मोबाइल की लत
मूक सर्वव्यापी महामारी
मोबाइल की लत
मूक सर्वव्यापी महामारी
Mobile Addiction - Silent Pandemic का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
मोबाइल , हर जगह, मोबाइल
कोई बात करने वाला नहीं,
सब व्यस्त हैं,
कोई नहीं जानता कि, वे क्या कर रहे हैं।
मोबाइल पर हमारी निर्भरता इतनी अधिक हो चुकी है कि, यह हमारी जिंदगियों पर हावी हो रहा है। आज, यह तकनीक अरबों मनुष्यों के लिए इतनी जल्द अनिवार्य बन चुकी है।
प्यू रिसर्च सेंटर (Pew Research Center) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, आज 81% अमेरिकी नागरिकों के पास स्मार्टफोन है।
लेकिन स्मार्टफोन सिर्फ मनोरंजन का साधन नहीं है; यह एक सुरक्षित बैंकिंग उपकरण, एक शक्तिशाली शैक्षिक उपकरण, फ़ोटो और वीडियो के माध्यम से हमारे जीवन का दस्तावेजीकरण करने वाला उपकरण, ऑनलाइन खाना आर्डर करने, तत्काल खरीदारी, एक रोमांचक गेमिंग कंसोल, सटीक जीपीएस (GPS) और विस्तृत और विविध उपयोगिताओं के लिए ऐप्स (Apps) की एक विशाल लाइब्रेरी भी है।
फर्क नही पड़ता कि, हम कहाँ जा रहे हैं, हम हर जगह उन्हें साथ ले जाते हैं और जब हम सुबह उठते हैं तो, सबसे पहली वस्तु यही होती है, जिस तक हम पहुंचते हैं।
अतः यह पहले से ही हमारे दिमाग और शरीर का एक आयाम है,जो क्षमताओं को बढ़ाता है, उत्पादकता बढ़ाता है और उपकरण के इर्द गिर्द हमारे व्यक्तित्व का निर्माण करता है।
मोबाइल का उपयोग हमारी जिंदगियों पर हावी हो रहा है, जिससे अधिक समय स्क्रीन पर व्यतीत हो रहा है। यह कोई भेद नहीं है कि, हम मोबाइल उपकरणों के प्रति मनोग्रहीत समाज हैं।
हालाँकि, तकनीक का उपयोग करने में कुछ भी गलत नहीं है, किन्तु इसका उपयोग करने और इसके प्रति आसक्त होने के बीच एक सूक्ष्म अंतर है।
आज, मोबाइल की लत एक वास्तविक और बढ़ती हुई समस्या बन चुकी है। अधिक से अधिक लोग खुद को अपनी स्क्रीन से दूर नहीं रख पा रहे हैं और यह लत उनके स्वास्थ्य को प्रभावित कर रही है।
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अध्ययन में पाया गया कि, लगभग 60% लोग अपने स्मार्टफोन का उपयोग 'तत्काल संतुष्टि' के लिए करते हैं
स्वास्थ्य
सबसे प्रत्यक्ष में से एक स्वास्थ्य के लिए इसका दुषप्रभाव यह है कि, हर समय फोन को झुककर देखने से यह गर्दन और पीठ दर्द का कारण बन सकता है।
यह आंखों में थकान और सिरदर्द का कारण भी बन सकता है, जिससे कार्यों पर ध्यान केंद्रित करना मुश्किल हो जाता है और नींद की गुणवत्ता भी खराब हो जाती है।
कुछ अलग-अलग तरीके हैं, जिनसे अधिक स्क्रीन समय हमारे स्वास्थ्य के लिए हानिकारक हो सकता है।
सबसे पहले, स्क्रीन से निकलने वाली नीली रोशनी के सोने के तरीकों (स्लीपिंग पैटर्न) को बाधित कर सकती है। यह एक गंभीर समस्या है क्योंकि, रात की अच्छी नींद हमारे संपूर्ण स्वास्थ्य के लिए महत्वपूर्ण है।
