भारत में पत्रकारों के साथ ये क्या हो रहा है?
भारत में पत्रकारों के साथ ये क्या हो रहा है?
What's Happening to Journalists in India? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
भारत में, जहां विविधता तो पनपती है, लेकिन विरोध का अक्सर, गला घोंट दिया जाता है। ऐसे में प्रेस ही वह शक्ति है जो, सत्ता पर सवाल उठाने, सच्चाई को उजागर करने और हाशिए पर पड़े लोगों को आगे बढ़ाने का साहस रखती है।
फिर भी, यह अत्यावश्यक संस्थान घेराबंदी के तहत है।
पत्रकारिता को सेंसरशिप, कॉर्पोरेट प्रभाव और यहां तक कि हिंसा का सामना करना पड़ रहा है। भारतीय समाज प्रगति और ध्रुवीकरण के बीच बीच भ्रमित हो रहा है, पत्रकारिता की भूमिका कभी भी इतनी महत्वपूर्ण नहीं रही।
अगर आप ध्यान से देखें तो यह सिर्फ़ एक पेशा नहीं है, बल्कि लोकतंत्र की धड़कन है।
दुर्भाग्य से छत्तीसगढ़ के बस्तर के घने जंगलों से एक और ऐसी ही धड़कन खामोश हो गई है। मुकेश चंद्राकर (Mukesh Chandrakar) बस्तर के एक *स्वतंत्र पत्रकार (Freelance journalist) थे।
उन्होंने अपनी ग्राउंड रिपोर्टिंग के ज़रिए आदिवासियों की आवाज बनकर पत्रकारिता की भूमिका को उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया ।
उन्होंने सरकार और नक्सली आंदोलन के बीच की खाई को पाटा और आदिवासी समुदायों की व्यथाओं पर बहादुरी से प्रकाश डाला और उनके अधिकारों की वकालत की। वे नक्सलियों द्वारा बंधक बनाए गए एक सरकारी अधिकारी की रिहाई में भी शामिल थे।
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पत्रकारिता सिर्फ़ एक पेशा नहीं है, यह लोकतंत्र की जीवन रेखा है, यह एक राष्ट्र की धड़कन है
बाद में 2024 में, चंद्राकर के खोजी कार्य ने सड़क निर्माण में घोटाले का पर्दाफाश किया, जहाँ अनुबंध (Contract) को बिना किसी बदलाव के 50 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 120 करोड़ रुपये कर दिया गया। इस निडर रिपोर्टिंग ने एक ऐसे मुद्दे पर जवाबदेही लाई जो अनियंत्रित रह सकता था।
लेकिन दुख की बात है कि कुछ ही दिनों बाद उनकी जान चली गई क्योंकि, उनकी हत्या उन्हीं लोगों ने कर दी जो इस भ्रष्टाचार में शामिल थे।
भारत में पत्रकारिता के सामने गंभीर चुनौतियां हैं, क्योंकि भारतीय अधिकारी और सत्ता में बैठे लोग, विरोध जताने के कारण पत्रकारों और ऑनलाइन आलोचकों को निशाना बना रहे हैं।
वे पत्रकारों की आवाज दबाने के लिए *राजद्रोह (Sedition) और आतंकवाद-रोधी (Counter- terrorism) कानूनों जैसे तरीकों और हथियारों का इस्तेमाल करते रहे हैं।
उदाहरण के लिए, उत्तर प्रदेश में 2017 से अब तक कम से कम 66 पत्रकारों के खिलाफ आपराधिक मामले दर्ज किए गए हैं और 48 अन्य को शारीरिक हमलों का सामना करना पड़ा है। इस तरह की कार्रवाइयां उत्तर प्रदेश में लोकतंत्र के बुनियादी सिद्धांतों को खत्म कर रही हैं।
इसी तरह, जम्मू-कश्मीर में पत्रकारों को 2019 से ही राज्य के विशेष दर्जे, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 370 को निरस्त करने के बाद से ही धमकियों का सामना करना पड़ रहा है। इंटरनेट बंद कर दिया गया था और शारीरिक छापेमारी और पूछताछ की गई थी।
