सम्भल अंतिम नहीं होगा : असली सर्वे ?
सम्भल अंतिम नहीं होगा : असली सर्वे ?
Sambhal Will Not Be Last: The Real Survey? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
क्या संभल में हुआ सर्वे असली है - या भारतीय इस स्थिति की बड़ी तस्वीर को नहीं देख पा रहे हैं?
सम्भल, उत्तर प्रदेश का एक शहर, भारत के सांप्रदायिक विवाद के लंबे और दुखद इतिहास में नया मुद्दा बन गया है।
जो दंगे यहां भड़के वे ना तो अलग-थलग हैं और न ही अभूतपूर्व बल्कि वे तो बरेली, अलीगढ़, बहराइच, दिल्ली, नूह और देश भर में अनगिनत अन्य स्थानों पर हुई हिंसा की गूंज हैं।
दुःखद सच्चाई ये है कि यह कोई नई बात नहीं है।
सांप्रदायिक तनाव ने उपमहाद्वीप के दो शताब्दियों से भी अधिक के इतिहास को बिगाड़ कर रख दिया है, जिसके लिखित प्रमाण 1805 से है।
बार-बार, नफरत की बलिवेदी पर मासूम लोगों की जान कुर्बान कर दी जाती है। फिर भी, अहम सवाल यही बना हुआ है कि, क्या भारत ने इन त्रासदियों से कुछ सीखा है, या हम इन्हें बार-बार दोहराने के लिए शापित हैं?
हम धर्म की रक्षा के नारे सुनते हैं, लेकिन वास्तव में इन दंगों के पीछे क्या छिपा है?
शांति को बढ़ावा देने के बजाय, मीडिया के कुछ वर्ग - जिन्हें अक्सर गोदी मीडिया करार दिया जाता है - ध्यान भटकाने वाली रणनीति अपनाते हैं, विभाजनकारी बयानों को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करते हैं और जवाबदेही से बचते हैं।
लेकिन आइए थोड़ा रुककर ये सवाल पूछें: संभल ही क्यों, और अभी ही क्यों?
इसके महत्व को समझने के लिए हमें यह समझना होगा कि यह महज एक और दंगा नहीं है। यह सदियों पुरानी राजनीतिक रणनीतियों का नया अध्याय है , जिसमें आस्था और इतिहास को ध्रुवीकरण के लिए हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है।
ये दो अस्थिर तत्व - आस्था और इतिहास - भारत को तेजी से जहरीला और सांप्रदायिक रूप से विस्फोटक बना रहे हैं।
संभल में क्या हुआ?
घटनाओं का क्रम तब शुरू हुआ जब आठ याचिकाकर्ताओं ने सम्भल की निचली अदालत में यह दावा करते हुए याचिका दायर की कि कस्बे में स्थित जामा मस्जिद एक मंदिर - हरिहर मंदिर - के खंडहरों के ऊपर बनी हुई है, जिसे 1526 में बाबर ने नष्ट कर दिया था।
इस दावे पर कार्रवाई करते हुए अदालत ने सर्वेक्षण का आदेश दिया।
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सांप्रदायिक तनाव ने उपमहाद्वीप के दो शताब्दियों से भी अधिक के इतिहास को बिगाड़ कर रख दिया है, जिसके लिखित प्रमाण 1805 से है
असामान्य रूप से, यह सर्वे कुछ ही घंटों के भीतर सम्पन्न किया गया - जो भारतीय न्याय प्रणाली में दक्षता का एक दुर्लभ प्रदर्शन है।
आश्चर्य की बात ये है कि यह अभ्यास शांतिपूर्ण ढंग से संपन्न हो गया और मामला सुलझ गया। संभल में जनजीवन सामान्य हो सकता था।
लेकिन फिर एक नया मोड़ आया।
एक सप्ताह बाद, याचिकाकर्ता एक अन्य सर्वे के लिए मस्जिद में वापस आये, इस बार उनके साथ भड़काऊ नारे लगाने वाला एक समूह भी था।
चिंगारी भड़क उठी और शहर में हिंसा भड़क उठी।
पांच लोगों की जान चली गई, जिसमें एक 17 वर्षीय लड़का भी शामिल था। गोली लगने से उसके सपने और भविष्य दोनों खत्म हो गए। हालांकि पुलिस ने भीड़ पर गोली चलाने से इनकार किया है, लेकिन ऑनलाइन प्रसारित वीडियो कुछ और ही संकेत देते हैं।
एक बड़ा सवाल: सर्वे की अनुमति क्यों दी गई ?
