अफ़ग़ानिस्तान मे "निरुद्देश्य" बलिदान क्यों?
अफ़ग़ानिस्तान मे "निरुद्देश्य" बलिदान क्यों?
Why Sacrificed for Nothing in Afghanistan? का हिन्दी रूपांतर
~ सोनू बिष्ट
बीस साल का लम्बा समय और नाटो (NATO ) सहयोगी अब वापिस जाने की शर्त रख रहे है । दुर्भाग्य वश अमेरिका बहुत जल्दी और तेजी से अफगानिस्तान छोड़ रहा है, जिससे यह क्षेत्र अति संवेदनशील बन गया है।
लगभग 1,25,000 नागरिक, 60 हजार अफगान सुरक्षा बल 6,000 अमेरिकी सैनिक, ठेकेदार और 1,100 नाटो देशों के लोग मारे जा चुके है । 20,600 लोग घायल और पोस्ट -ट्रोमैटिक स्ट्रेस डिसॉर्डर (PTSD ) से पीड़ित है।
( विभिन्न स्रोतो की संख्याएँ अलग - अलग है, किन्तु सभी एक ही क्रम में है)
मरने वाले तलिबनियों की संख्या का कोई सटीक अनुमान नहीं है। किन्तु यह करीब 50,000 के आस -पास आंके गए है, जिसमें आत्मघाती हमलावर बच्चे भी शामिल है, जिन्हें कथित तौर पर सुसाइड बॉम्बर बनने के लिए उकसाया
गया था ।
दोनों तरफ से मानव जीवन की स्थिति प्रलयंकारी रही है । 'युद्धकालीन' अपराध की सूची दोनों तरफ विपुल रही है । इराक की तरह अफ़ग़ानिस्तान भी 'दुष्टतम' युद्ध के कारण मानवीय संकट का केंद्र रहा है ।
हालांकि पिछले दो दशकों के आंकड़े अविश्वश्नीय रहे है, तथापि, यह आकड़े, अपने प्रियजनों को खोने वाले, परिवारों की पीड़ा को प्रतिबिंबित नहीं कर
सकते ।
अमेरिका ने लगभग एक ट्रिलियन डॉलर (करीब पिछतर लाख करोड़) अफ़ग़ानिस्तान पर खर्च किए, जिससे वह अपने ही देश में सभी छात्रों की शिक्षा और ट्युशन फीस मुफ्त करवा सकता था ।
अमेरिका का ध्यान मानव पीड़ा पर ना होकर अब, सिर्फ नाटो (NATO) सैनिकों को सुरक्षित बाहर निकालने पर केंद्रित है। यह इसलिए क्योकि पूंजीवादी के सिद्धांत के अनुसार एक पूंजीपति प्रत्येक ईकाई, पर जो खर्च करता है, उससे मुनाफ़ा कमाता है ।
तो क्या, कोई ऐसा है, जो नाटो और विशेष रूप से अमेरिका की कमाई का ब्यौरा रख रहा है?
युद्ध ने अफगानी गाँवों और परिवारों को बर्बाद करके रख दिया । ड्रोन हमलों में लोगों की पीढ़ियों तक का सफाया हो गया, कभी किसी गांव, कभी किसी शादी समारोह में ड्रोन हमला होना, ऐसी कई घटनाएं इनके साक्ष्य है ।
नाटो (NATO ) हमलों के वक़्त हज़ारों बच्चों का जन्म हुआ जो 'शांति की भोर' देखने से पहले ही मारे गए, कई अपंग हो गए और गरीबी में जीते रहे।
अफ़ग़ानिस्तान, आधुनिक समय में मानव तबाही का प्रतीक बन चूका है, इस अस्थिर क्षेत्र में युगों तक, यह अभाग्य चलता रहेगा ।
इस युद्ध में दो परस्पर विरोधी विचारधाराएं है, जिन्हें शांत करने के लिए कोई प्रयास नहीं किये गए । युद्ध में प्राण गवाने वाले सैनिक और निजी ठेकेदार, अपने परिवारों के लिए 'बेबदल' (irreplaceable) है ।
जब वे अफ़ग़ानिस्तान गए तो उनका 'ध्येय ' था, 9/11 के दोषियों को दंडित करना, और वहाँ एक नागरिक समाज की स्थापना करना ।