दूसरा, पूरे दिन स्क्रीन पर घूरने से सिरदर्द और आंखों की रोशनी भी खराब हो सकती है।
और अंत में, बहुत 'अधिक स्क्रीन समय' को कई मनोवैज्ञानिक समस्याओं से जोड़ा गया है, जैसे कि चिंता, मनोदशा, आत्म-सम्मान और अवसाद (डिप्रेशन)।
मनोवैज्ञानिक
मोबाइल उपकरणों की बढ़ती लोकप्रियता के साथ, आसक्ति(लत) और आत्म-सम्मान के मुद्दों जैसी मनोवैज्ञानिक समस्याएं सतह पर उभरने लगी हैं।
यद्यपि मनोवैज्ञानिक समस्याओं की अक्सर निंदा की जाती है, किन्तु वे वास्तविक हैं और मनोदशा, मानसिक स्वास्थ्य और तंदरुस्ती को गंभीर रूप से प्रभावित कर सकती हैं।
FOMO (दुनिया से लापता होने का डर)
लोगों को अपने मोबाइल फोन की लत लगने के कई कारण हैं। सबसे आम में से एक है 'दुनिया से लापता होने का डर' । सोशल मीडिया के साथ, लोगों पर लगातार अपने मित्रों और परिवार द्वारा छवियों और संदेशों की बौछार हो रही हैं।
उन्हें ऐसा लगता है कि, यदि कुछ महत्वपूर्ण हो जाए तो उस स्थिति में उन्हें हमेशा उपलब्ध रहने की आवश्यकता है। नतीजतन, यह चिंता और असुरक्षा की भावनाओं को जन्म दे सकता है।
तुरंत संतुष्टि
मोबाइल की लत का एक अन्य कारण 'तत्काल संतुष्टि' की आवश्यकता है। 'स्नैपचैट' और 'इंस्टाग्राम' जैसे ऐप के साथ लोग जब भी कोई 'लाइक' या 'कमेंट' प्राप्त करते हैं, तो उनके मस्तिष्क में डोपामाइन(हैप्पी हॉर्मोन) की मात्रा बढ़ सकती है।
यह नशे की लत की तरह भी बन सकती है और लोगों को अन्य कामों को करने के बजाय, अपने फोन पर घंटों बिताने की ओर भी ले जा सकती है।
हाल के एक अध्ययन में पाया गया कि, लगभग 60% लोग अपने स्मार्टफोन का उपयोग 'तत्काल संतुष्टि' के लिए करते हैं। अध्ययन में यह भी पाया गया कि, यह प्रवृत्ति विशेष रूप से युवा लोगों में प्रचलित है, जिसमें 18-24 वर्ष के 70% से अधिक लोग अपने मोबाइल उपकरणों का उपयोग तीव्र आनंद या संतुष्टि के लिए करते हैं।
ऐसे कई कारण हैं, जिनकी वजह से लोग अपने फोन से तीव्र संतुष्टि चाहते हैं। कई लोगों को, सकारात्मक सुदृढीकरण प्राप्त करना बहुत अच्छा लगता है।
नकारात्मक खबरों, तनावपूर्ण जीवन और निरंतर मुकाबले से भरी दुनिया में किसी पोस्ट पर कुछ लाइक प्राप्त करने से हमें हमारे आत्म-सम्मान को बढ़ाने में मदद मिल सकती हैं।
इसके विपरीत, यदि यह शीघ्र परिणाम प्रदान नहीं करता है तो, यह उपयोगकर्ताओं को अधिक उतावला बना सकता है और किसी चीज़ से चिपके रहने की संभावना कम कर सकता है।
यह पाया गया है कि, औसत व्यक्ति प्रति दिन 150 बार अपने फोन को देखता है। 'नोटिफिकेशन' को निरंतर देखने की आवश्यकता बेचैनी और असंतोष की भावना पैदा कर सकती है।
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औसत व्यक्ति प्रति दिन 150 बार अपने फोन को देखता है
इसके अतिरिक्त, अत्यधिक स्क्रीन समय से 'विषाक्त तुलना सिंड्रोम' हो सकता है। सोशल मीडिया पर कोई भी दुखी, गरीब या असफल नहीं दिखता। इसलिए, किसी के जीवन और सोशल मीडिया पर सावधानीपूर्वक चयनित की गई रीलों के बीच की गई तुलना आत्म-मूल्य के ह्रास का कारण बन सकती है।
