'भारत का डॉक्टर- इंजीनियर पेशा सिद्धान्त
'भारत का डॉक्टर- इंजीनियर पेशा सिद्धान्त
Engineer – Doctor Career Theory of India का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
भारत के स्वतंत्रता संग्राम की शुरुआत "पूर्ण स्वराज" और "स्वदेशी आंदोलन" के नारों से हुई। मोटे तौर पर इसका मतलब था कि, भारतीयों ने भारत में अपने द्वारा बनाई गई वस्तुओं का उपयोग करके एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पूर्ण स्वराज्य की मांग की।
उस समय तक, इतिहास ने यही सिखाया था कि भारत औपनिवेशिक शक्तियों का गुलाम बना रहेगा, क्योंकि, एक राष्ट्र के रूप में 'भारत' आत्मनिर्भर नहीं था।
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ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के वर्षों में, भारतीय उद्यमशीलता और शैक्षिक क्षमताओं को जानबूझकर खत्म किया गया
ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन के वर्षों में, भारतीय उद्यमशीलता और शैक्षिक क्षमताओं को जानबूझकर खत्म किया गया। उसे अब भोजन और कपड़े जैसी आवश्यकताएं प्रदान करने के लिए ब्रिटिश औपनिवेशिक अधिकारियों पर निर्भर रहना पड़ा।
उस रणनीतिक कमी ने उन सभी भावी नीतियों की नींव रखी,जिन्हें , भारत ने एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में निर्णय लेकर आरम्भ करने का सोचा था। यह आत्मनिर्भरता प्राप्त करने और हर तरह से स्वतंत्र होने के बारे में था।
यह समझने के लिए कि भारत में अनौपचारिक दो -शाखा (इंजीनियर-डॉक्टर) रोजगार नीति क्यों थी, हमें स्वतंत्रता के समय की स्थिति को समझना होगा।
वह ऐसा समय था, जब भारत 1947,आजादी के बाद सामाजिक और आर्थिक रूप से संघर्ष कर रहा था। कुछ ही आधुनिक कारखाने थे, बुनियादी ढांचा खराब था, और राष्ट्र उच्च स्तर की दीर्घकालीन गरीबी से जूझ रहा था।
जबकि किसान समाज का सबसे पिछड़ा वर्ग था, कमजोर और कुपोषित 'बैल' उनके खेतों को जोतते थे। विकास के नाम पर शायद ही कोई बुनियादी ढाँचा था। गरीबी के कारणों में से एक 'औपनिवेशिक उत्पीड़न' के साथ, उच्च निरक्षरता दर भी एक कारण था ।
यह भी स्पष्ट रूप से समझ आ चुका था कि, यदि भारत वास्तव में स्वतंत्र होना चाहता है, तो उसे आत्मनिर्भर होना होगा और इसे ईस्ट इंडिया कंपनी जैसे किसी भी चतुर व्यापारी का उपनिवेश नही बनने देने होगा ।
इसलिए स्वतंत्र भारत की जनसंख्या का सामाजिक रूप से उत्थान करके राष्ट्र निर्माण का 'लक्ष्य' आया।
रोजगारों के 'उद्देश्य' ने राष्ट्र के पुनर्निर्माण के उस समय में अपनी 'जड़' देखीं, जो औपनिवेशिक उत्पीड़न और लूटपाट के ढाई सदियों के बाद आत्मनिर्भर होने का प्रयास कर रहा था।
भारत ने 'स्वदेशी उत्पादों और प्रौद्योगिकी' के निर्माण की नींव रखकर, आत्मनिर्भरता के लिए जागरूक मार्ग अपनाया।
विकास नीति बुनियादी ढांचे के पुनर्निर्माण और उत्पादन क्षमताओं को बढ़ाने पर आधारित थी। इसलिए, ये दोहरा मौलिक उद्देश्य विकास नीति में अंतर्निहित था ।
देश को अधिकाधिक लोगों के, व्यवसाय में होने की आवश्यकता थी। औद्योगीकरण की दिशा में एक साहसिक कदम में, दीर्घकालिक सतत विकास का समर्थन करने के लिए विज्ञान का उपयोग करके शिक्षा प्रणाली को उन्नत करना आवश्यक था।
यदि राष्ट्रीय विकास नीति का आधार विज्ञान और प्रौद्योगिकी था, तो शिक्षा को स्वाभाविक रूप से उन आवश्यकताओं को सम्मिलित करना ही था।
आजादी के बाद के पहले दशक में, अगर लाखों तकनीकी जनबल (Workforce) की आवश्यकता होती, तो वे कहाँ से आते? इसके साथ साथ, उन लाखों गांवों में अभावग्रस्त आबादी की देखभाल के लिए लाखों की संख्या में स्वास्थ्य कर्मियों की आवश्यकता थी।
इन कमियों को दूर करने के लिए, सरकार का स्वाभाविक रूप से ध्यान, इंजीनियरिंग विज्ञान और चिकित्सा विज्ञान की शिक्षा पर था।
क्या गलत हो गया?