कई बार पत्रकारों के डिवाइस जब्त किए जाने से क्षेत्र में प्रेस की स्वतंत्रता पर ही अंकुश लगा है। देश के बाकी हिस्सों को पता ही नहीं कि जम्मू-कश्मीर में वास्तव में चल क्या रहा है।
हालांकि, जम्मू-कश्मीर में लोकतंत्र सक्रिय है, फिर भी 35 से अधिक पत्रकारों को पुलिस कार्रवाई का सामना करना पड़ा है, और इससे उनके लिए जम्मू-कश्मीर में काम करना कठिन होता जा रहा है।
यह समझ में आता है कि जम्मू-कश्मीर राष्ट्रीय सुरक्षा का एक संवेदनशील मुद्दा है, लेकिन फिर देश के बाकी हिस्सों को यह जानने का अधिकार है कि सरकार जम्मू-कश्मीर में राष्ट्रीय सुरक्षा की समस्या का समाधान कैसे कर रही है।
हाल ही में, हमने राजद्रोह और मानहानि जैसे कानूनों के साथ-साथ पेगासस स्पाइवेयर जैसे उन्नत निगरानी उपकरणों का दुरुपयोग भी देखा है।
असहमति की आवाज़ उठाने वाले कई वरिष्ठ पत्रकारों को पेगासस स्पाइवेयर के ज़रिए निशाना बनाया गया और इससे पत्रकारों की सुरक्षा और उनके पेशे को लेकर गंभीर चिंताएँ पैदा हो गई हैं।
मोहम्मद जुबैर की गिरफ़्तारी की ताज़ा घटना सिर्फ़ पत्रकार के कानूनी उत्पीड़न को उजागर करती है। जुबैर ऑल्ट न्यूज़ के सह-संस्थापक हैं और ऑल्ट न्यूज़ समूह, जो एक स्वतंत्र पत्रकार समूह है, भारत में राजनीति के मौजूदा दौर में तथ्य-जांच और फ़र्जी ख़बरों को रोकने में बेहतरीन काम कर रहा है।
उनके पास महत्वपूर्ण ग़लत सूचनाओं की तथ्य-जांच करने का एक बेदाग रिकॉर्ड है जो किसी समुदाय की शांति को बाधित कर सकती थी।
तथ्य-जांच के क्रम में, जुबैर ने साक्ष्य के तौर पर अभद्र भाषा के एक उदाहरण को रीट्वीट किया, तथा जवाबदेही के लिए यूपी पुलिस को टैग किया।
विडंबना यह है कि मोहम्मद जुबैर को इसलिए गिरफ्तार किया गया क्योंकि यूपी पुलिस अब जुबैर पर नफरत भरे भाषण को रीट्वीट करने और सांप्रदायिक सद्भाव को बिगाड़ने का प्रयास
करने का आरोप लगा रही है, जबकि इसमें संलग्न व्यक्ति, जिसे नफरत भरे भाषण के लिए ढूंढा जा रहा था, अब भी पुलिस की गिरफ्त से बाहर है।
ये कुछ उदाहरण हैं जो भारत में पत्रकारिता की स्थिति और विरोध की आवाज के साथ किए जा रहे व्यवहार को दर्शाते हैं।
इस तरह के उदाहरण केवल कानूनी आतंकवाद के बराबर बढ़ते कानूनी उत्पीड़न को रेखांकित करते हैं, जिसका सामना स्वतंत्र पत्रकारों और समाज के मुद्दों को उठाना चाहने वाले स्वतंत्र पत्रकारों को करना पड़ता है।
सरकार की नीतियों के खिलाफ़ आवाज़ उठाने वाली एक मज़बूत आवाज़ राणा अय्यूब को भी लगातार उत्पीड़न और ऑनलाइन दुर्व्यवहार का सामना करना पड़ता है। हाल ही में, उन्हें पत्रकारिता के एक कार्यक्रम में बोलने के लिए ब्रिटेन जाने से रोक दिया गया था।
उन पर कर चोरी और मनी लॉन्ड्रिंग के साथ-साथ अन्य अपराधों का आरोप लगाया गया था और अभी तक कुछ भी साबित नहीं हुआ है।
इसमें कोई संदेह नहीं है कि ये सरकार के खिलाफ असहमति की आवाज उठाने वालों को परेशान करने के कुछ उपकरण और तरीके मात्र हैं।
कुल मिलाकर, इस चित्र का वास्तव में क्या अर्थ है?
