संभ्रांत वर्गवाद को बढ़ावा देने वाले विद्यालय
भाग -1
संभ्रांत वर्गवाद को बढ़ावा देने वाले विद्यालय
भाग -1
How Education Became Elitist? का हिन्दी रूपांतर
~ सोनू बिष्ट
संभ्रांत वर्गवाद को बढ़ावा देने वाले विद्यालय भाग -1
शिक्षा कैसे संभ्रांतवादी बन गई?
शिक्षा के विषय में ‘अवधारणा’ में बदलाव ।
शिक्षा को किसी न किसी रूप में अनिवार्य और सामाजिक बंधनकारी माना जाता था। हर कोई उच्च शिक्षा या एक विश्वविद्यालय से शिक्षा ग्रहण करने की महत्त्वाकांक्षा रखता था।
क्या कोई किन्हीं भी हालातों या आर्थिक स्थिति में शिक्षा प्राप्त कर सकता था, यह केवल उच्च सामाजिक वर्ग और विशेषाधिकार प्राप्त अमीरों का अधिकार था। समय के साथ विभिन्न देशों ने धीरे -धीरे शिक्षा के प्रति अपनी अवधारणा में बदलाव किए ।
जैसे -जैसे समाज एक आधुनिक युग में रूपांतरित हुए, इसका अनुवाद शिक्षा में समानता हासिल करने के लिए हुआ। आज पिछली सदी की तुलना में लाखों अधिक छात्र विश्वविद्यालय जा रहे है। उस वक़्त शिक्षा का एकमात्र उद्देश्य बौद्धिक क्षमता का पूर्णतः विकास करना था ।
यह दृष्टिकोण 20वीं और 21वीं सदी के उत्तरार्ध में काफी हद तक स्थानांतरित हो गया । धीरे - धीरे समाज शिक्षा की व्यवसायोन्मुख (job -oriented) प्रकृति की तरफ बढ़ गया और शिक्षा द्वारा बौद्धिक क्षमताओं के विकास को उसने पीछे धकेल दिया। अब स्कूली शिक्षा का उद्देश्य ख़ास तौर से भविष्य में आर्थिक मूल्यवर्धित और आर्थिक लाभ से जुड़ चूका है ।
अगर आप ध्यान से देखें, तो वह उपाधियाँ (Degrees) जो शीघ्र पूरी होती है और आर्थिक लाभ (Economic Returns) देती है, अधिकाधिक चुनी जाती है। भले ही उनकी अध्ययन सूची का अर्थ सम्पूर्ण पाठ्यक्रम न हो, फिर भी वह मांग में है। यह संशययुक्त है कि आज की शिक्षा प्रणाली वास्तव में शिक्षा के लिए है या एक प्रशिक्षण प्रणाली, जो अवधि के अंत में एक प्रमाण पत्र प्रदान करती है.
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यह संशययुक्त है कि आज की शिक्षा प्रणाली वास्तव में शिक्षा के लिए है या एक प्रशिक्षण प्रणाली, जो अवधि के अंत में एक प्रमाण पत्र प्रदान करती है
शिक्षा के प्रति इस दृष्टिकोण ने समाज के बौद्धिक विकास के लिए क्या कार्य किया, यह जांच के लिए एक अन्य बिंदु है।
जब एक समाज का व्यवहार, अर्थशास्त्र के आधार पर चुनाव करता है, तब वह सिर्फ व्यापार के लिए ही होता है न कि बौद्धिक खोज की कोशिश में । शिक्षा की अवधारणा ने अपना स्थान व्यापार के समकक्ष पाया है । मांग और आपूर्ति नियंत्रक कारक है और एक विकल्प भी ।
जैसे, कुछ अधिशुल्क (Premium) पाठ्यक्रम भी है, जो छात्रों को आकर्षित करते है और कुछ जो मुफ्त होते हुए भी उन्हें आकर्षित नहीं कर पाते। चाहे कोई पाठ्यक्रमों को पूरा करें या बीच में ही औपचारिक शिक्षा छोड़ दे, कोई सामाजिक उत्तरदायित्व नहीं है.
