चीनी आत्मनिर्भरता भारत के लिए खतरा ?
चीनी आत्मनिर्भरता भारत के लिए खतरा ?
Chinese Atmanirbhar endangering India का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
चीन के हालिया *व्यापार डेटा (Trade data) ने वैश्विक आर्थिक परिदृश्य में हलचल मचा दी है। एक लाख करोड़ डॉलर (1 ट्रिलियन) से ज़्यादा के चौंका देने वाले * व्यापार अधिशेष (Trade surplus) के साथ, चीन ने वैश्विक व्यापार में खुद को प्रमुख खिलाड़ी के रूप में मज़बूती से स्थापित कर लिया है।
भारत के लिए यह आश्चर्यजनक खुलासा न केवल आर्थिक दृष्टि से एक चेतावनी है, बल्कि अपने उत्तरी पड़ोसी द्वारा पेश की गई बहुमुखी चुनौतियों की एक अप्रिय याद दिलाता है।
व्यापार और विनिर्माण से लेकर भूराजनीति तक, चीन की बढ़ती अर्थव्यवस्था के पहलुओं पर भारत को तत्काल ध्यान देने और कार्रवाई करने की आवश्यकता है।
डेटा विभाजन: दक्षता का सवाल
चीन ने सटीकता और दक्षता के साथ विस्तृत व्यापार डेटा जारी करना जारी रखा है, लेकिन भारत का बुनियादी आर्थिक आंकड़े उपलब्ध कराने का संघर्ष अभी भी जारी है यह स्पष्ट है क्योंकि, भारत सरकार ने महीनों से निर्यात-आयात डेटा जारी नहीं किया है,जिसमें अक्टूबर के आंकड़े अभी भी लंबित हैं।
यह देरी नियमित प्रणालीगत कमियों को दर्शाती है जो सूचित निर्णय लेने और नीति निर्माण में बाधा डालती हैं।
इससे पहले 2024 में मासिक जीएसटी (GST) संग्रह डेटा जारी करने में भी समस्या हुई थी।
इसके अलावा, भारत में समय पर जनगणना न होना, जो पिछली बार 2011 में की गई थी और 2021 में इसके निर्धारित अपडेट से देरी से हुई, समस्या को और बढ़ा देती है।
तीन साल की देरी से, इस महत्वपूर्ण जनसांख्यिकीय डेटा की अनुपस्थिति नीति निर्माताओं और *हितधारकों को देश के सामाजिक-आर्थिक परिदृश्य के अधूरे ज्ञान के साथ काम करने के लिए छोड़ देती है।
भारत की विकास गाथा असत्यापित है या अधिक से अधिक व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी द्वारा पेश की गई है।
शासन में ऐसी चूक चीन की सावधानीपूर्वक योजना बनाने के बिल्कुल विपरीत है। डेटा-संचालित रणनीतियों ने बीजिंग को अपनी नीतियों को सुधारने, प्रतिस्पर्धा में बढ़त बनाए रखने और वैश्विक बाजारों में आगे रहने की अनुमति दी है।
वे केवल चीनी निर्यात को लाभ पहुंचाने के लिए अपनी मुद्रा मूल्य का प्रबंधन करने में सक्षम रहे हैं।
दूसरी ओर, इसके विपरीत,भारत की कमियां, उसे अपने शक्तिशाली पड़ोसी द्वारा खड़ी की गई चुनौतियों का सामना करने के लिए तैयार नहीं करती हैं। भारत अभी भी रुपये बनाम डॉलर में रुपये को मजबूत बनाकर राष्ट्रवाद का दिवास्वप्न देख रहा है। यह मूर्खतापूर्ण लगता है।
1 ट्रिलियन डॉलर (एक लाख करोड़ डॉलर) के व्यापार अधिशेष को समझना
चीन का 1 ट्रिलियन डॉलर का व्यापार अधिशेष वैश्विक व्यापार में उसके प्रभुत्व का प्रमाण है।
इस आंकड़े को परिप्रेक्ष्य में रखें तो यह भारत के सकल घरेलू उत्पाद का लगभग एक तिहाई है, जो लगभग 249 लाख करोड़ रुपये ( 3 ट्रिलियन डॉलर ) है। इसके अलावा, अकेले चीन का अधिशेष पिछले तीन वर्षों में भारत के कुल व्यापार - निर्यात और आयात को मिलाकर - के बराबर है।