इसका मतलब यह है कि जब भी सरकार तानाशाही पर बढ़ती है, तो वे प्रेस की स्वतंत्रता पर और अधिक सख्ती से अंकुश लगाना शुरू कर देते हैं और प्रेस को भय और जांच के ज़रिए दबा देते हैं। सरकार के अधिक तानाशाही बनने के साथ ही ये प्रवृत्तियाँ बढ़ती जाती हैं।
तो फिर सरकारें पत्रकारों से क्यों डरती हैं?
इसका एक ही कारण है। अच्छी पत्रकारिता सत्तावादी शासन को डराती है और कदाचार को उजागर करती है। यह सरकार द्वारा निर्धारित की जा रही बातों के विपरीत एक वैकल्पिक आख्यान प्रदान करती है।
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नवीनतम विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (The latest world press freedom index ) में, भारत का स्थान बहुत खराब 159 वाँ है
कुल मिलाकर प्रेस समाज में जवाबदेही की भावना पैदा करती है, अक्षमताओं को उजागर किया जाता है और निश्चित रूप से, भ्रष्टाचार और अक्षमताओं को उजागर करके, राजनीतिक करियर दांव पर लग जाता है।
सरकार अपना प्रचार-प्रसार और आख्यान खोने लगती है और राज्य को डर लगता है कि अत्यधिक असंतोष सरकार के विरुद्ध सामाजिक अशांति को जन्म दे सकता है।
प्रेस की स्वतंत्रता के मामले में भारत की स्थिति बहुत अच्छी है। किन्तु, 2024 में सर्वेक्षण किए गए 180 देशों में से, नवीनतम विश्व प्रेस स्वतंत्रता सूचकांक (The latest world press freedom index ) में, भारत का स्थान बहुत खराब 159वाँ है।
कार्यशील लोकतंत्र के लिए, 159 से अधिक खराब भारत की रैंकिंग नहीं हो सकती।
इसका मुख्य कारण सरकारी हस्तक्षेप, राजद्रोह कानून का प्रयोग तथा मीडिया पर दबाव है।
प्रेस की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने की दूसरी रणनीति रिलायंस इंडस्ट्रीज और अडानी समूह जैसे मीडिया समूह हैं। उन्होंने उन प्रेस आउटलेट्स को खरीदना शुरू कर दिया है।
असल में, वे संपादकीय सामग्री को प्रभावित कर रहे हैं और पत्रकारिता की स्वतंत्रता को कम कर रहे हैं। कई पत्रकार जो कभी उन मीडिया हाउस में स्वतंत्र माने जाते थे, उन्होंने अपना खुद का काम शुरू कर दिया है या खरीद के बाद शांत हो गए हैं।
भारत में स्वतंत्र पत्रकारिता और प्रेस की स्वतंत्रता का पतन हो रहा है।
अगर देश घटिया पत्रकारिता, सरकार में दिलचस्पी रखने वाले मीडिया घरानों और गोदी मीडिया का अभ्यास करने की अनुमति देता है या पत्रकारों को भारत के प्रधानमंत्री से किंडरगार्टन स्तर के सवाल पूछने की अनुमति देता है, तो भारत की बुनियादी संरचना को चुनौती मिलेगी।
नतीजतन, यह समाज में भ्रष्टाचार को अनियंत्रित छोड़ देगा और ध्रुवीकरण और विभाजन के लिए असुरक्षित होगा। यह विभाजन वर्तमान भारत में पहले से ही दिखाई दे रहा है।
