भारतीय नई पीढ़ी दृढ़ क्यों नहीं है?
भारतीय नई पीढ़ी दृढ़ क्यों नहीं है?
Why is Indian Youth not tough enough? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
भारत में अक्सर बुजुर्गों की यह शिकायत रहती है कि, आज का युवा उतना मजबूत नहीं है, जितना वे अपने जमाने में थे। वे कहते हैं कि, युवा पीढ़ी बहुत कमजोर है और लंबे समय तक टिकने के लिए नहीं बनी है।
क्या ये सच है? आइए कुछ तथ्यों और आंकड़ों पर एक नजर डालते हैं।
विश्व स्वास्थ्य संगठन के एक हालिया अध्ययन में पाया गया कि, भारत में 15-29 आयु वर्ग के युवाओं में आत्महत्या की दर सबसे अधिक है। 'इंडियन जर्नल ऑफ साइकेट्री' के अनुसार, 27% भारतीय छात्र अवसाद से पीड़ित हैं।
'राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य और तंत्रिका विज्ञान संस्थान' (NIMHANS) ने पाया कि, भारत में हर पांच में से एक छात्र को मानसिक बीमारी है।
पहली बात जिस पर हमें विचार करने की आवश्यकता है वह यह है कि, वास्तव में "दृढ़ता" का क्या अर्थ है। क्या इसका अर्थ शारीरिक रूप से अधिक दर्द सहने में सक्षम होना है? या इसका मतलब भावनात्मक रूप से मजबूत होना है? दुर्भाग्य से, इस प्रश्न का कोई निश्चित उत्तर नहीं है।
ऐसा प्रतीत होता है कि "दृढ़ता" व्यक्तिपरक है और इसलिए, इसका मूल्यांकन करना मुश्किल है।
खेल मनोवैज्ञानिक 'टिम एस ग्रोवर' (Tim Grover) कहते हैं कि, मानसिक दृढ़ता "तत्काल पहचान या प्रतिफल के साथ या बिना, अपनी क्षमता की उच्च सीमा की ओर लगातार प्रदर्शन करते रहने की क्षमता है।"
“
मानसिक दृढ़ता "तत्काल" पहचान या प्रतिफल के साथ या बिना, अपनी क्षमता की उच्च सीमा की ओर लगातार प्रदर्शन करते रहने की क्षमता है
'मानसिक दृढ़ता' का अर्थ अपनी परिस्थितियों से ऊपर उठना और स्थिति आपके पक्ष में न होने पर भी अपना सर्वश्रेष्ठ देना। यह लगातार बने रहने और कभी हार न मानने के बारे में है। यह अपनी भावनाओं को नियंत्रित करने में सक्षम होने और उन्हें आप पर नियंत्रण न करने देने के बारे में है।
भारत में मानसिक दृढ़ता का इतिहास
वेद 1500-1000 ईसा पूर्व के प्राचीन भारतीय ग्रंथों का संग्रह है। उनमें मानसिक दृढ़ता के कुछ शुरुआती ज्ञात संदर्भ शामिल हैं, जिनमें ऐसे अंश हैं जो, दृढ़ संकल्प और आत्म-नियंत्रण के गुणों की सराहना करते हैं।
उदाहरण के लिए, ऋग्वेद का एक सूक्त कहता है:
मृत्यो: पदं योपयन्तो यदैत, द्राघीय आयु: प्रतरं दधाना:।
आप्यायमाना: प्रजया धनेन, शुद्धा: पूता: भक्त यज्ञियास:।।
- ऋ० १०/१९/२
मौत से तुम डर न जाना।
मृत्यु भय पर विजय पाना।।
मृत्यु के कांटे गड़े हैं हर कदम पर।
जिन्दगी में पग उठाना तुम संभल कर।।
चरण चूमेगी स्वयं श्री-सम्पदा।
धान्यधन से पूर्ण होयेगी प्रजा।।
यज्ञमय जीवन निभाना।
राह उल्टी पड़ न जाना।।
शुद्ध मन की भावना रखना सदा।
ईश चरणों में झुके रहना सदा।।
