असमान परमाणु व्यवस्था: ईरान, जिसने परमाणु अप्रसार संधि (NPT) पर हस्ताक्षर किए हैं, उसे परमाणु हथियार विकसित करने से रोका जाता है, जबकि इज़राइल, भारत और पाकिस्तान जैसे गैर-हस्ताक्षरकर्ता देश स्वतंत्र रूप से उनका स्वामित्व रखते हैं. यह वैश्विक परमाणु नियमों के असमान प्रवर्तन को उजागर करता है.
1979 के बाद अविश्वास: ईरान की 1979 की इस्लामी क्रांति और उसकी पश्चिमी-विरोधी, इज़राइल-विरोधी विचारधारा ने उसे पश्चिम के एक परमाणु सहयोगी से इज़राइल के लिए विशेष रूप से एक अस्तित्वगत खतरे में बदल दिया.
इज़राइल का रणनीतिक विरोध: इज़राइल एक परमाणु-सशस्त्र ईरान को अपने अस्तित्व के लिए सीधा खतरा मानता है और उसने एक सक्रिय सिद्धांत (proactive doctrine) अपनाया है, जिसमें गुप्त और सैन्य तरीकों से ईरान के परमाणु कार्यक्रम में तोड़फोड़ की जाती है.
अमेरिका-ईरान टकराव बढ़ा: ईरान के अंदर हाल ही में हुए अमेरिकी हमले ने एक खतरनाक वृद्धि को चिह्नित किया है, जिससे संघर्ष प्रतिबंधों और बयानबाजी से परे सीधे सैन्य टकराव में चला गया है.
ईरान के लिए निर्णायक मोड़: कूटनीति के विफल होने और निवारण के असफल होने के साथ, ईरान परमाणु हथियारों पर अपने लंबे समय से चले आ रहे संयम पर फिर से विचार कर सकता है, जिससे संभावित रूप से क्षेत्र एक परमाणु हथियारों की दौड़ या व्यापक संघर्ष की ओर बढ़ सकता है.
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दिलचस्प बात यह है कि ईरान ने अभी तक आधिकारिक तौर पर परमाणु हथियार नहीं बनाए हैं, हालांकि उसके पास ऐसा करने की तकनीकी क्षमता है.
ईरान के सर्वोच्च नेता अयातुल्ला अली खामेनेई ने तो एक फतवा जारी किया है जिसमें परमाणु हथियारों को इस्लामी कानून के तहत 'हराम' (वर्जित) बताया गया है.
लेकिन, रणनीतिक विचार भी उतने ही महत्वपूर्ण हैं. परमाणु बम हासिल करने से ये हो सकता है:
ईरान पर कई देशों द्वारा प्रतिबंध
इज़राइल और अमेरिका से सैन्य हमले
कूटनीतिक अलगाव
हालांकि, बार-बार उकसावे और प्रतिबंधों के बावजूद, ईरान के अंदर ही कुछ आवाज़ें उठने लगी हैं कि क्या यह संयम काम आया है.
कुछ विश्लेषकों का तर्क है कि खामेनेई को एक दिन परमाणु निवारण न बनाने का पछतावा हो सकता है, जब उनके पास ऐसा करने का रणनीतिक अवसर था.
उनका मानना है कि ईरान का हश्र इराक के सद्दाम हुसैन और लीबिया के कर्नल गद्दाफी जैसा हो सकता है, जबकि उत्तर कोरिया हवाई हमलों की धमकी से अछूता है.
अमेरिका और ईरान के बीच दशकों से चला आ रहा शीत युद्ध हाल ही में एक नए खतरनाक मोड़ पर पहुंच गया, जब अमेरिका ने ईरानी धरती पर एक सैन्य हमला किया.
यह कोई प्रॉक्सी संघर्ष या साइबर ऑपरेशन नहीं था, बल्कि एक सीधा हमला था जिसने लंबे समय से चली आ रही एक 'रेड लाइन' को तोड़ दिया.
ईरान ने जवाबी कार्रवाई की कसम खाई है. जवाबी कार्रवाई के संभावित परिदृश्यों में शामिल हैं:
इराक, सीरिया या खाड़ी में अमेरिकी ठिकानों पर हमले
होरमुज़ जलडमरूमध्य का बंद होना, जिससे वैश्विक तेल का 20% गुज़रता है।
हिजबुल्लाह या अन्य क्षेत्रीय मिलिशिया का उपयोग करके प्रॉक्सी युद्ध
अमेरिका के सहयोगी देशों में तेल बुनियादी ढांचे की तोड़फोड़
हालांकि, इनमें से हर विकल्प से आगे और ज़्यादा तनाव बढ़ने का खतरा है.
सीधे हमले अमेरिकी जवाबी कार्रवाई को उचित ठहरा सकते हैं. तेल मार्गों को बंद करने से वैश्विक शक्तियां तेहरान के खिलाफ एकजुट हो सकती हैं. यहां तक कि प्रॉक्सी हमले भी नकारात्मक परिणाम ला सकते हैं.
डोनाल्ड ट्रम्प के राष्ट्रपति पद के दौरान, ईरान के प्रति अमेरिकी नीति आक्रामक रुख और कूटनीति के अस्पष्ट प्रस्तावों के बीच झूलती रही.