खराब पत्रकारिता के कारण हम इस महान देश की प्रगति को अवरुद्ध करने जा रहे हैं। यह केवल गरीबी, असमानता और पर्यावरण क्षरण को बढ़ावा देगा।
आबादी वनों की कटाई या पर्यावरण क्षरण को बढ़ावा देने वाली किसी भी नीति से अनजान रह सकती है। इसके परिणाम कई और खतरनाक हैं।
विडंबना यह है कि वर्तमान भारतीय प्रधानमंत्री श्री मोदी ने 2014 में पदभार ग्रहण करने के बाद से एक भी प्रेस कॉन्फ्रेंस को संबोधित नहीं किया है। प्रेस की जांच के बिना उन्हें 10 साल से अधिक समय हो गया है।
पत्रकार उस प्रेस कॉन्फ्रेंस में भाग लेने का साहस क्यों नहीं कर रहे हैं?
दूसरी ओर, सभी अमेरिकी राष्ट्रपति, सभी ब्रिटिश प्रधान मंत्री, फ्रांसीसी राष्ट्रपति, जापानी प्रधान मंत्री अक्सर अपने देश के पत्रकारों के साथ-साथ विदेशी पत्रकारों के भी सवालों का जवाब देते हैं।
पत्रकारिता सिर्फ़ एक पेशा नहीं है। यह लोकतंत्र की जीवन रेखा है। यह एक राष्ट्र की धड़कन है।
भारत भाग्यशाली रहा है कि इसके निर्माण में उत्कृष्ट पत्रकारिता का भी महत्वपूर्ण योगदान रहा। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम को बाल गंगाधर तिलक जैसे पत्रकारों ने आकार दिया, जिन्होंने केसरी
और मराठा अखबारों में लिखा, गोपाल कृष्ण गोखले सुधारक के संपादक थे और महात्मा गांधी ‘हरिजन’ और ‘यंग इंडिया’ जैसे अखबारों में लिखते थे , लाला लाजपत राय ‘कोहिनूर’, ‘वंदे मातरम’ और ‘द पीपल’ के संपादक थे ।
उनके प्रकाशनों ने राष्ट्रवादी विचारों का प्रसार किया, जनमत को संगठित किया और नेताओं को ब्रिटिश शासन के खिलाफ असहमति जताने के लिए मंच प्रदान किया।
उन्होंने पत्रकारिता को भारत की स्वतंत्रता और पूर्ण स्वराज के लिए एक पद्धति के रूप में इस्तेमाल किया है । इसलिए पत्रकारिता भारतीय लोकतंत्र का एक अनमोल हिस्सा है।
पत्रकारिता की ताकत को और बेहतर तरीके से समझने के लिए हम 1983-84 के भोपाल शहर का उदाहरण देते हैं। राजकुमार केसवानी (Rajkumar keswani) नाम के एक पत्रकार ने भोपाल में यूनियन कार्बाइड प्लांट में सुरक्षा संबंधी चूक के बारे में पहले ही चेतावनी दे दी थी।
यह खोजी पत्रकारिता की ताकत का एक उदाहरण है।
उन्होंने "भोपाल ज्वालामुखी पर बैठा है" (Bhopal sitting on a volcano) नामक एक महत्वपूर्ण लेख लिखा और यूनियन कार्बाइड प्लांट में सुरक्षा उल्लंघनों को उजागर किया। लेख में दी गई चेतावनी को अधिकारियों ने नज़रअंदाज़ कर दिया।
उन्होंने मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री को भी पत्र लिखा।
दुखद बात यह है कि उनकी चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया गया और हम जो देख रहे हैं वह अमानवीय स्तर का इतिहास है?