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भारत की विकास गाथा असत्यापित है या अधिक से अधिक व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी द्वारा पेश की गई है।
ये चौंकाने वाले आंकड़े दो शत्रुतापूर्ण पड़ोसी अर्थव्यवस्थाओं के बीच बढ़ती खाई को रेखांकित करते हैं।
चीन के साथ भारत के व्यापारिक संबंध भी चिंताजनक निर्भरता को दर्शाते हैं।
द्विपक्षीय व्यापार घाटा लगभग 7.5 लाख करोड़ रुपये (100 बिलियन डॉलर ) है, जिसमें भारत चीन से 121 बिलियन डॉलर का सामान आयात करता है जबकि बदले में उसे मात्र 1.35 लाख करोड़ भारतीय रुपये (18 बिलियन डॉलर) का निर्यात करता है।
यह असंतुलन भारत के मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत जैसे महत्वाकांक्षी अभियानों के बावजूद बना हुआ है, जिसका उद्देश्य घरेलू विनिर्माण को बढ़ावा देना और विदेशी आयात पर निर्भरता कम करना है।
इसके बजाय, चीन से आयात 2018 में 5.775 लाख करोड़ भारतीय रुपये (77 बिलियन डॉलर) से बढ़कर 2024 में 9.075 लाख करोड़ रुपये (121 बिलियन डॉलर) हो गया है, जबकि चीन को भारत का निर्यात लगभग 1.425 लाख करोड़ रुपये (19 बिलियन डॉलर) पर स्थिर है ।
ये आंकड़े एक कठोर वास्तविकता को उजागर करते हैं: भारत की विनिर्माण रणनीति वांछित आर्थिक मजबूती प्रदान करने में विफल हो रही है।
चीन ने अपनी उपलब्धि कैसे हासिल की
चीन की आर्थिक उपलब्धियां कोई संयोग नहीं हैं; वे दशकों की सुविचारित योजना और कार्यान्वयन का परिणाम हैं।
देश ने मजबूत घरेलू विनिर्माण क्षमताओं को विकसित करके आयात पर अपनी निर्भरता को व्यवस्थित रूप से कम किया है। यह बदलाव इसके घटते आयात-से-जीडीपी अनुपात और बढ़ते निर्यात-से-जीडीपी अनुपात में स्पष्ट है।
उन्होंने (चीनियों ने) कौशल सीखा है और इसके द्वारा उन वस्तुओं के उत्पादन की कला में महारत हासिल की है, जिनका वे कभी आयात करते थे। चीन ने न केवल अपनी घरेलू ज़रूरतें पूरी की हैं, बल्कि वैश्विक आपूर्तिकर्ता भी बन गया है।
इसका एक उदाहरण स्टील उत्पादन के प्रति चीन का दृष्टिकोण है। देश ब्राजील जैसे देशों से लौह अयस्क जैसे कच्चे माल का आयात करता है, उन्हें घरेलू स्तर पर संसाधित करता है, और फिर तैयार स्टील उत्पादों को वापस ब्राजील को निर्यात करता है।
यह अक्सर ब्राजील में स्टील बनने की तुलना में कम कीमत पर होता है। इस रणनीति ने दुनिया भर के उद्योगों को नुकसान पहुंचाया है, जिसमें यूरोप के उद्योग भी शामिल हैं, जहां चीनी स्टील डंपिंग के कारण टाटा स्टील जैसी फैक्ट्रियां बंद हो गई हैं।
चीन का प्रभुत्व उच्च तकनीक और उभरते उद्योगों तक फैला हुआ है। यह दुनिया के सबसे बड़े ऑटोमोबाइल निर्माता के रूप में संयुक्त राज्य अमेरिका से आगे निकल गया है और अब इलेक्ट्रिक वाहन (ईवी) उत्पादन में वैश्विक नेता है।
चीनी ईवी ने यूरोपीय बाजारों में बाढ़ ला दी है, जिससे टेस्ला जैसी स्थापित कंपनियों को खतरा पैदा हो गया है और यूरोपीय संघ को टैरिफ लगाने के लिए मजबूर होना पड़ा है।