इसके अलावा, यह दोस्तों और परिवार के सदस्यों के साथ संबंधों और आत्मसम्मान को नुकसान पहुंचा सकता है।
हाल के वर्षों में, मोबाइल फोन की लत के मनोवैज्ञानिक प्रभावों पर चिंता बढ़ रही है। उदाहरण के लिए, 'मैरीलैंड विश्वविद्यालय' के एक अध्ययन में पाया गया कि, जिन लोगों ने अपने फोन पर दिन में दो घंटे से अधिक समय बिताया उनमें अवसाद और चिंता के लक्षणों की शिकायत करने की संभावना अधिक थी।
इसके अलावा, एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि, जो युवा वयस्क अपने फोन के आसक्त (Addicted) हैं, उनमें आत्म-सम्मान कम होने की और 'मूड स्विंग्स' होने की संभावना अधिक होती है। ये अध्ययन मोबाइल फोन की लत और मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं के बीच एक कड़ी का सुझाव देते हैं।
हालांकि, यह ध्यान रखना महत्वपूर्ण है कि, 'सहसंबंध' आवश्यक रूप से 'कारण- कार्य- संबंध' का संकेत नही देता है। दूसरे शब्दों में, मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से पीड़ित लोगों के अपने फोन के प्रति आसक्त होने की संभावना अधिक हो सकती है।
किन्तु 'कारण और प्रभाव संबंध' के बावजूद यह स्पष्ट है कि, मोबाइल फोन की लत के नकारात्मक मनोवैज्ञानिक प्रभाव हो सकते हैं।
सामाजिक जीवन
कई लोगों के लिए, मोबाइल की लत ने उनके सामाजिक जीवन को नकारात्मक रूप से प्रभावित किया है। बहुत से लोग अपने आसपास के लोगों से बातचीत करने और उस पल में मौजूद रहने के बजाय सिर्फ अपने फोन की वजह से वहां से अपना ध्यान हटा देते हैं।
अपने फोन पर केंद्रित लोगों की बातचीत शुरू करने की संभावना कम होती है। नतीजतन, वे आवश्यक बातचीत और आपसी संबंधों की कमी महसूस करते है जो, अकेलेपन और अलगाव की स्थिति की ओर ले जाता है।
हाल के एक अध्ययन के अनुसार, एक सामान्य व्यक्ति अपने फोन पर रोजाना पांच घंटे से अधिक समय बिताता है। यह सिर्फ वयस्क नहीं हैं जो, अपनी स्क्रीन के आदी है बल्कि, बच्चे पहले से कहीं अधिक समय स्क्रीन देखने में बिता रहे हैं।
माता-पिता मोबाइल का उपयोग शांत करने वाले चुसनी(Pacifier) के रूप में बच्चों के लिए कर रहे हैं। कोई आश्चर्य नहीं कि, बच्चे मोबाइल के आदी होते जा रहे हैं और माता-पिता अनजाने में इस बुरी आदत में उनके समर्थक बन रहे हैं।
हाल के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि, 50% ट्वीन्स (8-12 वर्ष के बीच के बच्चे) और किशोरों ने महसूस किया कि, वे अपने मोबाइल उपकरणों के आदी थे।
इस कारण से,वे मित्रों और परिवार के साथ मूल्यवान आपसी संबंधों के अनुभवों और वास्तविक जीवन के संबंधों की खुशियों का सुअवसर खो रहे हैं। यह उनके व्यक्तित्व के विकास को कई तरह से प्रभावित करने वाला है।