उन्हें इस बात का एहसास ही नहीं था की, वे निष्प्रयोजन मारे जायेंगे, किन्तु अब उनके परिवारों को यह एहसास हो गया है की, उनकी सरकारों की 'वंचना' (Deceit) ने उनसे उनके अपनों को जुदा कर दिया ।
स्थायी रूप से विकलांग हुए लोग हर कदम पर यह महसूस करते है की बिना किसी हित लाभ के वे इस युद्ध में उपयोग किये गए । वयोवृद्ध लोगों के पास आजीविका के रूप में, कुछ ही विकल्प बचे है जिससे वे, मानसिक एवं आर्थिक परेशानियों से गुजर रहे है ।
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किन्तु अब उनके परिवारों को यह एहसास हो गया है की, उनकी सरकारों की 'वंचना' (deceit) ने उनसे उनके अपनों को जुदा कर दिया
आज यह सभी प्रश्न एक 'कारण ' से उत्पन्न हो रहे है ।
हम आज भी वहीं है, जहां 20 साल पहले थे, अंतर केवल इतना है की आज नाटो (NATO) तालिबान के साथ शांति समझौते पर, बातचीत करना चाहता है ।
किन्तु, अगर दो दशक पहले अमेरिका और नाटो (NATO) सहयोगियों ने यह दृष्टिकोण अपनाया होता, तो अनेकों जानें बच जाती। दुनिया अब और अधिक खतरनाक जगह बन चुकी है ।
पश्चिम के प्रति, नफरत का प्रचार और आतंकवाद चरम सीमा पर है । यह स्थिति और अधिक भयावह होगी, क्योंकि नाटो (NATO) द्वारा इस 'निरुद्देश्य' युद्ध के कारण फैली, नकारत्मकता को आने वाली पीढ़ियाँ न भूलेंगी न माफ़ करेंगी ।
यह एक उपयुक्त अवसर है, तालिबान के लिए अपनी नफ़रत की आग में, अधिक लोगों को जोड़ने का ।
तो अगर अमेरिका और नाटो (NATO) सहयोगी यह सोचते है की शांति वार्ता, तालिबान को एक सकारात्मक रुख अपनाने पर मजबूर करेगी, तो इनकी यह कल्पना गलत है ।
तालिबान को शांति वार्ता को त्याग कर, हिंसक रूप से काबुल पर कब्ज़ा करने से कोई नहीं रोक पायेगा । सीमा पार से, पाकिस्तान ने उनका मनोबल बढ़ाया है और आर्थिक सहयोग भी किया है ।
दोनों के बीच "चमन स्पिन बोल्डक" (Chaman Spin Boldak) ) नामक व्यापार मार्ग, अब तालिबान के नियंत्रण में है। अमेरिका और पाकिस्तान कभी सहयोगी रहे हो, किन्तु अब और नहीं रहेंगे क्योंकि पाकिस्तान अब उसके लिए सदभाव नहीं रखता ।
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रक्षा और निगरानी उद्योग (Security surveillance industry) को, अफगान और ईरान युद्ध से लाभ हुआ है
रक्षा और निगरानी उद्योग (Security surveillance industry) को, अफगान और ईरान युद्ध से लाभ हुआ है । क्योंकि जब युद्ध शुरू हुआ था, तब ड्रोन (DRONE) नहीं थे, किन्तु अब वे दुश्मन के चप्पे- चप्पे पर नजर रख रहे है ।
अल-कायदा और तालिबान जैसे दुश्मनों के लिए ड्रोन एक प्राणघातक हथियार बन चूका है। घरेलू 'नगर -रक्षक' (Policing) और सुरक्षा प्रबंधन में भी, ड्रोन तकनीक का उपयोग बढ़ा है ।
हालाँकि ड्रोन तकनीक ने सीमाओं को, सुरक्षित और भविष्य में होने वाले हमलो से सतर्क रहने में मदद की है, किन्तु अगर यह गलत हाथों मे पड़ जाए तो खतरनाक प्रचलन बन जाएगी ।
इस युद्ध का दूसरा नतीजा है, अत्यधिक सतर्कता (High alert) जो पिछले बीस सालो से दुनिया महसूस कर रही है, हवाई अड्डों और अन्य महत्वपूर्ण संस्थापनों (Installations) में, कार्यरत सुरक्षाप्रणालियो ने इस दुनिया की एक तरह से किला बंदी कर दी है ।