इसी तरह, चीन सौर पैनल उत्पादन में अग्रणी है, जिसके घटक वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं पर हावी हैं, जिनमें भारत में उपयोग किए जाने वाले घटक भी शामिल हैं।
विश्व में 80% से अधिक डिजिटल स्क्रीन चीन में बनती हैं।
आर्थिक शक्ति से भू-राजनीतिक शक्ति तक
चीन का आर्थिक उत्थान उसकी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं से जुड़ा हुआ है। मेड इन चाइना (MADE IN CHINA) 2025 पहल रोबोटिक्स, सैन्य हार्डवेयर, कृत्रिम बुद्धिमत्ता और एयरोस्पेस जैसे उन्नत उद्योगों पर हावी होने के उसके इरादे को रेखांकित करती है।
चीन ने पहले ही अपना यात्री जेट विमान लांच कर दिया है, जिससे एयरबस और बोइंग जैसी कम्पनियों को चुनौती मिल रही है।
आश्चर्यजनक रूप से उनके स्टेल्थ फाइटर जेट आसमान में उड़ रहे हैं, साथ ही देश में सैकड़ों बुलेट ट्रेन जैसी अन्य नवाचार आधारित विकास की कहानियाँ भी आसमान में उड़ रही हैं।
यह रणनीति न केवल चीन को एक तकनीकी नेता के रूप में स्थापित करती है, बल्कि उसे अमेरिका, जापान और जर्मनी जैसी पारंपरिक शक्तियों को चुनौती देने में भी सक्षम बनाती है।
बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) चीन द्वारा अपने प्रभाव को बढ़ाने के लिए आर्थिक साधनों के रणनीतिक उपयोग का उदाहरण है।
एशिया, अफ्रीका और उससे आगे के क्षेत्रों में बुनियादी ढाँचे की परियोजनाओं को वित्तपोषित करके, चीन ने कई देशों को कर्ज के जाल में फंसाया है, जिससे उनकी आर्थिक निर्भरता बढ़ गई है।
भारत के लिए, BRI का उसके निकटतम पड़ोस - पाकिस्तान और श्रीलंका से लेकर बांग्लादेश, मालदीव और म्यांमार तक - में अतिक्रमण एक महत्वपूर्ण रणनीतिक सुरक्षा खतरा प्रस्तुत करता है।
सीमा पर लगातार होने वाली झड़पों के साथ-साथ चीन की आर्थिक और सामरिक चालें भारत के लिए बहुआयामी चुनौती पैदा करती हैं। भारत-चीन सीमा पर पहले से ही 77 हॉटस्पॉट हैं, जहां दोनों पड़ोसियों के बीच किसी न किसी तरह की झड़पें हुई हैं, जैसे ढोकलाम और गलवान घाटी में हुई झड़पें।
इसलिए, भारत की आर्थिक कमजोरियां, विशेष रूप से 'मेक इन इंडिया' के लिए चीनी आयात पर निर्भरता, आसानी से बीजिंग के लिए भू-राजनीतिक लाभ में तब्दील हो सकती है।
नवाचार और अनुसंधान एवं विकास की भूमिका
चीन की सफलता में एक महत्वपूर्ण कारक अनुसंधान और विकास (आरएंडडी) पर उसका ध्यान केंद्रित करना है। नवाचार में भारी निवेश करके, चीन ने ज्ञान-संचालित अर्थव्यवस्था का निर्माण किया है जो दुनिया के सबसे उन्नत देशों के साथ प्रतिस्पर्धा करने में सक्षम है।
इसके विपरीत, अनुसंधान एवं विकास में भारत का निवेश अभी भी अपर्याप्त है। नवाचार पर ध्यान केंद्रित न करने से देश की उच्च-मूल्य उद्योगों में प्रतिस्पर्धा करने की क्षमता कम हो जाती है, जिससे उसे महत्वपूर्ण प्रौद्योगिकियों और घटकों के लिए आयात पर निर्भर रहना पड़ता है।
भारत को यह समझना चाहिए कि अनुसंधान एवं विकास में मजबूत आधार के बिना आर्थिक आत्मनिर्भरता असंभव है।
सरकार को शिक्षा, वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी विकास में निवेश को प्राथमिकता देनी चाहिए ताकि ज्ञान पारिस्थितिकी तंत्र का निर्माण किया जा सके जो दीर्घकालिक विकास और प्रतिस्पर्धा को बढ़ावा दे सके।