चूंकि देश के विकास का ध्यान औद्योगीकरण पर आधारित था, इसलिए अन्य रोजगारों के अवसर सीमित थे। कहीं न कहीं, समाज ने विज्ञान में रोजगार को व्यक्तियों की क्षमताओं(योग्यताओं) से जोड़ना शुरू कर दिया, जिससे वे रोजगार 'वित्तीय सुरक्षा' प्रदान करें।
इस गलत 'कारण कार्य सिद्धांत' ने सामाजिक मनोवृत्ति को विकृत करके रख दिया।
आज की स्थिति में 'इंजीनियरिंग और चिकित्सा' पेशेवरों की 'अधिपूर्ति ' (Oversupply) है, जिससे बेरोजगारी बढ़ रही है। 2021 के सर्वे के मुताबिक हर साल दस लाख (दस लाख) इंजीनियर और करीब 50,000 एमबीबीएस, स्नातक डिग्री लेते हैं।
तथापि, इन कोर्स के सस्ते होने के कारण, इंजीनियरों और डॉक्टरों के बड़े पैमाने पर उत्पादन ने गुणवत्ता को कम कर दिया है और इसलिए यह, बड़े पैमाने पर बेरोजगारी का एक कारण है।
इसलिए आजीविका के लिए लोगों ने ऐसी नौकरियां ली हैं, जिनका विज्ञान के क्षेत्र से कोई संबंध नहीं है। आज, 'इंजीनियरिंग और चिकित्सा' स्नातक, मनोरंजन उद्योग, वित्त और बैंकिंग, खुदरा प्रबंधन, लोक प्रशासन आदि में काम कर रहे हैं।
एक प्रचलित रोजगार मार्ग, प्रबंधन में मास्टर इन बिजनेस एडमिनिस्ट्रेशन (एमबीए) के माध्यम से है। हालांकि, इस क्षेत्र में भी मिश्रित कम गुणवत्ता के साथ अधिक आपूर्ति होती है।
एआईएमए के अनुसार, तीन लाख प्रबंधन छात्र सालाना स्नातक डिग्री लेते हैं, लेकिन केवल 10% ही रोजगार योग्य होते हैं।
यह किसी व्यक्ति की क्षमता(योग्यता) पर सवाल नहीं है अगर वह इंजीनियरिंग या चिकित्सा पेशे के रोजगार में आगे बढ़ने में असमर्थ है। यह एक गंभीर बेमेल है इन पेशेवरों की आपूर्ति-मांग के बीच ।
लेकिन सामाजिक मनोवृत्ति इसी में फँसी हुई है कि, 'इंजीनियरिंग और चिकित्सा' लाभ के रोजगार है।
दो- शाखा रोजगार के खिलाफ बग़ावत क्यों?
