समाधान
क्या भारत की आर्थिक प्रगति गलत दिशा में है?
भाग - 2
समाधान
क्या भारत की आर्थिक प्रगति गलत दिशा में है?
भाग - 2
Is India’s Economic Ladder on a Wrong Wall? - Part II का हिन्दी रूपांतर
~ सोनू बिष्ट
क्या इन 75 वर्षो में 'भारतीय', गलत 'आर्थिक प्रणाली' की रूपरेखा तैयार कर रहे थे? कब और कहाँ यह डिज़ाइन गलत हो गया, और इससे भी बदतर यह है कि, क्या भारतीय इस बात से अनजान है?
भारत की असल आर्थिक मजबूती को बेनकाब करने के लिए 'कोविड' जैसी महामारी आई । जिस वक़्त से कोविड19 लॉकडाउन भारत में शुरू हुआ, उस वक़्त से संक्रमण फैलने के अलावा एक दूसरी चिंता जो बढ़ रही थी वह गरीबों का पेट भरने की थी ।
अगर सरकार के आँकड़े देखे जाएं तो अचानक से भारी संख्या में आर्थिक व्यवस्था से संघर्षरत नागरिक नजर आते है ।
तो समाधान कहा है?
प्रणाली सिद्धांत पर आधारित समाधान:
भारत को अपनी एक बड़ी आबादी का पेट भरने की जरूरत है, जो की चीन के बाद दूसरे स्थान पर है । यह किसी भी सरकार का प्राथमिक उद्देश्य होता है । स्वतंत्रता के बाद से ही सरकारों ने कई प्रयास किये, भूख जैसी समस्या को खत्म करने के लिए किन्तु असफल रहे ।
किसी न किसी कारणवश आज के अच्छे समय में भी, लाखों लोग अत्यंत गरीबी में अपना जीवनयापन कर रहे है ।
भारत जैसा देश अभी भी, कम मनोहर हवाई अड्डों और सीमित क्षमता वाली इमारतों में गुज़ारा कर सकता है । शहरी ई- कॉमर्स पर नई चीज की खरीददारी पर डिज़िटाईजेशन (digitization)के स्तर को कम किया जा सकता है ।
कुछ एस.यू.वी SUVs और लक्ज़री कारें प्रति व्यक्ति अभी भी टिकाऊ है । ऐसा लग रहा होगा कि यह एक कठोर समाजवादी दृष्टिकोण है? किन्तु यह आवश्यक है, क्योंकि बिना भोजन के भारतीय अर्थव्यवस्था को चलाना असम्भव है ।
एक बार अगर आबादी को पेटभर खाना और स्थायी निवास दे दिया जाये, तो उन्हें पूरी तरह से उद्यमिता (Entrepreneurship) के लिए छोड़ा जा सकता है ।
अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सम्बन्धों पर अनुसन्धान भारतीय परिषद (ICRIER ) के पेपर, 'हाउसिंग फॉर इंडियाज़ लो इनकम अर्बन हाउसहोल्ड्स: ए डिमांड पर्सपेक्टिव',(Housing For India’s Low-Income Urban Households: A Demand Perspective’) नामक शीर्षक के अनुसार अभी भी 17 लाख से अधिक भारतीय बेघर है ।
इसके अतिरिक्त एक अनुमानित आंकड़े के अनुसार 2018 में, देश में करीब 3 करोड़ आवासीय कमी थी, जो 2012 से 1.8 करोड़ बढ़ गई थी ।
80 के दशक में ब्रिटेन ने समान गलती की थी। उन्होंने ज्ञान अर्थ तंत्र (Knowledge economy) के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपनी अर्थव्यवस्था में संरचनात्मक परिवर्तन किए ।