हाल ही में, भारत में इंजीनियरों और विज्ञान स्नातकों की खराब गुणवत्ता देखी जा रही है, जो उद्योगों के लिए उपयुक्त नहीं हैं।
इतिहास से सीखना
चीन की आर्थिक प्रगति, 20वीं सदी के आरंभ में - 1800 और 1900 के दशक में - जर्मनी के औद्योगिक महाशक्ति के रूप में उदय से काफी मिलती-जुलती है।
जर्मनी के विनिर्माण क्षेत्र में प्रभुत्व ने उसकी भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं को बढ़ावा दिया, जिसके कारण अंततः प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध जैसे वैश्विक संघर्ष हुए।
इसी तरह, चीन की बढ़ती आर्थिक ताकत वैश्विक शक्ति गतिशीलता को नया आकार दे रही है, जिसकी महत्वाकांक्षाएँ व्यापार से कहीं आगे तक फैली हुई हैं। यह सभी के लिए और खास तौर पर भारत के लिए चेतावनी है।
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भारत-चीन सीमा पर पहले से ही 77 हॉटस्पॉट हैं, जहां दोनों पड़ोसियों के बीच किसी न किसी तरह की झड़पें हुई हैं
इतिहास उन देशों के लिए चेतावनी भरी कहानियाँ भी प्रस्तुत करता है जो अनुकूलन करने में विफल रहते हैं। उदाहरण के लिए, अमेरिका और ब्रिटेन ने 2000 से 2012 के बीच आउटसोर्सिंग पर निर्भरता के कारण चीन के हाथों लाखों विनिर्माण नौकरियाँ खो दीं।
यदि भारत ने चीन के प्रति अपनी आर्थिक कमजोरियों का समाधान नहीं किया तो उसे भी इसी प्रकार का खतरा है।
चेतावनी !
भारत चीन द्वारा पेश की गई चुनौतियों का सामना करने में देरी नहीं कर सकता। घरेलू उद्योगों को मजबूत करने, आयात पर निर्भरता कम करने और आर्थिक लचीलापन लाने के लिए एक व्यापक रणनीति की आवश्यकता है। जिसमे इन प्रमुख कदमों में शामिल किया जाना चाहिए:
1. 'दोषपूर्ण' विनिर्माण नीतियों का पुनः निर्माण: मेक इन इंडिया से वास्तविक मेड इन इंडिया दृष्टिकोण की ओर परिवर्तन , जिसमें स्थानीय उत्पादन और मूल्य संवर्धन पर जोर दिया जाए।
2. अनुसंधान एवं विकास निवेश को बढ़ाना: नवाचार और तकनीकी आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए अनुसंधान और विकास के लिए महत्वपूर्ण संसाधन आवंटित करें।
3. शासन को सुव्यवस्थित करना: साक्ष्य-आधारित नीति निर्माण को सक्षम करने के लिए डेटा संग्रह, पारदर्शिता और दक्षता में सुधार करें। जनता को यह जानने का अधिकार है कि उनका आर्थिक डेटा कैसा दिखता है।
उदाहरण - भारत की वास्तविक जनसंख्या कितनी है - यह केवल अनुमान है।
4. व्यापार नीतियों को मजबूत बनाना: लक्षित प्रोत्साहनों और बाजार पहुंच पहलों के माध्यम से निर्यात को बढ़ावा देते हुए घरेलू उद्योगों को अनुचित प्रतिस्पर्धा से बचाने के उपायों को लागू करना।
भले ही दुनिया के दूसरे देश इसके खिलाफ़ आवाज़ उठाएं, लेकिन संरक्षणवाद समय की मांग है। डोनाल्ड ट्रम्प 2.0 भी अपने "अमेरिका प्रथम" (America First) सिद्धांत में अमेरिकी संरक्षणवाद का आह्वान कर रहे हैं।
भारतीयों को यह समझना होगा कि चीन का व्यापार प्रभुत्व महज एक आर्थिक आंकड़ा नहीं है; यह वैश्विक शक्ति गतिशीलता में बदलाव की भविष्यवाणी भी है।