शिक्षा के प्रति सकारात्मक दृष्टिकोण को कम करने में वित्तीय लेखांकन (Financial accounting) का विषैलापन भी जिम्मेदार है । जैसे की शिक्षा शुल्क उच्च शिक्षा में मूल्यवान बन चुकी है, छात्रों ने भी उच्च शिक्षा में अवसर लागत * (Opportunity cost) पर खर्च हुई निधि (धन) और समय की गणना शुरू कर दी है।
एक छात्र की कमाई की लागत जो छात्र छोड़ देता है एक निर्णायक कारक बन गई है । निम्न आय वाले परिवारों के छात्रों पर उनकी शर्तों के कारण दबाव बना रहेगा । दूसरी तरफ, उच्च विश्वविद्यालयी शिक्षा की तलाश में, अधिक आय वाले छात्र अत्यधिक दबाव में है, ताकि वे अपनी हैसियत को बनाए रख सकें।
* Opportunity Cost - उत्पादक जब किसी साधन विशेष का प्रयोग किसी वस्तु विशेष के उत्पादन के लिए करता है, तब वह दूसरी वस्तु के उत्पादन का त्याग कर देता है, जिसका उत्पादन वह उस साधन विशेष से कर सकता था।
इसका प्रमुख कारण यही है कि वह एक ही समय में उस साधन विशेष से दोनों वस्तुओं का उत्पादन एक साथ नहीं कर सकता। इस प्रकार साधन विशेष के वैकल्पिक प्रयोग के अवसर के त्याग को ही अर्थशास्त्र में अवसर लागत (Opportunity Cost) कहा जाता है।
छात्रों का हाई स्कूल के सीधे बाद, श्रम बल बाजार में प्रवेश करना, सामाजिक रूप से क्षतिकारक होगा, चाहे उनकी नौकरी भविष्य में कितनी ही लाभप्रद क्यों न हो ।
जब शिक्षा की बात आती है, तो इन दिनों भारत भी ऐसे ही एक समान बदलाव के दौर से गुजर रहा है । चूंकि एक विशिष्ट स्तर (Elite Tag) एक विदेशी विश्वविद्यालय की डिग्री के साथ आता है, उच्च आय वाले परिवारों पर, अपने बच्चों को भारत से बाहर के विश्वविद्यालयों में भेजने का घोर दबाव है ।
यही समान चीज चीनी माता - पिता के साथ भी है । जिसके परिणामस्वरूप अमेरिका और ब्रिटेन के विश्वविद्यालयों में अमीर भारतीय और चीनी छात्रों की भीड़ उमड़ पड़ी है । इस विषय पर किए गए अध्ययन प्राथमिक नहीं हो सकते ।
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चूंकि एक विशिष्ट स्तर (Elite Tag) एक विदेशी विश्वविद्यालय की डिग्री के साथ आता है, उच्च आय वाले परिवारों पर, अपने बच्चों को भारत से बाहर के विश्वविद्यालयों में भेजने का घोर दबाव है
यह कोई बहुत पहले की बात नहीं है, जब औपचारिक शिक्षा जीवन का हिस्सा थी । यह सभी बच्चों का पवित्र कर्तव्य था की वे शिक्षित हो एवं माता - पिता का प्रगाढ़ उत्तरदायित्व और राज्य का नैतिक दायित्व भी था । व्यवसायीकरण के साथ, वित्त इकट्ठा करने का दबाव होता है ।
फलस्वरूप, शिक्षा की भावना और उद्देश्य कमज़ोर हो गए है । सभी विकसित देशों में शिक्षा की सार्वभौमिक पहुँच और समानता विरूपित (Distorted) खड़ी है.
अध्ययन शुल्क का कारण ?
प्रतिस्पर्धा बढ़ने और मुक्त बाज़ार के साथ, विद्यालय और शैक्षणिक संस्थानों के आकार और बुनियादी ढाँचे में बढ़ोतरी हुई है । दूसरों पर हावी होने की कोशिश में प्राथमिक विद्यालय या विश्वविद्यालय, शिक्षण और सहायक कर्मचारी प्रतिभा और विशेषज्ञता का क्षेत्र बन गए है ।
इस पेशे से जुड़े लोगों के लिए आवश्यक योग्यता भी बहुत बढ़ गई है.