भारत का पूजा स्थल अधिनियम (India’s Places of Worship Act), 1991 स्पष्ट रूप से कहता है: सभी पूजा स्थलों की स्थिति वैसी ही बनी रहनी चाहिए जैसी वे 15 अगस्त, 1947 को थी - अयोध्या विवाद को छोड़कर।
यह कानून सांप्रदायिक सौहार्द बनाए रखने और पुराने जख्मों को फिर से कुरेदने से रोकने के लिए बनाया गया था। तो फिर इस सर्वेक्षण को मंजूरी कैसे मिली?
इसका उत्तर सर्वोच्च न्यायालय द्वारा स्थापित मिसाल में निहित है ।
वाराणसी में ज्ञानवापी मस्जिद मामले में पूर्व मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ ने टिप्पणी की थी कि आस्था के तुच्छ मामले भी सम्मान के पात्र हैं।
उनके फैसले ने ज्ञानवापी स्थल के गैर-आक्रामक सर्वे की अनुमति दी, जिससे अनजाने में एक मिसाल कायम हो गई, जिसका अब संभल में फायदा उठाया जा रहा है।
डर साफ है: संभल आखिरी घटना नहीं होगी!
कुतुब मीनार से लेकर ताजमहल और दिल्ली की जामा मस्जिद तक, हजारों स्थल विवाद के केंद्र बन सकते हैं, जो भारत की विविधता के ताने-बाने को छिन्न-भिन्न कर सकते हैं।
विडंबना यह है कि संभल की जामा मस्जिद 1920 के दशक से ही * संरक्षित स्मारक (protected monument) रही है, पहले ब्रिटिश शासन के अधीन और बाद में भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण द्वारा।
राजनीतिक लाभ के लिए इस संरक्षण की अनदेखी करना देश में कानून और न्याय के शासन के बारे में गंभीर चिंताएं पैदा करता है।
ख़तरनाक भानुमती का पिटारा खुल गया है
अयोध्या मामले में आए फैसले में उपासना स्थल अधिनियम, 1991 की सराहना की गई तथा इसे संवैधानिक आधारशिला तथा विविधता और समानता के प्रति भारत की प्रतिबद्धता का प्रमाण बताया गया।
फिर भी हाल के निर्णयों से इस सद्भाव के बिखरने का खतरा है, तथा विवादों का पिटारा खुलने का खतरा है।
संभल एक महत्वपूर्ण मोड़ बन सकता है - एक ऐसा क्षण जहां हम या तो संविधान की भावना को कायम रखेंगे या उसे कमजोर करेंगे।
भारतीयों को अतीत से आगे बढ़कर सीखना चाहिए
दो शताब्दियों से भी ज़्यादा समय से हिंदू-मुस्लिम तनाव ने उपमहाद्वीप के इतिहास को दागदार बना दिया है।
पिछले 35 सालों में ही अयोध्या नफरत का केंद्र बन गया है, जिसमें अनगिनत लोगों की जान गई है और समुदायों में तबाही मची है। इन विवादों का आर्थिक नुकसान बहुत ज़्यादा है और एक सहिष्णु समाज के रूप में भारत की छवि को बहुत नुकसान पहुंचा है।
फिर भी हमने कभी इन सांप्रदायिक संघर्षों से हुए नुकसान का सर्वे नहीं किया।
हम टूटे सपनों, बर्बाद हुए परिवारों और खोए अवसरों को क्यों नहीं गिनते?
इसके बजाय, हम 500 साल पुरानी शिकायतों को खंगालने में समय और संसाधन खर्च करते हैं।
और यदि हम इतिहास की खोज पर जोर देते हैं, तो 500 वर्षों पर ही क्यों रुकें?