हे मनुष्यो! तुम 'मृत्यो: पदं योपयन्त:' मृत्यु के पैर उखाड़ते हुए 'यदैत' आगे बढ़ोगे, तभी 'द्राघीय आयु: प्रतरं दधाना:' दीर्घ आयु पाओगे, और 'प्रजया धनेन आप्यायमाना:' प्रजा और धन से भरपूर बनोगे, किन्तु इसके लिए तुम 'शुद्धा: पूता: यज्ञियास: भवत' शुद्ध, पवित्र और यज्ञमय जीवन बिताओ, संयम-सदाचार से रहो।
यह सूक्त कठिनाई के समय, संयम को बनाये रखने और भय के आगे न झुकने के महत्व के बारे में बताता है।
एक और उदाहरण भगवद गीता, अध्याय 2, श्लोक 3 से आता है, जिसमें कहा गया है:
क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते |
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप || 3||
क्लेब्यम - अपौरुष; मा स्म — न करना; गमः - प्राप्त हो- ; पार्थ - पृथापुत्र अर्जुन; न कभी नहीं; एतत्- यह; त्वयि —तुमको ; उपपद्यते -उपयुक्त; क्षुद्रम्-दया; हृदय-हृदय की; दौर्बल्यम्-दुर्बलता; त्यक्त्वा-त्याग कर; उत्तिष्ठ - खड़ा हो; परम्-तप-शत्रुओं का दमनकर्ता।
हे अर्जुन! अपौरुष को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा॥3॥
इसी तरह की विषय-वस्तु दुनिया भर के प्राचीन ग्रंथों में पाई जा सकती हैं, जिनमें 'द इलियड' और 'द ओदिसी' शामिल हैं, जिसे 'होमर' ( यूरोप के आदिकवि) ने 8 वीं शताब्दी ईसा पूर्व में लिखा था।
बहुत समय पहले की बात नहीं है, जब भारत के युवा नाखून(कील) की तरह सख्त थे। वे मजबूत और लचीले थे और उनके पास पैसे और बुनियादी ढांचे के मामले में बहुत कम संसाधन थे।
लंबी दूरी तक चलना या साइकिल चलाना, कम खाना, राशन की दुकानों से ही खरीदना और हरेक दैनिक काम के लिए धैर्यपूर्वक कतार में खड़े रहना आदि क्रियाकलाप जीवन जीने का एक तरीका थे।
लाखों लोगों ने पुरानी स्कूल की किताबों से पढ़ाई की हैं और सिर्फ त्योहारों पर ही नए कपड़े प्राप्त किए हैं। फिर भी, लोग अभी भी उस वक़्त की शिकायत नहीं कर रहे और अपनी स्थिति में संतुष्ट है हालांकि, उनके अंदर बेहतर पाने की ललक है।
आज, युवा स्वार्थी ढंग से अपनी सुरक्षा को लेकर चिंतित हैं। ऐसे में जोखिम लेने की संभावना कम और चीजें कठिन हो जाने पर उम्मीद खोने की संभावना अधिक होती है।
ऐसा इसलिए है क्योंकि, वे अपने बड़ों की तरह कठिनाइयों और मुसीबतों का सामना करने के लिए तैयार नहीं हैं। इसलिए, ऐसा लगता है कि, भारत के युवा नाजुक होते जा रहे हैं।
तो क्या बदला है? भारत के युवा किस वजह से दुर्बल हो गए हैं? यहां पर कुछ संभावित स्पष्टीकरण हैं।
पहला, हाल के वर्षों में भारत की आर्थिक स्थिति में काफी सुधार हुआ है। नतीजतन, युवाओं के पास पहले से कहीं अधिक संसाधनों और सुख-सुविधाओं तक पहुंच है। उनके पास कई विकल्प हैं क्योंकि, बाजार 'उपभोक्तावाद' में बदल गया है।
“
... क्योंकि, बाजार 'उपभोक्तावाद' में बदल गया है