काफी लम्बी अवधि से कई लोगों ने इसे एक गंभीर आर्थिक पेशे के रूप में लेना शुरू कर दिया है। वह दिन गए, जब शिक्षकों को कम वेतनमान दिया जाता था – और यह घरेलू आय की वृद्धि के लिए अंशकालिक श्रेष्ठ कार्य था ।
आज, क्योंकि एक औपचारिक बाज़ार मौजूद है और एक आधुनिक वेतन दर भी, तो उन्हें उचित वेतनमान दिया जाना चाहिए।
इससे पूर्व, 19 वीं शताब्दी तक शिक्षा को धार्मिक पढ़ाई और संस्थानों के साथ घनिष्ठ रूप से पंक्तिबद्ध (Aligned) किया जाता था। गिरजाघर, मदरसे, गुरुकुल यह सभी शिक्षा प्रदान करते थे ।
इन सभी संस्थानों का निधिकरण (Funding) राज्य और संरक्षकों द्वारा होता था । एक विद्यालय को वित्त सहायता देकर चलाने में छात्र बहुत कम ही उत्तरदायी होते थे ।
यह कार्यप्रणाली कई शताब्दियों तक रही जब तक कि शिक्षा का मुद्रीकरण, पश्चिम का एक प्रतिरूप (Model) नहीं बन गया, मुख्यतः अमेरिका में व्यावसायिक प्रतिष्ठानों ने अपने विद्यालय और विश्वविद्यालय शुरू कर दिए, शिक्षा के एक ऐसे प्रकार को परिभाषित करने के लिए जो आर्थिक लाभ के लिए प्रदान की जाती है।
प्रतिद्वंदिता ने व्यवसाय के तंत्र का विस्तार किया और निरंतर यह एक लाभदायक प्रास्ताविकी (Proposition ) बनता गया। इसकी वृद्धि ने शिक्षा को राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था का एक महत्वपूर्ण क्षेत्र बना दिया।
अधिकांश परिवार और उनकी आय बच्चों के निधिकरण के लिए धन के इर्द-गिर्द घूमने लगी । समाज की साधारण मनोवृत्तियाँ (Psyche) भी बदल गई, फलस्वरूप, यह मुख्य रूप से पश्चिम में देखा गया ।
शिक्षा के वित्तपोषण के भार को सरकारों ने महसूस किया और इसे संतुलित करने के लिए तेजी से शिक्षा में खर्च होने वाले धन में कटौती करनी शुरू कर दी ।
क्यों कोई और किसी अन्य के बच्चे की शिक्षा के कर (टैक्स ) का भुगतान करें? राष्ट्र को पूर्ण रूप से (उचित ढंग से) शिक्षित करने का कर्तव्य समाज की भूमिका से हटकर अधिक व्यक्तिगत भूमिका की ओर स्थानांतरित हो गया ।
बाद में, नीति निर्माताओं ने इस व्यक्तिवाद का लाभ उठाया, राज्य को देश को शिक्षित करने के ‘कार्यक्षेत्र’ से हटाने के लिए ।
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व्यावसायिक प्रतिष्ठानों ने अपने विद्यालय और विश्वविद्यालय शुरू कर दिए , शिक्षा के एक ऐसे प्रकार को परिभाषित करने के लिए जो आर्थिक लाभ के लिए प्रदान की जाती है
शिक्षा को विकास की दृष्टि से कैसे देखा जाना चाहिए? इस सोच में महत्वपूर्ण बदलाव आया । 1900 के दशक की शुरुआत से, अमेरिकी प्रणाली ने शिक्षा विशेष रूप से चिकित्सा शिक्षा को कुछ लोगों का विशेष सुविधा प्राप्त अधिकार बनाने के लिए काम किया है ।
उदाहरण के लिए, फ्लेक्सनर (Flexner) रिपोर्ट को परिभाषित करने वाले पथ ने अफ्रीकी अमेरिकी मेडिकल स्कूलों की उपयुक्तता पर सवाल उठाया। उनकी विवादास्पद रिपोर्ट ने अमेरिका को शिक्षा में जातीय विभाजन को संस्थागत बनाने में मदद की ।
इसने “महिलाओं और पुरुषों की सहशिक्षा की सिफारिश की, लेकिन जातीय अलगाव को स्वीकार किया” । यह शिक्षा को संभ्रांतवादी बनाने की दिशा में पहला कदम था, जिसने दुनियाभर में कई सरकारों को इसमें उलझा दिया।
मेडिकल स्कूलों से लेकर अन्य व्यावसायिक विषयों तक, कई व्यावसायिक प्रतिष्ठानों ने शिक्षा के वित्तीय मॉडल को अपनाया है। पूंजीपतियों को शिक्षा के व्यवसाय से लाभ कमाने का एहसास हुआ और यह विचार अमेरिका से फैला ।
यहां तक की जिन देशों ने अपनी आबादी के लिए मुफ्त शिक्षा की शुरुआत की थी, वे भी समय के साथ अचानक से वित्तीय मॉडल में बदल गए.