जिसका परिणाम 'असमानता' में देखने को मिलता है । जबकि राष्ट्र की संपति लंदन शहर के एक वर्ग मील में बसी हुई है, वेल्स, स्कॉटलैंड और उत्तरी आयरलैंड अपने पारम्परिक व्यवसाय खो चुके है ।
इस रूपांतरण के 40 वर्ष बाद भी, यहां की जनसंख्या आवश्यक ज्ञान और उद्यमिता कौशल के साथ 'ज्ञान अर्थ तंत्र' को चलाने के लिए अभी भी तैयार नहीं है
सभी छोटे -बड़े देशों को पहले अपनी जनसंख्या का पेट भरने की आवश्यकता है । भारत के बाहर की दुनिया को भी भोजन की आवश्यकता है। इसलिए यह अत्यावश्यक है कि भारत ना केवल अपने लिए बल्कि निर्यात के लिए भी ‘अन्न’ उगाए ।
भारत की कृषि क्षमता अभी भी सही सलामत है यह अच्छी खबर है, दक्षता कम नहीं हुई है ।
2021 तक कृषि निर्यात और सम्बद्ध उत्पाद 17.34 % से बढ़कर 41.25 बिलियन डॉलर (लगभग 3.10 लाख करोड़ रुपये) हो गए । आमतौर पर, यह पिछले 3 वर्षों से 35 बिलियन (लगभग 2.62 लाख करोड़ रुपये) रहा है ।
रक्षा निर्यात की ही तरह कृषि भी 'प्रभावशून्य' (Recession Proof ) है । यहां तक की घोर आर्थिक संकट में भी भोजन की मांग बनी रहेगी ।
अतः जो अर्थशास्त्री भारतीय अर्थव्यवस्था को मानसून की सफलता से अलग करने की कोशिश कर रहे है, वह पाएंगे की पूरी अर्थव्यवस्था को ही दुनिया की चक्रीय अर्थव्यवस्था से अलग किया जा सकता है ।
इस प्रकार यहां पर एक व्यापक क्षमता मौजूद है, भारत के किसानों को उतना ही समृद्ध बनाने की, जितना अमेरिका में रक्षा क्षेत्र में काम करने वाले है ।
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रक्षा निर्यात की ही तरह कृषि भी 'प्रभावशून्य' (Recession Proof ) है
कृषि उत्पादन को धीमा करना और उसके महत्व को कम करना भारत के लिए आर्थिक और सामाजिक विपदा होगी । यह स्थिति दोबारा से भारत के पेट्रोलियम के खपत की कहानी की तरह होगी ।
भारत के पास अत्यधिक मात्रा में वाहन है, किन्तु घरेलू तेल का उत्पादन पर्याप्त नहीं है । 2019 में, भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा कच्चे तेल का आयातकर्ता था, जिसने इसमें 6.6 लाख करोड़ रुपये खर्च किये ।
अतः वर्तमान में केन्द्रीय चालू खाते का अधिकांश भाग तेल के आयात में व्यय हो जाता है । इसी तरह, यदि हम कृषि में चूक करेंगे और खाद्यान्न के आयात पर निर्भर हो जायेंगे तो यह गरीबों पर प्रहार करेगा और गरीबी बढ़ जाएगी ।
अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्रों को कृषि के साथ संरेखित (Realigning) करना ही इसका उत्तर है ।
तो आखिर कैसे अर्थव्यवस्था के अन्य क्षेत्र संरेखित किये जा सकते है?