हाल ही में, इंजीनियरिंग और मेडिकल शाखाओं के प्रति व्यंग्य किया गया है। दुर्भाग्य से, लाखों लोग अब भी अनुपयुक्त सामाजिक बदनामी और अपराधबोध के साथ जी रहे हैं। वे सामाजिक भ्रांति के 'शिकार व्यक्ति' से ज्यादा और कुछ नहीं हैं।
समाज में, एक व्यक्ति के इस अनुपयुक्त स्थान पर होने का परिणाम, विद्रोह के रूप में निकला। इसके फलस्वरूप छात्र, पूरी चेतना के साथ, अन्य रोजगार विकल्पों की खोज कर रहे हैं।
इंजीनियरिंग, चिकित्सा पेशे और विज्ञान को पाने की कोशिश, सामान्य रूप से, उत्साह खो रही है। एक ओर निराशा है, और दूसरी ओर वैकल्पिक रोजगार के अवसरों की उपलब्धता ।
पिछले कुछ वर्षों में, भारत में आर्थिक विकास के कारण, समाज में मूलभूत परिवर्तन हुए हैं। कई वर्षों की आधारभूत वृद्धि और विकास के बाद, परिवारों ने वित्तीय साधन और संसाधन इकठ्ठा किए हैं।
वे अब वैकल्पिक रोजगार विकल्प तलाश सकते हैं, उद्यमशीलता का जोखिम उठा सकते हैं, और फिर भी गरीबी में नहीं फिसलेंगे।
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निस्संदेह, अर्थव्यवस्था को जनसंख्या का समर्थन करने के लिए संबद्ध व्यवसायों की आवश्यकता है
निस्संदेह, अर्थव्यवस्था को जनसंख्या का समर्थन करने के लिए संबद्ध व्यवसायों की आवश्यकता है; इसलिए, जैसे-जैसे पेशेवर जटिलताएं बढ़ रही हैं, अन्य शाखाओं को उचित सम्मान मिल रहा है।
संबद्ध व्यवसायों में कानून, लेखाशास्त्र (Accountancy), भाषा और साहित्य, पत्रकारिता, इतिहास और पुरातत्व, कला और प्रदर्शन कला, मनोरंजन, विपणन आदि शामिल हैं।
वैश्वीकरण के साथ, भारत के बाहर भी विकल्प असीम (Immense) हैं। लेकिन वे केवल विदेशी श्रम बाजार द्वारा निर्धारित मांग तक ही सीमित हैं। आमतौर पर, आवश्यकता उच्च गुणवत्ता वाले पेशेवरों के लिए होती है।
साथ ही, भारत में विदेशी निवेश रोजगार के अवसरों की नई शाखाएं ला रहा है, जो जरूरी नहीं कि भारतीय बाजार को बढ़ावा देंगे।
वे न तो विज्ञान में योग्यता के लिए विवश करते हैं। बजाय इसके , उनका विदेशों में बाजार की स्थितियों पर ध्यान केंद्रित हैं। उदाहरण के लिए, भारत की तुलना में मध्य पूर्व में अधिक निर्माण श्रमिकों की आवश्यकता है या अमेरिका और यूरोप में विदेशी कंपनियों के लिए कॉल-सेंटरों के एजेंटों के रूप में कार्य करने के लिए ।
सभी क्षेत्रों में विज्ञान की 'मूलभूत' बातों की जानकारी आवश्यक हैं। संबद्ध क्षेत्र को भी विज्ञान की आवश्यकता है, हालांकि उसके उतने गहरे सिद्धांतों की नहीं, जैसे एक विज्ञान के स्नातक को होती है।
उदाहरण के लिए, मोबाइल फोन का उपयोग करने वाले लोग नेटवर्क संकल्पना को समझ चुके हैं और डिजिटल संचार में गहन जानकारी रखते हैं।