नतीजतन, उन्हें उतना संघर्ष नहीं करना पड़ रहा जितना उनके बड़ो ने किया जो, उन्हें कम मजबूत बना सकता है। बहुत सारे विकल्पों ने उन्हें बहुत नाजुक बना दिया है, वे बहुत आसानी से प्रभावित हो जाते है और कठिनाइयों का सामना करने में असमर्थ हैं।
कुछ तरीके हैं जिनसे, हम पिछली पीढ़ियों और आज के युवाओं की मजबूती की तुलना कर सकते हैं- उदाहरण के लिए, शिक्षा प्रणाली।
भारत में, आज के समय मे छात्रों पर लगातार स्कूल में अच्छा प्रदर्शन करने और अच्छे 'ग्रेड' प्राप्त करने के लिए दबाव डाला जाता है।
हालाँकि, आज की शिक्षा प्रणाली में स्कूलों, कॉलेजों और विश्वविद्यालयों में कहीं अधिक सीटें हैं। लिहाजा, शिक्षित होने के लिए संघर्ष मौजूद ही नहीं है। सीटों की अधिक आपूर्ति एक 'संकट-स्थिति' बन गयी थी और कई कॉलेजों को बंद करना पड़ा क्योंकि, वहां छात्र नहीं थे।
इसके अलावा कई सरकारें छात्रवृत्ति, मुफ्त राशन, किताबें और साइकिलें दे रही हैं। तो यह जीवन का एक हिस्सा है कि, युवाओं को शायद ही कभी शिक्षा प्राप्त करने का प्रयास करना पड़ता है।
इस बदलाव का एक कारण यह भी है कि, आज का भारतीय युवा अपने बड़ों से ज्यादा शिक्षित है। उनके पास बेहतर शिक्षा और बुनियादी ढांचे तक पहुंच है। नतीजतन, वे उम्मीद करते हैं कि, सब कुछ उन्हें एक सोने की थाल में सजा हुआ मिलेगा ।
उनका हकदार होने का यह नजरिया उनके मन मे यह विचार लाता है कि, वे आवश्यक प्रयास किए बिना ही हर चीज के अधिकारी हैं।
दूसरा, बदलाव यह है कि, आज भारतीय युवा पहले से कहीं अधिक आर्थिक रूप से अपने माता-पिता पर निर्भर हैं। अतीत में, युवा लोग अपना परिवार शुरू करने या आजीविका की तलाश में जल्दी घर छोड़ देते थे।
आजकल, कई युवा वयस्क 28-29 वर्ष की आयु तक अपने माता-पिता के साथ ही रहते हैं। यह निर्भरता उन्हें कम आत्मनिर्भर और उनके जोखिम लेने की संभावना को भी कम करती है। वे जो भी जोखिम उठाते हैं, वह निर्भर करता है उनके माता-पिता से मिलने वाली सुरक्षा की भावना पर।
तीसरा कारण यह है कि, हाल के वर्षों में मीडिया का परिदृश्य नाटकीय रूप से बदल गया है। अतीत में, अधिकांश लोगों के लिए सूचना का एकमात्र स्रोत कुछ मुठ्ठीभर समाचार चैनल, अखबार और पत्रिकाएं थी । हालांकि नकारात्मक खबरें हो सकती थी किन्तु, वे संतुलित और सनसनीखेज नहीं थीं।
इसके अलावा, आज सोशल मीडिया पर खबरों और सूचनाओं की निरंतर धारा अत्यधिक तीव्र और तनावपूर्ण हो सकती है। स्क्रीन टाइम, नींद से उठने के समय के करीब है। यह मात्रा पिछले कुछ वर्षों से बढ़ रही है और इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि, युवा दिमाग अत्यधिक थकावट में और थका- माँदा हैं।
चौथा, सोशल मीडिया ने तत्काल संतुष्टि की संस्कृति का निर्माण किया है। युवा लोग जो चाहते हैं उसे तुरंत प्राप्त करने के आदी हो जाते हैं। वे कम धैर्यवान हो जाते है और जब चीजें उनके मन मुताबिक नहीं होती तो उनके हार मान लेने की संभावना बढ़ जाती है।