मौजूदा निर्माण क्षमताएं कृषि उपकरणों को मजबूत और आधुनिक बना सकती है । भारत, कृषकों को अभी भी खेतों को बैलों द्वारा जोता जाना नहीं देख सकता । इसके विपरीत, एक किसान आराम से हर मौसम में उपयुक्त वातानुकूल ट्रेक्टरो में आराम से बैठ सकता है ।
गाँवों में बिजली की किल्लत बीते दिनों की बात हो सकती है, अगर सौर और पवन ऊर्जा की खेती भी कृषि के साथ-साथ की जाये ।
स्टॉक एक्सचेंजो (SENSEX या NIFTY) के बजाय, अधिक कमोडिटी एक्सचेंज हो सकते है । नेशनल कमोडिटी एंड डेरीवेटिव एक्सचेंज (NCDEX) के अनुसार 320 किसान उत्पाद संगठन (FPO) के 8.83 लाख किसान सदस्यों ने वायदा बाजार (Futures Market) में हिस्सा लिया ।
इनमें से करीबन 1/ 3 (130 एफ पी ओ - FPO ने 3.20 लाख किसानों का प्रतिनिधित्व किया) ने कोमोडिटी वायदा बाजार का उपयोग बाजार (मूल्य) जोखिम (Price Risk) को रोकने के लिए किया ।
उत्पादों के अच्छे मूल्य केवल दक्ष (Efficient) वित्तीय लेन - देन द्वारा ही प्राप्त हो सकते है ।
वैसे भी, भारत की केवल 5 % जनसंख्या प्रतिभूति शेयर एक्सचेंजो का उपयोग करती है । ज्यादातर यह कारपोरेट और संस्थागत निवेशक है ।
ग्रामीण सड़कें, कृषि ढुलाई के लिए मार्गावरोध है और कृषक परिवारों की गरीबी के लिए मुख्य कारक भी है । ग्रामीण उच्च गति वाले प्रमुख मार्ग हो सकते है ।
भारत सरकार के ग्रामीण विकास मंत्रालय अनुसार जुलाई 2011, अभी भी 25 लाख कि.मी (Kilometer) की ग्रामीण सड़कें है जिन्हें पक्का करने और रख रखाव की आवश्यकता है ।
यह देश की कुल ग्रामीण सड़कों का लगभग 30 % है । यह गुणवत्तापूर्ण निर्यात के लिए बाजार और बंदरगाह पर तेजी से वितरण की सुविधा को सुगम करेगा ।
शहरों में,मनोहर बहुमंजिला वातानुकूल शॉपिंग सेन्टरों के बजाय हर मौसम में उपयुक्त नहर सिंचाई प्रणाली या खाद्य और अनाज भण्डारण संजाल (Cold Storage Network) के लिए शीतगृह हो सकते है।
उपभोक्ता मामले विभाग (मंत्रालय) के अनुसार, भारतीय खाद्य निगम (Food Corporation of India) के भंडारण सुविधाओं में 1,550 टन से अधिक खाद्यान्न क्षतिग्रस्त हो गया ।
सरकार की गणना के हिसाब से यह 43,000 छोटे आकार के परिवारों के 12 महीने के आहार के बराबर है । 2015-16 में यह सबसे बुरा रहा, जब बर्बाद हुआ अनाज 3,116 टन था ।
मानसून में बफर स्टॉक (सुरक्षित भंडारण पद्धति) को सड़ने देना या उसे जंगली जानवरों को भेंट चढ़ाना 'शुद्ध आपराधिकता' है ।
भारत में सभी नदियों को जोड़ा जा सकता है ताकि किसानों को बाधा रहित जल आपूर्ति प्राप्त हो सके, बजाय गगनचुम्बी स्मारकों और मूर्तियों के ,आज की तुलना में कृषि क्षेत्र और अधिक महत्वपूर्ण हो सकता है ।
भारत का केवल 60.43 % भाग कृषि क्षेत्र के अधीन है । यह आज़ादी के बाद से लगभग 60 प्रतिशत रहा है, भले ही कृषि प्रौद्योगिकी और विज्ञान में सुधार हुआ हो । नाइजीरिया और बांग्लादेश जैसे विकासशील देशों ने समय के साथ कृषि भूमि प्रतिशत में वृद्धि की है ।