क्या हमें भारत के प्राचीन इतिहास में नष्ट किए गए मंदिरों का भी सर्वे नहीं करना चाहिए, जब बौद्ध और जैन धर्म को दमन का सामना करना पड़ा था? धार्मिक विजय और विनाश का चक्र अंतहीन है - यही इतिहास है।
लेकिन इतिहास को हमारा वर्तमान या भविष्य निर्धारित करने की आवश्यकता नहीं है।
भारतीयों के लिए विश्व से सबक
जबकि भारत प्राचीन विवादों से चिपका हुआ है, विश्व आगे बढ़ चुका है।
जापान और अमेरिका, जो द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान एक दूसरे के कट्टर दुश्मन थे, अब अत्याधुनिक प्रौद्योगिकियों पर सहयोग करते हुए मित्र बन गए हैं।
सदियों से प्रतिद्वन्द्वी रहे फ्रांस और ब्रिटेन ने इंग्लिश चैनल के नीचे एक सुरंग का निर्माण किया, जिससे भूगोल और इतिहास बदल गया।
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पांच लोगों की जान चली गई, जिसमें एक 17 वर्षीय लड़का भी शामिल था
और जर्मनी, जो कभी हिटलर की भयावहता का पर्याय था, अब लचीलेपन और प्रगति का प्रतीक बन गया है तथा आधुनिक यूरोप का नेतृत्व कर रहा है।
फिर भी यहां भारत में हम मस्जिदों में खुदाई करते हैं, पुराने घावों को फिर से कुरेदते हैं, जबकि गर्व के साथ ब्रिटिश परंपराओं का जश्न मनाते हैं, गर्व के साथ अंग्रेजी बोलते हैं और क्रिकेट खेलते हैं।
राजनीतिक रणनीतियां
कोई गलती न करें: विवाद, सर्वे और अशांति का यह चक्र बिना सोचे समझे नहीं है। यह वोटों को बांटने और इकट्ठा करने के लिए डिज़ाइन किए गए फ़ॉर्मूले का पालन करता है।
1. धार्मिक स्थलों पर विवाद पैदा करते है।
2. इन विवादों को कानूनी दाँव पेंच के दिखावे के तहत अदालत में घसीटते है।
3. सर्वे आयोजित करते है.
4. उकसावे के माध्यम से विभाजन को बढ़ाते है।
5. समुदायों को गुटों में बाँटते है।
6. वोट बैंक को मजबूत करते है।
इस बार इनका लक्ष्य उत्तर प्रदेश है।
वास्तविक सर्वे
उत्तर प्रदेश के लोग असली सर्वे की मांग क्यों नहीं कर रहे हैं - अपने राज्य के आर्थिक और सामाजिक प्रदर्शन का सर्वे?
उत्तर प्रदेश भीषण बेरोजगारी से जूझ रहा है। रोज़ाना हज़ारों युवा काम की तलाश में मुंबई जैसे शहरों की ओर पलायन करते हैं।
सरकारी अस्पतालों में बुनियादी सुविधाओं का अभाव है, स्कूल खस्ताहाल हैं और विकास के अवसर कम हैं।
इन मुद्दों पर ध्यान देने की जरूरत है। ये ऐसे मामले हैं जिनके लिए सर्वे की जरूरत है।
इसके बजाय, उत्तर प्रदेश के युवाओं को पुरानी लड़ाइयों में उलझाया जा रहा है, जिससे अशांति को बढ़ावा मिल रहा है, जिससे निवेशक वहां पर निवेश करने से डर रहे हैं और प्रगति बाधित हो रही है।
भारत के सामने विकल्प
जिस वक़्त विश्व, शांति और प्रगति को गले लगा रहा है, उसी समय भारत पर 21वीं सदी की दुनिया में 15वीं सदी की शिकायतों से चिपके रहने के कारण दुनिया से पीछे छूट जाने का खतरा मंडरा रहा है।
इस तरह ,भारत एक चौराहे पर खड़ा है।
क्या भारतीय नफ़रत के इस दौर को जारी रखेंगे, या इससे ऊपर उठेंगे?
चुनाव हमारा है, क्योंकि, भविष्य को आकार देना हमारा काम है।
इसलिए देश को न्याय के लिए, शांति के लिए और प्रगति के लिए सर्वे करने की आवश्यकता है।
* संरक्षित स्मारक - एक पुरा-स्मारक जिसे सम्बंधित अधिनियम के अंतर्गत राष्ट्रीय-महत्व का घोषित किया जाए, वह संरक्षित स्मारक कहलाता है। ऐसे सारे पुरा-स्मारक और ऐतिहासिक स्मारक, जो प्राचीन एवं ऐतिहासिक स्मारक तथा पुरातत्वस्थल व पुरावशेष (राष्ट्रीय महत्व उद्घोषणा) अधिनियम, १९५९ (Ancient and Historical Monuments and Archaeological Sites and Remains (Declaration of National Importance) Act, 1951), या राज्य पुनर्गठन अधिनियम, १९५६ (the States Reorganisation Act, 1956) की धारा १२६ के अंतर्गत राष्ट्रीय महत्व के घोषित किये गए हैं- इन अधिनियमों के अंतर्गत संरक्षित स्मारक हैं।
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