किन्तु, फिर से, परिणाम तत्काल ही है, चाहे वह तत्काल ऑनलाइन खरीदारी हो या ऑनलाइन खाना ऑर्डर करवाना।
एक खोज शब्द कंप्यूटर पर टाइप करते ही सूचना, मनोरंजन और खेल स्क्रीन पर दिखाई देने लगते हैं। साधनों को दक्षता से इस्तेमाल करना अच्छा हो सकता है। किन्तु, उन साधनों की गुणवत्ता को 'प्रभावी ध्यान अवधि' के साथ उपभोग करने की प्रवृति युवाओं को गंभीर रूप से कमजोर बना रही है।
पांचवां, कई युवा अपनी पहचान और जीवन के उद्देश्य को खोजने की जद्दोजहद में लगे हुए हैं। 'इंस्टाग्राम' और 'फेसबुक' जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के साथ, दूसरों के साथ अपने जीवन की तुलना करना और फिर अयोग्य महसूस करना आसान हो गया है।
वे जीवन का एक अवास्तविक दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हैं। सोशल मीडिया में वे पूर्णतः क्यूरेटेड(पेशेवर या विशेषज्ञ ज्ञान का उपयोग करके चयनित, संगठित और प्रस्तुत किया गया ) की गई छवियों को देखते उनकी तुलना और अनुकरण कर रहे हैं ।
हर बार जब वे ऐसा करते हैं तो, अनायास ही वे अपनी तुलना उनसे करने लगते हैं और ईर्ष्या महसूस करते हैं।
अयोग्यता और कम आत्मसम्मान होने की यह चोट साल भर में दिन में हजारों बार महसूस होती है।
छठा, जब युवा पूर्णतया पराजित महसूस करते हैं तो अक्सर शराब पीने, धूम्रपान या नशीली दवाओं के सेवन जैसे 'अस्वास्थ्यकर मुकाबला तंत्र' का सहारा लेते हैं। भारतीय फिल्मों और मनोरंजन चैनलों ने भी इन पदार्थों के उपयोग को बढ़ावा दिया है और ये उपभोग के लिए आसानी से उपलब्ध हैं। इसे आधुनिक और समकालीन माना जाता है।
इसके अलावा, नशीली दवाओं और शराब का उपयोग अक्सर रोजमर्रा की सामाजिक संपर्क के हिस्से के रूप में किया जाता है जिससे, इसकी लत लग जाना और आगे चलकर मानसिक स्वास्थ्य समस्याएं होती हैं। ध्यान या डायरी लिखना जैसे तनाव-प्रबंधन क्रियाविधियों को पुराना या फैशन से बाहर माना जाता है।
सातवां कारण, भारतीयों की 'सामूहिक संस्कृति' है, जो दूसरों की जरूरतों को अपने से ऊपर रखती है। 'पारंपरिक परिवार संरचना' के पतन ने इस संस्कृति के टूट जाने में योगदान दिया है, अतः समूहवाद के भी । अतीत में, विस्तृत परिवार एक साथ रहते थे और कठिन समय में एक-दूसरे का साथ देते थे।
हालाँकि, जैसे-जैसे परिवार अधिक परिवर्तनशील ( उन्नतिशील) बनते जा रहे हैं और देश भर या पूरी दुनिया में फैल गए हैं, तब अक्सर युवा लोगों को अपनी देखभाल खुद करने के लिए छोड़ दिया जाता है। सामाजिक सहायता का ये अभाव अकेलेपन और अलगाव की भावनाओं को जन्म दे सकता है।
“
सामाजिक सहायता का ये अभाव अकेलेपन और अलगाव की भावनाओं को जन्म दे सकता है
आठवां कारण, भारतीय युवा भी आर्थिक अनिश्चितता और असुरक्षा से जूझ रहे हैं। सरकारी और निजी क्षेत्र में 'पारंपरिक नौकरी बाजार' परिवर्तनशील (अस्थिर) है और कई युवा स्नातक ऐसे काम की खोज के लिए संघर्ष करते है जो उनकी योग्यता से मेल खाते हो।
