अफ़ग़ानिस्तान में आतंक की जीत
अफ़ग़ानिस्तान में आतंक की जीत
Terror Wins in Afghanistan? का हिन्दी रूपांतर
~ सोनू बिष्ट
तालिबान जब 'काबुल' मे प्रवेश करेगा, राजनीति के इस युग के लिए, वह समय बहुत महत्वपूर्ण होगा । पिछले 20 वर्षों से दुनिया अफगानिस्तान में शांति के लिए युद्ध देख रही है ।
यद्यपि यह कहना असंगत होगा, किन्तु अफगानिस्तान में शांतिप्रिय,लोकतांत्रिक और स्थिर सरकार लाने का यही मान्य तरीका था। एक हद तक - यह देश में शांति प्राप्त करने में सफल रहा ।
यह कहना अनुचित होगा - कि तालिबान का प्रभुत्व तेजी से बढ़ रहा है । अपनी इस चाल कि योजना वे वर्षों से बना रहे थे। लेकिन जिस दिन से अमेरिका और नाटो (NATO ) सहयोगियों ने तालिबान के साथ शांति समझौते पर बातचीत शुरू की, लोकतंत्र की तक़दीर मोहरबंद हो गई ।
यह बहुत बड़ी विडंबना है,कि दुनिया के सबसे शक्तिशाली राष्ट्र, जो अफ़ग़ान तालिबान को अल-कायदा (ट्विन टावर हमलों का जिम्मेदार) जैसे, नामांकित आतंकवादी संगठन का सहयोगी मानते थे, आज वे काबुल कि सत्ता साझा करने के लिए उनसे मिलाप कर रहे है ।
शांति वार्ता तब तक जारी रह सकती थी, जब तक सभी दल राजी नहीं हो जाते । किन्तु आश्चर्य की बात है, की बिना किसी शांति समझौते के, अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान छोड़ दिया और आतंक के दूतों को उपहार स्वरूप दे दिया । परिणामस्वरूप, अफ़ग़ानियों के 'दो दशकों का बलिदान (मानव और मुद्रा) व्यर्थ हो गया ।
वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान सरकार को खुद की, प्रतिरक्षा करने के लिए छोड़ दिया गया । विशाल, इलाकों, गाँवों और कस्बों ने जहाँ, कबाइली और स्थानीय शासकों ने शासन किया, परंतु खुद को त्यागा हुआ पाकर, उन्होंने तालिबानियों से 'सौदा' कर लिया. अपनी हिफाजत के बदले उन्होंने बिना किसी लड़ाई के अपना इलाका तालिबानियों को सौंप दिया ।
आधुनिक इतिहास में किसी देश का 'दिनों' के भीतर ऐसा पतन नहीं हुआ, यहां तक की सबसे प्रबल नाटो (NATO) सहयोगियों, को सद्दाम हुसैन (Saddam Hussain) तक पहुंचने में महीनों लग गए ।
आज, अगस्त 2021 के मध्य में, हम स्थिति का मूल्यांकन करें तो आतंक को 'विजेता' और लोकतंत्र के 'सिद्धांत' को निराधार और त्यागा हुआ पाएंगे . इसके बजाय दुनिया को अफगानिस्तान की विधि - संगत, लोकतान्त्रिक सरकार के पीछे सम्मिलित होना चाहिये था ।
दुर्भाग्यवश, संयुक्त राष्ट्र के मंच से जो 'प्रगाढ' बाते लोकतंत्र के प्रचार – प्रसार के लिए की जा रही है, सिर्फ एक दिखावा प्रतीत हो रही है . वे देश जिन्होंने अफ़ग़ानिस्तान में, लोकतंत्र की स्थापना के लिए युद्ध छेड़ा था, वही अपनी जान बचाने के लिए अफ़ग़ानियों को दुबका हुआ, अकेला छोड़ गए ।
स्थिति बेहद खराब है, ये खुलासा हो चूका है . ये वही देश है, जो कभी लोकतंत्र के "प्रकाश स्तंभ" हुआ करते थे . आज अपने निर्णय पर पुनर्विचार करने में असफल रहे । दुर्भाग्य वश हम इन विशाल प्रजातंत्र देशों में निरंकुश शासकों की छवि देख रहे है । जो की विरोधाभास परिस्थिति है ।
इन बन्दूक की नोंक पर नृशंस व्यवहार करने वाले समूह को देख, आखिर दुनिया कैसे निष्क्रिय बैठी रह सकती है? यह बहुत ही लज्जाजनक स्थिति है। 20 साल बाद एक बार फिर 'आतंक ' जीत गया ।
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इन घटनाओं से सीख लेकर, भविष्य में विश्व ‘शान्ति का पाठ’ बदलने जा रहा है ।
यह बड़ी विडंबना होगी की, दुनिया भर के नेता एक ऐसा सबक सीखेंगे, जिसमें क्रूर ताकतें अस्तित्व में रहेंगी, और लोकतंत्र के साथ चलने वालो का परित्याग कर दिया जायेगा ।
प्रमाण के रूप में देखे तो, एक दशक के गृहयुद्ध, लाखों लोगों की मौत, अनगिनत विस्थापन के बाद भी तानाशाह बाशर अल असाद (Bashar al-Assad) का सीरिया में शासन अभी भी मजबूत है, इसी तरह उत्तर कोरिया में तानाशाह, किम जोंग उन (Kim Jong Un) का भी ।
अब आगे क्या हम तालिबान को संयुक्त राष्ट्र से शांति का प्रचार करते हुए देखेंगे? इसलिए, संयुक्त राष्ट्र पर से विश्वास घटता जा रहा है और यह, अफ़ग़ानिस्तान पर चुप्पी, उसकी ताबूत का आखिरी कील साबित होगी ।
दुनिया के उन शांतिप्रिय और लोकतान्त्रिक देशों ने अफगानिस्तान को असफल बना दिया, यह इस सदी का सबसे बड़ा विश्वासघात है, इन अफ़ग़ानों ने एक सभ्य समाज बनाने के लिए, आतंक के खिलाफ लड़ाई में, कितने ही बलिदान दिए, अनगिनत अपनों को खोया ।
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किन्तु अफ़सोस के साथ, अब यह नई पीढ़ी इस सबक को स्थानांतरित करेगी की लोकतंत्र के ऊपर, 'ताकत' का समर्थन करने का समय आ गया है ।
वह अफ़ग़ानी जिनका ट्विन टावर (TWIN TOWER ) हमलों के वक्त जन्म हुआ था (20 साल पहले), वे सिर्फ युद्ध के बीच ही जीते रहे । भविष्य में एक शांतिपूर्ण अफ़ग़ानिस्तान की कल्पना करते हुए, क्या वह इसलिए लड़ते रहे, की एक दिन अपने देश को ध्वंस होते देखे, ट्विन टावर की इमारतों की तरह ।
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