश्वास, जो हिमालय की ठंडी झील की पतली बर्फ पर सैर जैसा था, वह आज टूट के डूब गया है ।
1988 का चीनी नेतृत्व जो 21वीं सदी को भारत के साथ मिलकर एशियाई सदी के रूप में देखना चाहता था, 2020 का नेतृत्व भारत को एक खतरनाक विरोधी के रूप में देख रहा है। यह एक जोखिम भरा परिवर्तन है ।
जून २०२० के परिणाम लंबे समय तक चलने वाले हैं । भारत के विकल्पों की कुछ संकीर्ण राह खुले हैं ।
भारत अब क्षेत्रीय शांति के लिए चीन पर भरोसा नहीं कर सकता है। इसलिए चीनी आयात, चाहे वह वस्तुओं, सेवाओं और वित्त हो, भारत को निर्भरता समाप्त करनी चाहिये ।
भारत और चीन को राजनयिक तरीके और राष्ट्रीय नेतृत्व की सद्भावना (यदि कुछ बाकी है) का उपयोग करके, शांति बहाल करनी चाहिये ।
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जवाबी कार्रवाई के लिए सैन्य विकल्प सबसे अच्छा नहीं होगा,
बल्कि अंतिम उपाय के रूप में लिया जाना चाहिए।
यह एक ऐसी सीख है जिसे अमेरिका ने कुछ साल पहले समझ ली थी । अभी वक्त है की भारत वह सबक लेकर भविष्य में नीतियां बनायें ।
चीन आर्थिक, राजनीतिक और सैन्य रूप से दुनिया भर में अपनी हुकूमत ज़माने में सफल हो रहा है । कारण की उसने एक आत्मनिर्भर अर्थव्यवस्था विकसित की है ।
इसके अलावा चीन के दोस्त और दुश्मन, दोनों चीनी उत्पादों और सेवाओं पर निर्भर हैं । इसलिए भारत को आयात प्रति स्थापन और अपनी अर्थव्यवस्था के स्वदेशीकरण को विकसित करके, अपने व्यापारिक प्राथमिकताओं को पलटने की जरूरत है ।
अगर भारत को सुरक्षित और मजबूत महसूस करना है तो यही एकमात्र विकल्प है ।
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