इसके अलावा, भारत में महंगाई में जीवनयापन करने का मतलब है कि, कई युवा आवास, भोजन और शिक्षा जैसी आवश्यकताओं का खर्चा उठाने में सक्षम नही है।
फिर भी, उन्हें सोशल मीडिया की जीवनशैली से बराबरी करनी होती है।
नौवां कारण, युवा ठीक से आराम नहीं कर रहे हैं। पीढ़ी लगातार अपने मोबाइल पर व्यस्त है, वह सोशल मीडिया पर ब्राउज़िंग कर रही , वीडियो गेम खेल रही , चैट कर रही या कुछ देख रही है। मोबाइल वह पहली और आखिरी चीज है जिसका, इस्तेमाल लोग एक दिन में करते हैं।
एक बार जब मस्तिष्क आराम और आत्मविश्लेषण नहीं कर रहा होता है तो, युवा दिमाग लगातार तनाव में रहता है जो, उन्हें कमजोर और कम लचीला बना रहा हैं।
दसवाँ कारण है कि, आधुनिक शिक्षा प्रणाली, पश्चिम की तरह हो गई है जो छात्रों के प्रति नरम रवैया अपनाती है। वे बच्चों को अनुशासित करने की दिशा में कम काम कर रहे हैं क्योंकि, माता-पिता हद से ज्यादा ट्यूशन फीस का भुगतान कर रहे हैं।
अतः बच्चों के साथ अच्छा व्यवहार किया जाना चाहिए क्योंकि, स्कूलों की अब एक छात्र पर वित्तीय हिस्सेदारी है।
इससे पहले, माता-पिता अपने बच्चों को सही रास्ते पर लाने के लिए शिक्षक की अनुशासन पद्धति में हिस्सेदारी रखते थे। साथ ही, इस मानवाधिकारों और बाल संरक्षण के नए युग ने शिक्षकों को बच्चों को उनकी सीमाओं से परे जाने से रोकने के लिए डराकर रोक दिया है।
हो सकता है कि, यह विश्लेषण गुजरे हुए जमाने की समस्या के प्रति युवाओं की प्रतिक्रिया का पता लगाने के लिए गत वर्षों की दूरबीन के माध्यम से किया गया हो। परन्तु सभी युवा गलत नहीं है।
एक प्रतिवाद में, आज के युवाओं को अपने बड़ों की तुलना में मानसिक रूप से अधिक लचीले कहा जाता हैं क्योंकि,वे परिवर्तन और अनिश्चितता से भरी दुनिया में बड़े हो रहे हैं। आर्थिक अनिश्चितता, राजनीतिक अस्थिरता और जलवायु परिवर्तन - कुछ ऐसी चुनौतियाँ हैं जिनका सामना युवा रोज़ करते हैं।
और फिर भी, वे साहस और दृढ़ संकल्प के साथ इन चुनौतियों का सामना करना जारी रखे हुए हैं।
Other Articles
Did Western Medical Science Fail?
How to Harness the Power in these Dim Times?
Is India’s Economic Ladder on a Wrong Wall?
Taking on China – Indian Challenges
British Border Bungling and BREXIT
When Health Care System Failed – others Thrived.
3 Killer Diseases in Indian Banking System
Work from Home - Forced Reality
Why Learning Presentation Skills is a Waste of Time?
Is Social Justice Theoretical?
Will Central Vista fit 21st Century India?
Why Must Audit Services be Nationalized?
To Comment: connect@expertx.org
Support Us - It's advertisement free journalism, unbiased, providing high quality researched contents.