वनरोपण कार्यक्रम, भारतीय मौसम प्रणाली में स्थिरता लाएगा और फसल की बरबादी में गिरावट होगी । फिलहाल किसी भी सरकार में किसी ने भी इस योजना पर काम नहीं किया ।
भारत की मौसम प्रणाली को स्थिर (मजबूत) करने के लिए बहुत प्रयासों की आवश्यकता है, यह एक दीर्घकालिक दृष्टिकोण है, और विभिन्न सरकारों को इस दिशा में संयुक्त प्रयास करने की जरूरत है ।
वित्तीय क्षेत्र, कृषि ऋण, बीमा और उत्पादों की आवश्यकताओं की पूर्ति कर सकता है । इसके अतिरिक्त उच्च प्रौद्योगिकी डिजिटलीकरण को बढ़ाने से फसल प्रबंधन और विमान (ड्रोन) वर्णक्रममापी (Spectrometer) से परिपक्व फसलों की निगरानी करके सही समय पर उनके प्रबंधन को सुगम करेगा ।
सभी विश्वविद्यालयों में कृषि अनुसन्धान और प्रबंधन के लिए मुख्य विभाग क्यों नहीं हो सकते? भारत में 1000 से अधिक विश्वविद्यालयों के साथ, जिनमें से 54 केंद्रीय और 416 राज्य विश्वविद्यालय है, भारतीय कृषि अनुसन्धान परिषद (ICAR) ने सिर्फ 3 केंद्रीय विश्वविद्यालयों और 63 राज्य विश्वविद्यालयों को मान्यता दी है ।
यह भारत जैसे देश के लिए निराशाजनक (निम्नस्तरीय) 10% विश्वविद्यालय बनाता है ।
आज लाखों एम बी ए (MBA) ग्रेजुएट सिर्फ मूंगफली और आलू के पैकेट बेच रहे है । एक रिपोर्ट के अनुसार व्यवसायिक स्कूल के सिर्फ 10 % स्नातक रोजगार के योग्य है ।
इस गणना के अनुसार, अगर भारत हर साल 3,00,000 प्रबंधन स्नातक पेश करता है तो, केवल 30,000 से 35,000 ही रोजगार योग्य है ।
उन निराश, न्यून उपयोग प्रतिभाओं का इस्तेमाल रसद प्रबंधन (logistics management), वस्तु सूची प्रबंधन (inventory management), तकनीकों, श्रम प्रबंधन (labour management), वित्तपोषण (financing) आदि में अधिक कल्पनाशील नव रचना करने में क्यों नहीं किया जा सकता?
यदि कृषि को एक अच्छी कमाई और भरोसेमंद मुनाफा कमाने वाला पेशा बनाने का लक्ष्य रखे तो कई प्रतिभावान बेरोजगारों को आसानी से उनकी योग्यतानुसार रोजगार का साधन प्राप्त हो जायेगा ।
क्योंकि यह स्थिति केवल वर्तमान में नहीं है, इसलिए कोई भी इससे निष्कर्ष निकाल सकता है, कि भारत, एक सामाजिक आर्थिक प्रणाली के रूप में अपनी अधिकांश जनसंख्या का भरण करने में विफल रहा है ।
जैसा कि इस महामारी से प्रत्यक्ष प्रमाण मिला की लाखों जिंदगियां, जो वेतन पर गुजारा करती है ऐसी परिस्थिति में ज्यादा देर तक नहीं टिक सकती ।
कृषक पूँजीवाद
यद्पि हमारा दृष्टिकोण पक्षपातपूर्ण लगे, एक कृषक और समाजवादी के रूप में, दुनियाभर में, पूँजीवादी देशों के प्रतीक समाजवादी उपायों में लिप्त है ।
उदहारण के लिए, अमेरिकी सरकार कोविड पीड़ित परिवारों और व्यवसायों के लिए सामाजिक लाभ के 1.9 ट्रिलियन डॉलर (लगभग 150 लाख करोड़ रुपये) का खैरात पैकेज (Bailout) का वितरण करने पर विचार कर रही है ।