भारत के लिए इससे बड़ा जोखिम और कुछ नहीं हो सकता। चीन पर आर्थिक निर्भरता न केवल भारत की आर्थिक संप्रभुता को कमजोर करती है, बल्कि इसकी *सामरिक स्वायत्तता (Strategic autonomy) को भी कमजोर करती है।
भारत को इस अवसर का लाभ उठाना चाहिए (विशेषकर कोविड के बाद) ताकि वह अपनी आर्थिक और रणनीतिक नीतियों में परिवर्तन ला सके, उनमें लचीलापन ला सके और वैश्विक व्यवस्था में अपना उचित स्थान सुनिश्चित कर सके।
लेकिन भारत में मंदी आने तथा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश (FDI) के पलायन के संकेत मिल रहे हैं।
ऐसा करने में अगर भारत विफल होता है तो, भविष्य में, चीन की लगातार बढ़ती शक्ति उसपर भारी पड़ सकती है, जिससे उसकी आर्थिक सुरक्षा, भू-राजनीतिक स्थिति और अंततः संप्रभुता को भी खतरा हो सकता है।
* एक ऐसी स्थिति जिसमें एक देश दूसरे देशों से जितना खरीदता है, उससे अधिक दूसरे देशों को बेचता है : वह धनराशि जिससे किसी देश का निर्यात उसके आयात से अधिक होता है
*व्यापार डेटा, अंतरराष्ट्रीय व्यापार से जुड़ा सांख्यिकीय डेटा होता है. इसमें आयात और निर्यात से जुड़ी जानकारी शामिल होती है. व्यापार डेटा का इस्तेमाल सरकारें, निगम, निर्माता, कानूनी फ़र्म, व्यापार संघ, और अंतरराष्ट्रीय संगठन करते हैं.
व्यापार डेटा से जुड़ी कुछ खास बातें:
व्यापार डेटा को आयात और निर्यात सांख्यिकी भी कहा जाता है.
व्यापार डेटा में देश, समय अवधि, और कमोडिटी (एचएस कोड) के हिसाब से जानकारी होती है.
व्यापार डेटा से अंतरराष्ट्रीय व्यापार की प्रवृत्तियों का पता चलता है.
व्यापार डेटा से उभरते रुझानों की पहचान होती है.
व्यापार डेटा से वैश्विक प्रतिस्पर्धात्मकता का पता चलता है.
व्यापार डेटा से व्यापारिक निर्णय लेने में मदद मिलती है.
*हितधारक (Stakeholders) ऐसे व्यक्ति या समूह होते हैं जिनका किसी संगठन, परियोजना, या निर्णय में निवेश, दिलचस्पी, या भागीदारी होती है।
वे उस संगठन, परियोजना, या निर्णय के परिणामों से प्रभावित हो सकते हैं या उन्हें प्रभावित कर सकते हैं। हितधारकों का व्यापक दायरा हो सकता है, जैसे:
- कर्मचारी: जो उस संगठन के लिए काम करते हैं और उसकी सफलता से सीधे जुड़े होते हैं।
- ग्राहक: जो उत्पाद या सेवाएं खरीदते हैं और गुणवत्ता और सेवा से प्रभावित होते हैं।
- शेयरधारक: जो संगठन में वित्तीय निवेश करते हैं और उसके वित्तीय प्रदर्शन से प्रभावित होते हैं।
- आपूर्तिकर्ता: जो संगठन को सामान या सेवाएं प्रदान करते हैं और उसकी स्थिरता से प्रभावित होते हैं।
- स्थानीय समुदाय: जो संगठन के संचालन के कारण पर्यावरणीय, सामाजिक, और आर्थिक प्रभावों को महसूस कर सकते हैं।
हितधारकों के विचार और आवश्यकताएं संगठन के निर्णयों और नीतियों को प्रभावित कर सकती हैं। हितधारकों के बीच अच्छे संबंध बनाए रखना संगठन की दीर्घकालिक सफलता के लिए महत्वपूर्ण होता है।
* सामरिक स्वायत्तता : यह किसी राष्ट्र/राज्य की अपने राष्ट्रीय हितों को आगे बढ़ाने तथा अन्य राष्ट्रों/राज्यों द्वारा किसी भी तरह से बाधित हुए बिना अपनी पसंदीदा विदेश नीति अपनाने की क्षमता को दर्शाता है।
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