क्या भारत को दुनिया का संभरण करना चाहिए?
क्या भारत को दुनिया का संभरण करना चाहिए?
Should India Feed the World? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
भारत, दुनिया के अग्रणी कृषि उत्पादकों और तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक है, जिसमें एक संपन्न कृषि क्षेत्र है जो अपने नागरिकों के लिए प्रचुर मात्रा में भोजन का उत्पादन करता है।
देश में जलवायु अनुक्षेत्रों (Climate zones) और मिट्टी के प्रकारों की एक विस्तृत श्रृंखला है, जो फसलों की एक विस्तृत श्रृंखला को उगाने की अनुमति देती है।
नतीजतन, भारत चावल, गेहूं, मक्का, गन्ना और आलू जैसे कई प्रमुख खाद्य पदार्थों में आत्मनिर्भर है। इसके अलावा, भारत दुनिया के सबसे बड़े खाद्य निर्यातकों में से एक है, जिसका निर्यात 2016-17 में 39 अरब 50 करोड़ डॉलर था।
आखिरकार, आवश्यकता के समय में दुनिया के लिए भोजन उपलब्ध कराना या न करवाना एक जटिल समस्या है, जिसे संभावित जोखिमों और प्रतिफलों पर अवश्य विचार करना चाहिए।
लेकिन जैसा कि, देश संकट के इस समय में वैश्विक मंच पर अपने पदचिह्न का विस्तार करना चाहता है, यह एक वैध सवाल है, कि क्या भारत को दुनिया के बाकी हिस्सों को खाना खिलाने में मदद करने के लिए और अधिक सहयोग करना चाहिए।
दुनिया का पेट भरना एक मानवीय कार्यवाई है, और भारत हमेशा शांति और मानवता के लिए खड़ा रहा है। हालाँकि, कुछ समस्याएं हैं, जिन पर हमें इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेने से पहले विचार करने की आवश्यकता है।
इन कारकों में अर्थशास्त्र, संसाधनों तक पहुंच, जनमत और सरकारी नीति शामिल हैं ।
एक तरफ़, भारत के लिए 'विदेशी सहायता पहलों' में अधिक शामिल होने के कई दमदार कारण हैं, तो दूसरी तरफ यह वैश्विक मंच पर एक महत्वपूर्ण खिलाड़ी है जिसे उनकी मदद करनी चाहिए जो जरूरतमंद है।
अतीत में, जब भारत अपनी आबादी को खाना खिलाने में विफल रहा था , तब अन्य देश इसके समर्थन में आए थे।
इसलिए, अब यह दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं में से एक के रूप में 'सॉफ्ट पावर' (सह चुनने की क्षमता) का उपयोग करने और जरूरतमंदों का समर्थन करने के लिए नैतिक रूप से उत्तरदायी है।
उसके साथ- साथ, हालांकि, भारत के संसाधन सीमित हैं, और कुछ लोगों में यह चिंता भी है, कि देश ने अन्य देशों का पेट भरने की कोशिश में खुद को बहुत ज्यादा व्यस्त तो नही कर लिया, जबकि वह अपनी जरूरतों को पूरा करने के लिए अभी भी काम कर रहा है।
इसलिए, यद्यपि यह वास्तव में एक 'महान इशारा' है, फिर भी पहले हमें यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता है, कि इतनी बड़ी जिम्मेदारी लेने से पहले भारत ने खुद को अपने सामाजिक, आर्थिक और सुरक्षा जोखिमों से सुरक्षित कर लिया है।
भारत को एक अरब से अधिक आबादी का भरण पोषण करना है। यह महामारी के बाद, पहले से ही 80 करोड़ लोगों का पेट भर रहा है।
पिछले कुछ वर्षों से भारत के पास अच्छी फसल का एक बड़ा 'बफर स्टॉक' (अतिरिक्त संग्रहित मात्रा) है, किन्तु सवाल यह है, कि क्या यह वैश्विक संकट की स्थिति में दुनिया का पेट भरने के लिए पर्याप्त है।
भारत सरकार इस बफर स्टॉक का उपयोग कर सकती है और अधिशेष खाद्यान्न को विकासशील देशों में वितरित कर सकती है। इस परोपकारी कार्य से उन देशों में खाद्य संकट को कम करने में मदद मिलेगी।
इसके अलावा, यह एक, 'देश' के रूप में वैश्विक मंच पर भारत की अच्छी छवि में वृद्धि करेगा।
हालांकि, ऐसा कदम उठाने से पहले कुछ चिंताओं पर विचार करने और उनसे कैसे निपटा जाएगा, इसपर फैसला लेने की आवश्यकता है।
यह एक ऐसा जोखिम है, जिससे भारत की खाद्य आपूर्ति समाप्त हो सकती है और देश भविष्य में, संकट के समय पर कमजोर और असुरक्षित हो सकता है।