डिलीट, अपलोड, मेमोरी, पावर ऑन-ऑफ, बैटरी यूसेज, ऐप्स (एप्लिकेशन), सॉफ्टवेयर, और अन्य वैज्ञानिक शब्द एक सामान्य व्यक्ति के जीवन में चुपचाप प्रवेश कर गए ,यहां तक कि बिना उन्हें एहसास दिलवाएं।
यदि आप ध्यानपूर्वक देखें, तो यह विज्ञान ही है, जो वर्तमान समय में केंद्र में है, और दुनिया को अभी भी बहुत से वैज्ञानिक स्वभाव वाले लोगों की आवश्यकता है। यही विकास का प्रारम्भ है।
आज चिकित्सा विज्ञान लगभग 70% इंजीनियरिंग, 25% रसायन विज्ञान और केवल 5% मानव शरीर रचना विज्ञान है।
आक्रामक उपकरण, कैमरा और संवेदक (Sensors), प्रतिबिंबन(Imaging), फार्मा, कृत्रिम सर्जरी, डीएनए और आरएनए अनुसंधान आदि के लिए चिकित्सा विज्ञान के साथ इंजीनियरिंग की गहन परस्पर क्रिया की आवश्यकता होती है।
उदाहरण के लिए, लेखाकारों (Accountants) को उचित लेखांकन (Accounting) करने और लाभप्रदता को सुनिश्चित करने के लिए इंजीनियरिंग और चिकित्सा विज्ञान के विस्तृत ज्ञान की आवश्यकता होती है।
आधुनिक समय में, लेखांकन, 'बहीखाता पद्धति' जितना सरल नहीं है, जैसा कि कुछ दशक पहले हुआ करता था। उन्हें भी, निर्माण , इंजीनियरिंग और व्यावसायिक प्रक्रियाओं में गहन जानकारी की आवश्यकता होती है, जो इसमें उनकी सहायता करता हैं।
एक अन्य उदाहरण के रूप में, अस्पतालों के लिए काम करने वाले लेखाकारों के मामले में भी ऐसा ही है।
उन्हें बीमारियों, उपचारों, दवाओं, चिकित्सा उपकरणों और सामग्रियों और उस पेशे में किसी अन्य व्यक्ति की तरह ही, विशिष्ट व्यावसायिक प्रक्रियाओं के बारे में जानकार होना चाहिए।
व्यावसायिक प्रक्रियाओं को समझने का महत्वपूर्ण हिस्सा पृष्ठभूमि में चल रहे विज्ञान को जानना है।
इसी तरह, लेखा(ऑडिट) सेवाओं में कार्यरत लोगों को उस पेशे के पेशेवरों से अधिक जानकार होना चाहिए ।
मनोरंजन उद्योग लगभग 90% प्रौद्योगिकी प्रयोग और इसके व्यवहारिक उपयोग के लिए स्नातक होने की दिशा में है। एनिमेशन, आभासी वास्तविकता (वर्चुअल रियलिटी), ध्वनि जोड़तोड़, विशेष प्रभाव और वीडियो संपादन ने पारंपरिक स्टूडियो पर कब्जा कर लिया है।
कई ब्लॉकबस्टर फिल्में 'ग्राफिक एडिटिंग' के लिए पूरी तरह से हाई-एंड स्पेशल इफेक्ट्स और तकनीक का उपयोग करके बनाई गई हैं।
समय के साथ, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का योगदान तेजी से बढ़ेगा।
भविष्य हमारे दैनिक जीवन में विज्ञान को देखेगा, और विज्ञान के क्षेत्र से कोई भी अप्रिय चीज समाज को तबाह कर देगी।
यदि हमारा जीवन विज्ञान में इतनी गहराई से स्थापित है, तो क्यों न विज्ञान को अनिवार्य शिक्षा के रूप में मुख्यधारा में लाया जाए? क्यों न विज्ञान की शिक्षा को प्रारंभिक शिक्षा के रूप में शुरू किया जाए?