ऐसा कई सरकारों द्वारा किया जा चूका है, भले ही उन्होंने अपने अच्छे समय में खुद को पूरी तरह पूंजीवादी राष्ट्र कहा हो ।
यहां पर यह तर्क भी दिया जा सकता है कि, कोविड के दौरान पूँजीवाद विफल रहा । इस विचार के पीछे का तर्क बाजार चालित पूँजीवाद मे निहित है । मगर चूँकि बाजार लॉकडाउन के कारण बंद थे, कोई भी बाजार चलित अर्थव्यवस्था नहीं थी ।
इसके स्थान पर सामाजिक निधीकरण (Funding) सरकारी योजनाओं के बदौलत बच गया । इसलिए, समाजवादी दृष्टिकोण को अस्वीकार करना असंगत है ।
आइए भारत की कृषि प्रणाली को एक अलग परिप्रेक्ष्य (Perspective) से देखे, एक तुलनात्मक उदाहरण के रूप में, अगर भारत की कृषि प्रणाली उतनी ही विकसित और प्रगतिशील (Innovative) होती जितना की आई टी (IT) क्षेत्र, तो क्या भारत दुनिया का फ़ूड बास्केट (Food Basket) नहीं होता? कृषि उपज दुनिया के हर कोने में पहुंच सकता था ।
यह प्रतिस्पर्धात्मक हो सकता था और निस्संदेह कृषकों के लिए समृद्धि लाता । जो जनसँख्या का एक बड़ा हिस्सा निर्मित करते है ।
बाकी लोगों पर शुद्ध गुणक प्रभाव (Net multiplier effect) पड़ने से अर्थव्यवस्था सुदृढ़ हो सकती थी । ठीक उसी तरह जैसे आज लाखों आई टी कर्मचारियों की समृद्धि दिख रही है ।
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भारत का केवल 60.43 % भाग कृषि क्षेत्र के अधीन है
भारतीय सूचना प्रौद्योगिकी उद्योग (IT) 1990 के बाद से बहुत तेजी से विकसित हुआ है । यह तब 100 मिलियन डॉलर (लगभग 750 करोड़ रुपये) था और आज 35 लाख लोगों को रोजगार देते हुए 160 बिलियन डॉलर (लगभग 12 लाख करोड़ रुपये) पर खड़ा है ।
भारतीय किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य (MSP)* की व्यवस्था (प्रक्रिया) के तहत अत्यधिक कम भुगतान किया जाता रहा । इसके अलावा एक अन्य क्षेत्र अमेरिकी अर्थव्यवस्था के लिए उतना ही महत्वपूर्ण है जितना भारत के लिए कृषि क्षेत्र ।
यह है अमेरिका में ऑटो सेक्टर । तो चलिए, इन दोनों क्षेत्रों की तुलना करते है और समझने की कोशिश करते है कि आखिर भारतीय कृषि व्यवस्था कहा गलत हो रही है ।
*MSP - न्यूनतम समर्थन मूल्य वह दर है जिस पर सरकार किसानों से फसल खरीदती है और यह किसानों की उत्पादन लागत के कम से कम डेढ़ गुना अधिक होती है ।
मान लीजिये, फोर्ड (Ford), जीएम (General Motors) और टोयोटा (TOYOTA) को कार बनाने के लिए बहुत कम कीमत दी जा रही थी, जिसके कारण उनके कर्मचारी आत्महत्या कर रहे थे ।
क्या अमेरिकी इतने सारे वाहनों का निर्माण करेंगे, अगर एक न्यूनतम समर्थन मूल्य, मुश्किल से मूल्य, उन्नति और नवीन प्रक्रिया जैसे लक्ष्यों को पूरा न कर पा रहे हो? निस्संदेह, अमेरिका इस लाभरहित और नवीन प्रक्रिया में उत्साह की कमी के कारण बहुत पहले ही रुक गया होता।