पहली और सबसे मुख्य समस्या हमारी आबादी है। भारत विश्व स्तर पर दूसरा सबसे अधिक आबादी वाला देश है। अधिकांश आबादी अभी भी गरीबी रेखा के आसपास मँडरा रही है और यह उन्हें सरकारी नीतियों में प्राथमिकता देता है।
दूसरी समस्या भ्रष्टाचार है। बहुत सारे राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय अपराध हैं और अगर हम जिम्मेदारी लेते हैं, तो एक खतरा है, कि हम जरूरतमंदों के लिए जो संसाधन उपलब्ध कराने की कोशिश कर रहे हैं, वे गलत हाथों में पड़ सकते हैं।
खाद्य आपूर्ति केवल घनिष्ठ बिचौलिए को अमीर बनाएगी। एक भूखे भारतीय के लिए किसी और का बैंक भरना, एक विडम्बना होगी।
इसलिए एक ऐसा तंत्र होना चाहिए जिससे नियत लाभभोगियों तक , खाद्यान्न के वितरण को पहुँचाया जा सके । अव्यवस्था और अनिश्चितता के इस समय में, अंतिम व्यक्ति तक सहायता को पहुंचा पाना एक चुनौती है।
निर्भरता का मुद्दा भी है: कई देश जो विदेशी सहायता पर निर्भर हैं, अंततः उस पर निर्भर हो जाते हैं, और भारत को यह सुनिश्चित करने की आवश्यकता होगी कि यदि आवश्यक हो तो, वह सहायता में कटौती कर सकता है।
भारत जैसे शांतिप्रिय राष्ट्र के लिए सहायता रोकना और लाखों लोगों को फिर से भूखमरी की ओर धकेलना मुश्किल होगा।
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नतीजतन, तेल उत्पादक देश अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ा रहे हैं, और उनका यह लाभ 2030 तक दस -खरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है
बार-बार, भारत को भी यह सुनिश्चित करने के लिए मदद की आवश्यकता हो सकती है कि उसके खाद्य मूल्य स्थिर और अनुमानित बने रहें। उसने ऑस्ट्रेलिया से खाद्यान्न आयात किया था, पाकिस्तान से चीनी और प्याज आदि।
हालांकि, यह खाद्य सहायता नहीं थी। शुक्र है कि वे दिन बीत चुके हैं, जब भारत ने अकाल का सामना किया और दुनिया से मदद मांगी।
भारत इस क्षेत्र में एक नेता की भूमिका निभाता रहा है। अतीत में इसने मालदीव, बांग्लादेश, नेपाल और अफगानिस्तान जैसे देशों की मदद की है। अब, यह श्रीलंका है जिसे भारत के समर्थन की आवश्यकता है।
भारत को दुनिया का पेट क्यों नहीं भरना चाहिए?
सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण भारत के लिए खुद के प्रति जिम्मेदारी है। इसे अपने नागरिकों की देखभाल करने की जरूरत है। इसलिए भारत को अपने विकास पर ध्यान देना चाहिए और बाकी सभी के लिए भोजन प्रदान करने का बोझ नहीं उठाना चाहिए।
दुनिया के कई अन्य देश दूसरों का पेट भरने में सक्षम हैं।
उदाहरण के लिए, विकसित देशों की सभी बड़ी तेल कंपनियों को अप्रत्याशित लाभ हो रहा है। प्रारंभ में, वे जीवाश्म ईंधन की कीमतों में हेरफेर कर रहे थे, महामारी के बाद मांग में वृद्धि का तर्क दे रहे थे और अब यूक्रेन-रूस युद्ध का बहाना बता रहे है।
नतीजतन, तेल उत्पादक देश अपनी उत्पादन क्षमता बढ़ा रहे हैं, और उनका यह लाभ 2030 तक दस -खरब डॉलर तक पहुंचने की उम्मीद है।
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सस्ते ईंधन लागत के साथ 'भोजन की कमी' अपने आप से समाप्त हो जाएगी
इसके विपरीत, भारत को गरीब देशों को ईंधन पर सब्सिडी देकर उन्हें 'ईंधन गरीबी' से लड़ने में मदद के लिए इन विशाल ऊर्जा कंपनियों पर जोर देना चाहिए। फिर, सस्ते ईंधन लागत के साथ 'भोजन की कमी' अपने आप से समाप्त हो जाएगी।
विचार करने के लिए नैतिक चिंताएँ भी हैं। उदाहरण के लिए, भारत कई कुपोषित लोगों का घर है, और अन्य देशों को खाद्य सहायता प्रदान करने को उचित सिद्ध करना मुश्किल होगा, तब जबकि लाखों भारतीय भूखे रहते हैं।
भारतीय खाद्य कीमतों में वृद्धि का जोखिम नहीं उठा सकते हैं, खासकर महामारी के बाद, जब बेरोजगारी की दर पहले से ही अधिक है।