यूनियन कार्बाइड फैक्ट्री में हुए रिसाव की परिणति 1984 की कुख्यात भोपाल गैस त्रासदी के रूप में हुई, जो मानव इतिहास की सबसे खराब औद्योगिक आपदाओं में से एक है।
अब कल्पना कीजिए, अगर स्वतंत्र पत्रकार राजकुमार केसवानी (Rajkumar Keswani) की चेतावनी को गंभीरता से लिया गया होता तो हजारों मासूमों की जान बच जाती और लाखों लोग, जो आज भी जहरीली गैस की चपेट में हैं, बच जाते। भोपाल का इतिहास आज से बिल्कुल अलग होता।
यही अच्छी पत्रकारिता की शक्ति है, जो पूरी सक्रियता से किसी दुर्घटना को होने से रोक सकती है और इसलिए एक लोकतंत्र के रूप में भारत को पत्रकारिता की स्वतंत्रता की रक्षा करने की आवश्यकता है।
पत्रकारिता को जरुरत होती है साहस और समर्पण की क्योंकि अन्याय को उजागर करने और हाशिए पर पड़ी आवाज़ों को बुलंद करके सत्ता में बेठे लोगों को उनके प्रति जवाबदेह ठहराने के लिए कड़ी मेहनत करना बहुत मुश्किल है।
इन सभी तथ्यों को जानते हुए भी, पत्रकारिता का यह महत्वपूर्ण पेशा और संस्थान, भारत में नाजुक स्थिति में है और अपने अस्तित्व के संकट से जूझ रहा है ।
सेंसरशिप, हिंसा, जीवन का खतरा , कॉर्पोरेट प्रभाव, कानूनी आतंकवाद, ये सभी स्वतंत्र और निडर होकर काम करने की इसकी क्षमता को कमजोर कर रहे हैं।
पत्रकारिता की अनदेखी करना लोकतंत्र की आत्मा की अनदेखी है।
व्यापक और गहन पत्रकारिता का एक बहुत अच्छा नमूना हमारे आस-पास से देखा जा सकता है। हमारे घरों, मोहल्ले, गलियों, शहरों, गांवों में नज़र डालने पर दर्जनों समस्याएं नज़र आएंगी।
अब यह मूल्यांकन करना आसान होगा कि कितने अख़बारों या पत्रिकाओं ने असल में आपके स्थानीय क्षेत्र की मुद्दों को उठाया है।
यह हमारे स्थानीय क्षेत्रों में पत्रकारिता की गहराई, उसकी गहनता और भारतीयों द्वारा समर्थित पत्रकारिता की गहराई को परिभाषित करेगा।
इससे पहले कि बहुत देर हो जाए, इससे पहले कि भारत लोकतंत्र से सत्तावादी लोकतंत्र की ओर चला जाए जो कि आसानी से नियंत्रण से बाहर चला जाता है, समय है आत्मनिरीक्षण करने का और पत्रकारों और उनकी पत्रकारिता को बचाने का।
* राजद्रोह कानून का मसौदा पहली बार 1837 में थॉमस मैकाले द्वारा तैयार किया गया था और 1870 में जेम्स स्टीफन द्वारा भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) में धारा 124ए के रूप में जोड़ा गया था। धारा 124ए के अनुसार, राजद्रोह कानून का अर्थ है "जो कोई भी, शब्दों द्वारा, या तो मौखिक या लिखित, या संकेतों द्वारा, या दृश्य प्रतिनिधित्व द्वारा, या अन्यथा, कानून द्वारा स्थापित सरकार के प्रति घृणा या अवमानना लाता है या लाने का प्रयास करता है, या असंतोष को उकसाता है या भड़काने का प्रयास करता है, उसे आजीवन कारावास से दंडित किया जाएगा, जिसमें जुर्माना जोड़ा जा सकता है।
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