किसी इंसान को, मोबाइल सामाजिक अलगाव और अकेलेपन की ओर ले जा सकता है। जब लोग लगातार अपने फोन का इस्तेमाल कर रहे होते हैं तो, वे अपने आसपास के लोगों से बातचीत नहीं करते।
वे आँख से संपर्क या संवाद नहीं कर रहे होते। नतीजतन, वे अपने जीवन में लोगों से संबंध टूटने जैसा महसूस कर सकते हैं और वास्तविकता का विकृत दृश्य देखते हैं।
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अत्यधिक स्क्रीन समय से 'विषाक्त तुलना सिंड्रोम' हो सकता है
इसके अतिरिक्त, मोबाइल की लत से केंद्रित होने और ध्यान देने में दिक्कत की समस्या हो सकती है।
कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के एक शोध अध्ययन में पाया गया कि, जो लोग अत्यधिक मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते थे, उन्हें ध्यान केंद्रित करने और ध्यान देने में परेशानी होने की संभावना अधिक थी।
एक हालिया शोध अध्ययन में यह भी पाया गया कि, पिछले 15 वर्षों में औसत ध्यान अवधि 12 सेकंड से घटकर 8 सेकंड हो गई है।
और अंत में, मोबाइल की लत रिश्तों के लिए हानिकारक हो सकती है। यदि कोई लगातार फोन का इस्तेमाल कर रहा है तो, वह शायद अपने दोस्तों और परिवार पर उतना ध्यान नही दे रहा है, जिसके वे हकदार हैं। बढ़ते तलाक के मामलें भी मोबाइल की लत को एक कारण के रूप में ढूंढ सकते हैं।
सामाजिक मीडिया
हम में से कई लोगों के लिए, यह दोस्तों और परिवार के साथ जुड़े रहने, समाचार और अनुभव साझा करने और खुद को व्यक्त करने का एक तरीका है। जहां निश्चित रूप से इस बढ़ी हुई संयोजकता (कनेक्टिविटी) के कुछ सकारात्मक पहलू हैं, वहीं कुछ कमियां भी हैं।
हालांकि सोशल मीडिया संपर्क में रहने का एक शानदार तरीका हो सकता है, किन्तु इसे वास्तविक जीवन के सामाजिक संपर्क की कीमत पर नहीं आना चाहिए। हम पहले से कहीं अधिक लोगों से जुड़ते हैं, लेकिन वे संबंध अक्सर कम गहरे और सतही होते हैं।
लोग अपने आस-पास के लोगों से बात करने की तुलना में अपनी स्क्रीन को देखने में अधिक समय व्यतीत कर सकते हैं; नतीजतन, वे सार्थक सामाजिक संपर्क को खो रहे हैं।
इसके अतिरिक्त, हमेशा अपना समय फोन को देर तक देखने में व्यतीत करने से यह इंसान को अकेलेपन और असंतोष की भावनाओं की ओर ले जा सकती हैं।
'कंप्यूटर्स इन ह्यूमन बिहेवियर जर्नल' में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि, जो लोग सोशल मीडिया पर अत्यधिक समय बिताते हैं। उनमें सामाजिक दूरी के लक्षणों जैसे अकेलेपन और अलगाव की स्थिति की शिकायत करने की अधिक संभावना होती है।
'साइबरसाइकोलॉजी, बिहेवियर और सोशल नेटवर्किंग' में प्रकाशित एक अध्ययन में पाया गया कि, सोशल मीडिया का उपयोग कम आत्म-सम्मान और आत्म-मूल्य से जुड़ा हुआ है।
अध्ययन के लेखकों ने 1,000 से अधिक वयस्कों का सर्वेक्षण किया और पाया कि, जो लोग सोशल मीडिया का लगातार उपयोग करते थे, उनमें नकारात्मक मनोदशा और मानसिक स्वास्थ्य के मुद्दों की शिकायत करने की अधिक संभावना थी।