आधुनिक समय में विज्ञान और प्रौद्योगिकी को किसी अन्य क्षेत्र से अलग देखने का कोई मतलब नहीं है। दस साल की शिक्षा के बाद विज्ञान की शाखा को अलग करना एक स्वस्थ नीति नहीं है।
बजाय इसके , विज्ञान और प्रौद्योगिकी को 21वीं सदी में दैनिक जीवन जीने के लिए आवश्यक अनिवार्यता के रूप में देखा जाना चाहिए।
भविष्य
आज, भारत की ताकत अतीत की वैज्ञानिक शिक्षा पर अपना ध्यान केंद्रित करने में निहित है। 2022 तक, फॉर्च्यून की 500 कंपनियों में 39 भारतीय मुख्य कार्यकारी अधिकारी (CEO) हैं।
इसी तरह, शीर्ष अधिकारियों (CXOs) की संख्या असंख्य है। ये संख्याएं 1947 से व्यापक रूप से कम लागत वाली 'विज्ञान की शिक्षा' पर भारत के ध्यान के केंद्रित होने को दर्शाती हैं।
जहां तक अर्थशास्त्र का सवाल है, चाहे वह "मेड इन इंडिया" हो या "मेक इन इंडिया", उपलब्ध गुण सम्पन्न संसाधनों का विशाल सामूहिक लाभकोष, भारत को विदेशी निवेश के लिए एक आदर्श गंतव्य स्थान बनाता है।
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नई तकनीक के अनुरूप बदलना और बुनियादी समझ ,ये दोनों गुण, भारत को एक बहुत ही गतिशील समाज बनाते है
नई तकनीक के अनुरूप बदलना और बुनियादी समझ ,ये दोनों गुण, भारत को एक बहुत ही गतिशील समाज बनाते है। प्रौद्योगिकी, विशेष रूप से उपभोक्ता प्रौद्योगिकी को शीघ्र अपनाने ने भारत को एक खुला बाजार बना दिया है जिसने वैश्विक उद्यमियों को आकर्षित किया है।
चीन और जर्मनी, अन्य समकालीन देश हो सकते हैं जो भारत की तरह प्रौद्योगिकी अपनाने के साथ प्रतिस्पर्धा करते हैं। भारत और चीन के बीच विज्ञान-केंद्रित शिक्षा इस उपभोक्ता व्यवहार को संचालित करने वाला सामान्य कारक है।
समाज के सभी उम्र और वर्गों के भारतीयों द्वारा उनके जीवन में मोबाइल और डिजिटल प्रौद्योगिकी के उपयोग के प्रवेश को कोई भी देख सकता है । चाहे वह मोबाइल बैंकिंग हो, ई-कॉमर्स हो, डिजिटल मीडिया के माध्यम से शिक्षा हो या सोशल मीडिया के माध्यम से, इन सबका उपयोग दुनिया में सबसे अधिक यहां है।
हालाँकि बड़ी आबादी अभी भी विज्ञान की शिक्षा प्राप्त नहीं कर पाई है, केवल अपनी शक्ति में विश्वास करते हुए, 'विज्ञान की स्वीकार्यता' ने समाज को इसे 'जल्दी अपनाने' के करीब लाकर खड़ा किया है।
परिणामस्वरूप, पिछले दशक ने सामान्य ज्ञान, बैंकिंग क्षमताओं, क्रय निर्णयों, शिक्षा विकल्पों और जीवन की गुणवत्ता में जनसंख्या की भारी वृद्धि को देखा है।
विज्ञान शाखा रोजगारों के खिलाफ जनसाधारण की बग़ावत के रुझान ने संभावित खतरे के संकेत दिए हैं। स्कूली शिक्षा के शुरुवाती विकासकालीन वर्षों में विज्ञान की शिक्षा को रोक देना, शाखाओं को विज्ञान और गैर-विज्ञान शाखाओं के रूप में विभाजित करना, देश के विकास की मज़बूती को कम करेगा।
शिक्षा को एक विज्ञान शाखा और अन्य के रूप में पृथक करने के बजाय, सरकार को अपनी शिक्षा का आधार विज्ञान-केंद्रित रखना चाहिए, जिसके चलते विज्ञान और प्रौद्योगिकी पर समाज के लिए एक ठोस नींव रखी जा सके।
इसके अलावा, इंजीनियरिंग पाठ्यक्रमों में सुधार करने और अन्य संबद्ध शाखाओं से इसे जोड़ने की भी आवश्यकता है।
आने वाले समय में, अंतर्संबंध और परस्पर निर्भरता, विज्ञान और प्रौद्योगिकी को अन्य सभी व्यवसायों के साथ तेज़ी से परस्पर क्रिया करवाएगी।
इसलिए, भारत को अपने संसाधनों को तैयार करना चाहिए, अगर वह आत्मनिर्भर रहना चाहता है।
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