आज, शिक्षा मॉडल के घटक है सरकारी सहायता, व्यक्तिगत अनुदान और छात्र शिक्षण शुल्क । पहले दो घटकों के प्रदर्शन पर निर्भर करता है कि छात्र शिक्षण का शुल्क कितना ऊपर बढ़ता है।
इंग्लैंड में, 2008 के वैश्विक वित्तीय संकट के बाद, सरकार अपनी वित्त अर्थव्यवस्था पटरी पर लाने के लिए संघर्ष कर रही थी । जिसका बुरा प्रभाव विश्वविद्यालयों पर पड़ा, और परिणामस्वरूप शिक्षण शुल्क में तीन गुना अधिक वृद्धि हुई ।
जब तक एक अंग्रेजी छात्र स्नातक की पढ़ाई पूरी करता है, तब तक 50,000 पाउंड खर्च हो चुके होते है । अमेरिका में स्नातक और स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए भी लगभग इतना ही खर्चा विद्यमान है । माता-पिता इस ऋण को निजी रूप से अदा करें या छात्र बैंक से ऋण ले, यह व्यक्तिगत पारिवारिक स्थितियों पर निर्भर करता है।
कनाडा ने परिचालन लागत के 24 -28 प्रतिशत के नीति मानक (पॉलिसी) (policy standard) को पूरा करने के लिए शुल्क बढ़ाया। इसके अतिरिक्त, 60 के दशक के मध्य में, संघीय और अंतः कालीन छात्र सहायता को समाप्त कर दिया गया था ।
स्नातक आय के आधार पर क़र्ज़ अदायगी (Repayments) के साथ एक पूर्ण ऋण योजना (All - loan plan) शुरू की गई थी ।
छात्रों पर वित्तीय बोझ निश्चित रूप से श्रमसाध्य (Straining) है ।
चूंकि शिक्षण संस्थानों को अपने फंड की व्यवस्था करनी थी, इसलिए आवश्यकता को पूरा करने के लिए वित्तीय नवाचार * (financial innovation) शुरू हो गए ।
छात्र शिक्षण शुल्क बढ़ाने के अलावा, अतिरिक्त धन खोजने के लिए विभिन्न तरीके भी ढूँढे गए, या तो छात्रों से वैकल्पिक सेवाएँ प्रदान करके या दान के बदले में सीटें बेचकर । छात्रों पर लगाए जाने वाले सहायक और आकस्मिक शुल्क के साथ वे सृजनात्मक तरीके लेकर आए.
* Financial innovation - वित्तीय नवाचार, नए वित्तीय साधनों के साथ-साथ नई वित्तीय प्रौद्योगिकियों, संस्थानों और बाजारों को बनाने का कार्य है.
सुनिश्चित छात्र शुल्क खोजने के एक उदाहरण के रूप में, अमेरिका के विश्वविद्यालयों में विरासत में प्रवेश हुए है । उन पूर्व छात्रों जो ,अब माता - पिता है उनके बच्चों को तरजीह (Preference) दी जाती है और उन्हें प्रवेश मिलता है ।
कुछ विश्वविद्यालयों ने विरासत प्रवेश का विस्तार करते हुए पोते, भाई -बहनों, भांजे -भतीजों तक को प्रवेश दिया है । हालांकि यह पद्धति विवादास्पद है, लेकिन यह प्रथा अभी भी जारी है ।
वर्तमान में, आईवी संघ (IVY League) के विश्वविद्यालयों में 10 % से 15 % विरासत में प्रवेश है । फलस्वरूप, यह पहले से ही महँगी शिक्षा में उपलब्धता (Accessibility) और समानता को तोड़ - मरोड़ देता है ।
उच्च शिक्षा को जानबूझकर (सोच -समझकर ) महंगा क्यों बनाया जाता है?