ट्रम्प ने एकतरफा रूप से 2015 के संयुक्त व्यापक कार्य योजना (JCPOA) से खुद को अलग कर लिया, जो एक ऐतिहासिक समझौता था जिसने प्रतिबंधों में छूट के बदले ईरान के परमाणु कार्यक्रम पर सख्त सीमाएं लगाई थीं.
उनके प्रशासन ने इसके बजाय "अधिकतम दबाव" की नीति अपनाई, जो आर्थिक प्रतिबंधों, लक्षित हत्याओं (जैसे कुद्स फोर्स के कमांडर कासिम सुलेमानी की हत्या), और क्षेत्रीय गठबंधनों को मजबूत करने का मिश्रण था.
हालांकि व्हाइट हाउस ने एक नया समझौता करने की इच्छा का संकेत दिया, लेकिन एक स्पष्ट रणनीति की कमी और बढ़ते सैन्य टकरावों ने फिलहाल उस अवसर को बंद कर दिया है.
ईरान समर्थित हमले और साजिशें अमेरिकी क्षेत्रों में भी सामने आई हैं, जिससे असममित जवाबी कार्रवाई का डर बढ़ गया है.
पुराने जानकार अब मानते हैं कि यह वह क्षण हो सकता है जब अमेरिका-ईरान तनाव वापसी के बिंदु को पार कर जाए. सर्वोच्च नेता खामेनेई, जो लंबे समय से सतर्क राजनीति के लिए जाने जाते हैं, खुद को फंसा हुआ पा सकते हैं.
कम करने से उनकी घरेलू वैधता कम हो सकती है; बहुत ज़्यादा करने से युद्ध शुरू हो सकता है।
इस माहौल में, ईरान के परमाणु कार्यक्रम को तेज़ करने का प्रलोभन पहले से कहीं ज़्यादा बढ़ सकता है.
यदि अनुपालन से केवल अलगाव और भेद्यता मिलती है, तो तेहरान यह निष्कर्ष निकाल सकता है कि केवल परमाणु निवारण ही शासन के अस्तित्व की गारंटी दे सकता है, एक तर्क जो शीत युद्ध-युग की ब्रिंकमैनशिप की याद दिलाता है.
कुछ लोग इसे 2003 के इराक युद्ध से जोड़ते हैं, जो सामूहिक विनाश के हथियारों के बारे में गलत खुफिया जानकारी पर आधारित था. इज़राइली प्रधानमंत्री नेतन्याहू, अलग-अलग भूमिकाओं में, 1990 के दशक से ईरान की परमाणु क्षमताओं के बारे में चिंता जताते रहे हैं.
लेकिन ईरान का मामला अलग है.
सद्दाम हुसैन के इराक के विपरीत, ईरान के पास एक परिष्कृत राज्य तंत्र, संस्थागत सरकारी विभाग, व्यापक क्षेत्रीय गठबंधन और महत्वपूर्ण घरेलू समर्थन है.
विश्लेषकों को जिस बात की चिंता है, वह हालिया तनाव की गति है. अमेरिकी हमले से कुछ ही दिन पहले, यूरोपीय अधिकारी ईरान में इज़राइली गतिविधियों से खुद को दूर कर रहे थे.
सीधे भागीदारी में अचानक बदलाव ने ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे यूरोपीय सहयोगियों ('E3') को परेशान कर दिया है, जिन्हें पिछले इराकी गलत अनुमानों के दोहराव का डर है.
दो संभावित रास्ते दिखाई देते हैं:
ईरान के परमाणु बुनियादी ढांचे को खत्म करने का एक पूर्ण इज़राइली-अमेरिकी प्रयास, एक ऐसा परिणाम जो सैन्य रूप से अनिश्चित और कूटनीतिक रूप से महंगा है.
ईरान का NPT से बाहर निकलना और खुले तौर पर परमाणु हथियारों का पीछा करना, एक ऐसा रास्ता जो मध्य पूर्व में एक व्यापक हथियारों की दौड़ को जन्म दे सकता है.
ईरान का परमाणु संकट सिर्फ सेंट्रीफ्यूज और यूरेनियम को शुद्ध करने से जुड़ा तकनीकी विवाद नहीं है. यह असल में अलग-अलग विचारों, अस्तित्व के डर, पुरानी शिकायतों और भू-राजनीतिक दांव-पेच का टकराव है.
पश्चिमी देशों को डर है कि क्रांतिकारी विचारधारा और उनके समर्थक गुटों से मजबूत हुआ ईरान परमाणु शक्ति बन सकता है.
वहीं, ईरान को लगता है कि अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था पाखंड से भरी है, जहाँ नियम सब पर एक जैसे लागू नहीं होते और संयम बरतने का उसे कोई फायदा नहीं मिलता.
जब तक कोई भरोसेमंद, लागू करने योग्य और आपसी सम्मान पर आधारित कूटनीतिक रास्ता नहीं निकलता, यह गतिरोध (मुश्किल स्थिति) और गहराता जाएगा. यह जितना लंबा चलेगा, गलत अंदाज़े लगाने का खतरा उतना ही बढ़ेगा, और इलाका परमाणु टकराव के उतना ही करीब पहुँचता जाएगा.
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