मानव अनुरेखण (Tracing) वाले निगरानी कैमरों का उपयोग आम हो गया है। इस तरह से 9/11 हमलों के बाद, अधिनायक वादी राज्य का जन्म हुआ है, जो अब एक विशाल विरूप प्राणी (Giant monster )के रूप में बढ़ रहा है ।
2001 से पहले अफ़ग़ानिस्तान दुनिया के 11 % अफीम का उत्पादन करता था, उसके बाद अफीम का उत्पादन बढ़कर दुनिया की आवश्यकताओं का 93 % हो गया। यह केवल अफ़ग़ानिस्तान में नाटो (NATO) के विरुद्ध, तालिबान को 'निधि' देने के लिए है ।
अनाधिकारिक तौर पर अफीम वर्तमान में अफ़ग़ानिस्तान के 'सकल घरेलू उत्पाद' (GDP ) का 50 % हिस्सा है ।
अफ़ग़ानिस्तान को फिर से इस्लामिक अमीरात बनाने की बाते हो रही है, जैसे इराक से अमेरिका के बाहर निकलने के बाद ISIS का उदय हुआ, वैसा ही हालत यहाँ भी उत्पन्न हो रहे है ।
अफ़ग़ानिस्तान में मरने वाले पहले अमेरिकी सैनिक थे, नाथन रॉस चैपमैन (Nathan Ross Chapman) ।
अगर उनसे 2001 में पूछा जाता, कि क्या उनका बलिदान 2021 के अफ़ग़ानिस्तान में कोई परिणाम देगा, तो निश्चित ही वह इस युद्ध से बाहर निकलने का विकल्प चुनते। यही जवाब बाकी चार हज़ार सैनिकों का भी होता ।
जहाँ तक मारे गए अफ़ग़ानों की बात है, उनमें से बहुत, इतने युवा थे जिन्हें युद्ध की संकल्पना (Concept) तक की समझ नहीं थी, बाकी शेष बचे लोगों के पास वहाँ रहने के अलावा, कोई अन्य विकल्प नहीं था ।
जवाबदेही आखिर किसकी ?
युद्ध के विचार का समर्थन, और युद्ध की घोषणा करने वाले अब अपने पदों पर नहीं है । जॉर्ज बुश (George Bush ) अब राष्ट्रपति नहीं है, डोनाल्ड रम्सफेल्ड (Donald Rumsfeld ) मर चुके है, ब्रिटिश प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर (Tony Blair), जर्मन चांसलर गेरहार्ड स्क्रॉडर (Gerhard Schroeder) और अन्य सभी सेवानिवृत्त हो चुके है ।
अल-कायदा का नेता, ओसामा बिन लादेन, अमेरिकी अभियान में मारा गया । 9/11 के हमलों के वक़्त अल -कायदा को पनाह देने वाले तालिबानी नेता 'मुल्ला उमर' की भी प्राकृतिक कारणों से पाकिस्तान में मौत हो गयी ।
दो दशकों में तीन अमेरिकी राष्ट्रपति, चार ब्रिटिश प्रधानमंत्री और सेना के कई जनरल जा चुके है । तो आखिर यह किसका युद्ध था ?
आधुनिक इतिहास में यह कोई पहली बार नहीं था, की कोई युद्ध “निरुद्देश्य” लड़ा गया हो ।
द्वितीय विश्व युद्ध के बाद, ऐसे कई युद्ध नाटो (NATO ) और अमेरिका ने लड़े जो बिना किसी 'उपकारक' (favourable) परिणाम के समाप्त हुए, सोमालिया, वियतनाम युद्ध हो या इराक, अफ़ग़ानिस्तान युद्ध, सभी जगह दुनिया की सबसे परिष्कृत सशत्र देशों ने निराशाजनक परिणाम दर्ज करवाया ।
इनकी सेनाओं ने भी अनगिनत ज़िंदगियों को खोया, किन्तु फिर भी उनसे कोई सबक नहीं सीखा ।
अनगिनत कब्रों और उनके पीछे अकेले रह गए प्रियजनों, की आवाजें पूछ रही है "आखिर क्यों ?"
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