यह देश के आर्थिक प्रदर्शन (निष्पादन )में एक कारक है । शिक्षण शुल्क देश की जी डी पी (GDP) बढ़ाता है । इसलिए, सरकारों को महंगी शिक्षा प्रणाली शुरू करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है ।
अमेरिका का शिक्षा उद्योग लगभग 1 । 5 ट्रिलियन डॉलर (लगभग 120 लाख करोड़ रुपये) है । यदि अमेरिकी शिक्षा क्षेत्र, एक देश होता, तो यह जी डी पी (GDP) में श्रेष्ठ 10 देशों के श्रेणी में होता ।
प्रारम्भ में, छात्र अपनी शिक्षा के लिए आंतरिक वित्त -व्यवस्था कर रहे थे । अब मदद के लिए विशिष्ट ऋण योजनाएं है । यह ऋण योजनाएं छात्रों को उनकी शिक्षा को पूरा करने में मदद करती है किन्तु उन्हें उच्च ऋण के साथ अपना रोज़गार शुरू करना पड़ता है ।
छात्र ऋण द्वारा शिक्षा के वित्तपोषण का प्रतिरूप, अर्थव्यवस्था के अनुकूल है । प्रारम्भ में ऋण, फिर ब्याज आर्थिक गतिविधियों को आगे बढ़ाता है । शिक्षा का शुल्क जितना अधिक होगा, ऋण उतना ही अधिक होगा ।
छात्र ऋण की कीमत पर शैक्षणिक संस्थान भी अधिक समृद्ध हो जाते है, और विश्वविद्यालय चलाने वाले उन व्यावसायिक प्रतिष्ठानों के लिए लाभ का केंद्र बन जाते है । शिक्षा से लाभ उठाकर वे प्रतिस्पर्धा में आगे रहने के लिए निवेश करते है, और इस छात्र ऋण के प्रतिरूप से पूरा आर्थिक चक्र सुचारु रूप से चलता है ।
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जायज तौर पर, छात्रों को केवल अपने विद्या सम्बन्धी कार्यों में ध्यान केंद्रित करना चाहिए
बौद्धिक विकास के 'उद्देश्य' का पालन करने के बजाय, मुक्त बाजार अर्थव्यवस्था शिक्षा को आगे बढ़ाता है । वे सिर्फ मांग और आपूर्ति पर आधारित होता है । जब यह प्रतिरूप अंतर्राष्ट्रीय सीमाओं को पार करता है, तो घरेलू देशों में ये शैक्षिक सेवाएं अंतर्राष्ट्रीय छात्रों को धन के साथ आयात करती है ।
जब अंतर्राष्ट्रीय छात्र इस संभ्रांतवादी विश्वविद्यालय में पहुंचते है, तो वह उपभोक्ता होते है और उस देश की अर्थव्यवस्था का पालन पोषण करते है । इस प्रतिरूप की विडंबना यह है कि अधिकांश अंतर्राष्ट्रीय छात्र, विकासशील देशों के धनी लोग होते है ।
वह धन, जो अपने गृह देशों में संचारित होना चाहिए था, अब अमीर देशों में संभ्रांतवादी विश्वविद्यालयों के जरिये यह खींच लिया जाता है ।
ऑस्ट्रेलिया में, विश्वविद्यालयों को निम्न सामाजिक - आर्थिक पृष्ठभूमि के घरेलू छात्रों के लिए वित्तीय सहायता बढ़ाने के लिए दबाव का सामना करना पड़ रहा है ।
आठ शीर्ष विश्वविद्यालयों (आठ का समूह ) जिनके पास लगभग 1,00,000 अंतर्राष्ट्रीय छात्र है, इन्होंने अन्य घरेलू छात्रों के लिए अपना 'शिक्षण शुल्क' बढ़ा दिया है ।
छात्रों को अपने कीमती अध्ययन समय और केंद्र - बिंदु का त्याग करते हुए अपने खर्चो को पूरा करने के लिए न्यूनतम मजदूरी पर विषम कार्य करने पड़ते है । यह छात्रों के लिए दोहरी मार है ।
एक तो वह धन के लिए गहरे दबाव में है और दूसरा अध्ययन के लिए अनुकूल समय के लिए । अधिकांश देशों में, जहां छात्र आधिकारिक तौर पर काम आरंभ करते है, उन्हें सप्ताह में 20 घंटों की अनुमति है ।
जहां तक छात्रों का सम्बन्ध है, यह पूर्ण निरर्थक घंटे है। जायज तौर पर, छात्रों को केवल अपने विद्या सम्बन्धी कार्यों में ध्यान केंद्रित करना चाहिए।
समय के साथ समाज के लोगों ने, विषम कार्य करके अपने पढ़ाई के लिए भुगतान करने वाले छात्रों का महिमामंडन करना शुरू कर दिया है।
यहां पर अर्थशास्त्रियों के लिए यह समझना जरूरी है, कि खोया हुआ अध्ययन समय एक देश के लिए खोया हुआ अवसर होगा, जिसमें वह उच्च गुणवत्ता वाले नागरिक बना सकता है।
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