जीडीपी में US ऑटो सेक्टर का योगदान सिर्फ 3.5 % है जबकि जर्मन ऑटो सेक्टर का योगदान 5% है ।
फिर भी, उन्हें सरकार से उचित देख- रेख मिलती है और वे उनके केंद्र बिंदु में रहते है, यहां तक की एक मुक्त बाजार (Free Market Economy) व्यवस्था में भी ।
उदाहरण के लिए, 2008 के वित्तीय संकट में सरकार ने इस सेक्टर को खैरात पैकेज दिया और इसे पूर्ण रूप से बंद होने से रोक लिया था ।
भारत की तुलना में, जहां एक मिश्रित अर्थव्यवस्था है, कृषि सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 18 % का योगदान करती है । फिर भी अभी तक संघर्ष कर रही है ।
भारतीय किसानों को नुकसान उठाने को बाध्य किया गया या तो मजबूर किया गया, खुद को गरीबी के पराधीन रहने के लिए ।
राष्ट्र का भरण - पोषण करते हुए कर्ज के बोझ, खराब वित्त व्यवस्था और मौसम की अनिश्चितताओं के बीच खुद को बनाये रखने का उनका लचीलापन असाधारण है । देश की अर्थव्यवस्था को सही दिशा में ले जाकर उन्हें पुरस्कृत किया जाना चाहिए ।
यह गलती हमारे दृष्टिकोण में है, सभी भारतीय अर्थशास्त्रियों ने कृषि को अन्य क्षेत्रों जैसे उत्पादन, परिवहन, सेवाओं, शिक्षा, मनोरंजन आदि से जोड़ दिया । मानो यह उनमें से एक हो ।
यह क्षेत्रों को एक बराबर करने का तरीका और सामाजिक आर्थिक निर्भरता को अनदेखा करना, शुरू से ही दोषपूर्ण रहा है । इसके बजाय कृषि को सभी आर्थिक गतिविधियों के ऊपर रखना चाहिए ।
यह महामारी ऊपर बताई हुई परिकल्पना की परीक्षा है । जैसा कि हमारे सामने प्रत्यक्ष है की लॉकडाउन के दौरान सभी सरकारें, जीवन - रक्षक चिकित्सा सेवाओं के बाद सिर्फ भोजन और आपूर्ति श्रृंखला पर ध्यान केंद्रित किए हुए है ।
इस प्राथमिकता के ऊपर और कुछ नहीं आया । आर्थिक प्रणाली में बाकी सब कुछ स्थगित कर दिया गया । अस्तित्व सबसे ऊपर है या नहीं?
इस तर्क से, कृषि इस वर्गीकरण में स्वाभाविक रूप से सबसे ऊपर आ गई, किसी भी अन्य क्षेत्र कि तुलना में ।
अध्ययन के तौर पर, भारत गलत नहीं होगा यदि वह अर्थव्यवस्था के सभी हिस्सों को कृषि कि उप-प्रणाली के रूप में वर्गीकृत करें तो । किसी देश कि संकल्पना का अस्तित्व समाप्ति पर होगा यदि वह कृषि के लिए नहीं है ।
विफलता के चेहरे के रूप में प्रवासी
यह हमें घरेलू प्रवासी समस्या को हल करने की ओर वापिस लाता है ।
अगर कृषक अपने खेतों से पर्याप्त समृद्ध होते तो वह शहरों में जाने का जोखिम क्यों उठाते? प्रवासी होने से मतलब सिर्फ गरीबों का गांवों से शहरों की ओर गमनागमन (Movement) से नहीं है ।
इसका तात्पर्य समाज, संस्कृति ओर अर्थशास्त्र के मूल सिद्धांत के रूपांतरण से भी है ।
भारत के मामले में, यह और भी बुरा है । अगर शहरों की ओर पलायन, धन और समृद्धि पैदा कर रहा होता तो भारत संकट के समय विपरीत पलायन का साक्षी नहीं होता ।
इसके बजाय, इस आशाहीनता के चलते कि कही भूख से उनकी मौत न हो जाये, बूढ़े और जवान, पुरुष और महिलाएं, बच्चो के साथ शहरों से हजारों किलोमीटर दूर चल पड़े थे ।