सोशल मीडिया रिपोर्ट का उपयोग करने वाले लगभग 60% लोग अकेलापन महसूस करते हैं और 40% का कहना है कि, सोशल मीडिया उन्हें अपने जीवन के प्रति कम संतुष्ट बनाता है।
एक अन्य अध्ययन में पाया गया कि, जो लोग दिन में दो घंटे से अधिक समय तक सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, वे अक्सर उन लोगों से दोगुना अधिक सामाजिक अलगाव महसूस करते हैं जो, दिन में 30 मिनट से कम समय तक इसका उपयोग करते हैं।
लगभग 60% युवा कहते हैं कि, सोशल मीडिया उनके आत्म-मूल्य का एक महत्वपूर्ण स्रोत है। यह परेशान करने वाला है, क्योंकि यह बताता है कि, आबादी का एक बड़ा हिस्सा ऑनलाइन पसंद (likes) और टिप्पणियों (Comments) की संख्या को अपने आत्मसम्मान का आधार बना रहा है।
सोशल मीडिया का उपयोग कम आत्मसम्मान और अवसाद से भी जुड़ा हुआ है।
पिट्सबर्ग विश्वविद्यालय के शोधकर्ताओं ने जो अध्ययन किया उसमें पाया गया कि, जो लोग सोशल मीडिया का उपयोग करते हैं, वे खुद की तुलना दूसरों से करने के लिए अधिक इच्छुक होते हैं, जो उन्हें आत्म-संदेह और अपर्याप्तता (inadequacy) की भावना की ओर ले जाती है।
यह आसक्ति का कारण भी बन सकता है, क्योंकि लोग दूसरों से प्राप्त पुष्टिकरण के आदी हो जाते हैं।
तो लोगों के मनोविज्ञान पर सोशल मीडिया की इतनी पकड़ क्यों है?
इसका एक हिस्सा सोशल मीडिया को डिजाइन करने के तरीके से संबंधित है। ऐसा इसलिए है क्योंकि, सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को अत्यधिक आकर्षित करने के लिए डिज़ाइन किया गया है।
वे विधियों का इस्तेमाल करते है, 'विषय वस्तु' (Content) को वितरित करने के लिए जो उपयोगकर्ताओं को दिलचस्प या महत्वपूर्ण लगने की संभावना होती है। जो उन्हें और अधिक के लिए वापिस सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स पर लाती है।
जो कभी परिवार और दोस्तों के साथ संवाद करने का एक मंच था, वह एक प्रतियोगिता बन गया है जहां, लोग खुद की तुलना दूसरों से करते हैं और अपने "पसंद" या "अनुयायियों" (followers) की संख्या के आधार पर अपने आत्म-मूल्य को मापते हैं।
इसके अलावा, यह एक 'फीडबैक लूप' (प्रतिक्रिया प्रणाली) बना सकता है, जिसके कारण लोग आत्म-मूल्य और पुष्टिकरण के लिए सोशल मीडिया पर तेजी से निर्भर होने लगेंगे ।
निष्कर्ष
"स्मार्टफोन पीढ़ी" समाज के लिए एक जोखिम है। लोग कमज़ोर, मानसिक रूप से अस्थिर और अत्यधिक आतुर होंगे।
इसके अलावा, उनकी वास्तविकता की भावना, आभासी वास्तविकता के करीब होगी, जो महत्वपूर्ण जीवन को परिभाषित करने वाली निर्णय लेने की प्रक्रिया को प्रभावित करेगी।
कल्पना कीजिए कि, भविष्य में, इन गुणों से युक्त व्यक्ति किसी सार्वजनिक कार्यालय में महत्वपूर्ण पद पर आसीन होगा!
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