क्या यह एक यथोचित मापदंड नहीं है, कि कृषि भूमि से शहरों की ओर पलायन भारत के लिए कारगर साबित नहीं हुआ है।
उज्जवल भविष्य
कोरोना महामारी के बाद, भारत को अपनी आर्थिक प्रणाली की पुनर्रचना करने की जरुरत है, जो कृषि की एक उप - प्रणाली है । इसके अतिरिक्त सरकार द्वारा उस 50% जनसँख्या को, जो देश का भरण कर रही है अलग से प्राथमिकता दी जानी चाहिए ।
2016, तक भारत में रेलवे के लिए एक अलग बजट हुआ करता था । तब भारतीय रेलवे की एक दूरदर्शिता थी, जो यात्रा लागत, विस्तार - क्षेत्र और समयबद्धता में दुनिया के कई देशों की तुलना में बेहतरीन साबित हुआ ।
इसलिए रेलवे पिछले 175 वर्षों से भारत की प्राथमिकता और जीवनरेखा रहा है । इसी की तर्ज पर, कृषि के लिए भी एक अलग बजट और दूरदर्शिता की आवश्यकता है ।
बाद की सरकारों को कृषि की उन्नति और दूरदर्शिता पर उनके विचारों को प्रतिवर्ष साझा करने दें । सभी उसी जोश के साथ कृषि पर बहस और चर्चा करें जैसे की केंद्रीय बजट के लिए की जाती है ।
जैसा की विकसित अर्थव्यवस्थाओं में हुआ है, भारत को ऐसी कहानी न बनने दें, जहां पर कृषि इतनी महत्वहीन हो जाये कि आने वाली पीढ़ियां अपने फलों और सब्जियों के स्रोतों की पहचान करने में असमर्थ हों जाएँ ।
कुछ महत्वपूर्ण परिभाषाएं
बाजार अर्थव्यवस्था - ऐसी अर्थव्यवस्था होती है जिसमें निवेश, उत्पादन और वितरण के निर्णय उन मूल्य संकेतों द्वारा निर्धारित होते है जो प्राकृतिक रूप से स्वयं ही माँग और आपूर्ति की स्थितियों से उत्पन्न हो ।
बफर स्टॉक - आपात स्थिति में किसी आवश्यक वस्तु की कमी को पूरा करने के लिए उस वस्तु का स्टॉक तैयार करने को बफर स्टॉक कहते है ।
B-school - बिजनेस स्कूल एक उच्च स्तरीय शैक्षणिक संस्थान है जो व्यापार और वाणिज्य से संबंधित शिक्षण विषयों पर केंद्रित है ।
~ अनुपूरक अन्वेषण, अक्षिता गुप्ता
हवाला
https://statisticstimes.com/economy/country/india-gdp-sectorwise.php
https://www.pgpf.org/budget-basics/budget-explainer-national-defense
https://www.downtoearth.org.in/blog/governance/mass-poverty-is-back-in-india-76348
https://statisticstimes.com/economy/country/india-gdp-sectorwise.php
https://morth.nic.in/sites/default/files/Annual%20Report%20-%202021%20(English)_compressed.pdf
https://thewire.in/government/food-corporation-of-india-godowns-food-grains-waste
https://tradingeconomics.com/india/agricultural-land-percent-of-land-area-wb-data.html
https://icar.org.in/content/state-agricultural-universities-0
https://www.bseindia.com/markets/keystatics/KeyStat_ClientStat.aspx?expandable%20=4
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