कोविड ने स्थिति को और अधिक खराब कर दिया है और कई लोगों को अपनी नौकरी से हाथ धोना पड़ रहा है,उन्हें अपना पेट भरने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। सरकार कुछ राहत दे रही है, लेकिन वह काफी नहीं है।
हालांकि यह एक नेक काम की तरह लग सकता है, किन्तु यदि भारत दूसरों के लिए, इतनी ज्यादा जिम्मेदारी अपने हाथ में लेने की कोशिश करता है, तो वह जल्दी ही पिछड़ जाएगा।
भारत, यूक्रेन युद्ध में हथियारों की आपूर्ति करने वाले देशों को निर्यात करेगा और एक तरह से युद्ध के प्रयासों को हवा दे रहा होगा ।
मान लीजिए कि भारत ब्रिटैन को निर्यात करता है। इसे एक अच्छी बात के रूप में माना जा सकता है - आखिरकार, भारत युद्ध के कारण भोजन की कमी से प्रभावित लोगों को भोजन प्रदान करने में मदद करेगा।
हालांकि, कुछ लोग यह तर्क दे सकते हैं, कि भारत को अप्रत्यक्ष रूप से संघर्ष को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार नहीं होना चाहिए, क्योंकि ब्रिटैन यूक्रेन को हथियारों की आपूर्ति कर रहा है।
वर्तमान में, भू-राजनीतिक स्थिति कभी भी बदल सकती है। भारत को चीन और पाकिस्तान जैसे अपने विरोधी पड़ोसियों के साथ युद्ध या युद्ध की अप्रत्याशित घटना के लिए भी तैयार रहना चाहिए।
हाल के वर्षों में, भारत और इन देशों के बीच तनाव तेज हो गया है क्योंकि, प्रत्येक देश इस क्षेत्र में अपना प्रभुत्व स्थापित करना चाहता है। युद्ध या युद्ध जैसी स्थितियों की तैयारी में भारत को अपने विशाल कृषि संसाधनों का उपयोग नहीं करना चाहिए।
यदि भारत अब अपने कृषि संसाधनों का उपयोग दूसरों के लिए करता है, तो युद्ध या अन्य बड़ी आपदा के समय यह देश की सुरक्षा पर गहरा असर डालेगा।
भविष्य
भारत वैश्विक आबादी के जीवन में एक बदलाव ला सकता है, किन्तु उसे अपने कार्यों के दीर्घकालिक परिणामों पर सावधानी से विचार करना चाहिए।
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एक ऐसा तंत्र होना चाहिए जिससे नियत लाभभोगियों तक , खाद्यान्न के वितरण को पहुँचाया जा सके
हालाँकि, भारत इन दुविधाओं का सामना करता रहेगा क्योंकि, वह विश्व मंच पर आगे बढ़ रहा है । इसे प्रभावी ढंग से करने के लिए भारत को भंडारण और परिवहन बुनियादी ढांचे में निवेश करने की आवश्यकता होगी।
यह विकास एक कठिन प्रयास है, क्योंकि देश का कृषि क्षेत्र अपने कम लाभ और किसानों के लिए उच्च ऋण के कारण पहले से ही संघर्ष कर रहा है।
इसके अलावा, खराब मानसून या बाढ़ का खतरा हमेशा बना रहता है, जिसके परिणामस्वरूप फसलें खराब हो जाती हैं।
अमेरिका के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, जनसंख्या की मांग को पूरा करने के लिए वैश्विक खाद्य उत्पादन में 70% की वृद्धि की आवश्यकता है, जिसके 2050 तक 9 अरब 10 करोड़ तक पहुंचने की उम्मीद है।
भारत मानसून के विफल होने के एक महत्वपूर्ण जोखिम का सामना कर रहा है, जिसके देश के कृषि क्षेत्र और खाद्य आपूर्ति के लिए गंभीर परिणाम हो सकते हैं। अगर ऐसा होता है, तो भोजन की कमी और कीमतों में बढ़ोतरी लाखों लोगों को प्रभावित करेगी।
'मुद्रास्फीति' राजनीतिक अस्थिरता और यहां तक कि हिंसा को भी जन्म दे सकती है। यह इतिहास रहा है, कि भूख नागरिक अशांति की ओर ले जाती है।
हालांकि, भारत ने नई कृषि प्रौद्योगिकियों में निवेश करके और अधिक लचीले फसलों के स्वरूप विकसित करके इस जोखिम को कम करने के उपाय किए हैं, किन्तु ये सुदूर भविष्य में ही परिणाम दिखाएंगे।
फिर भी, मानसून की विफलता अभी भी एक असली खतरा है, जिसे गंभीरता से लेने की आवश्यकता है।
देश , विश्व स्तर पर सबसे बड़ी आबादियों में से एक है, जहां एक अरब, से अधिक लोग है, जो अपनी आजीविका के लिए कृषि क्षेत्र पर निर्भर हैं।
भारत पहले से ही खाद्य पदार्थों का एक प्रमुख निर्यातक है और ऐसे कई देशों का समर्थन करता है, जो सूखे या अन्य कारकों के कारण अपना पेट नहीं भर सकते।
इसलिए, भारतीय खाद्य सहायता कार्यक्रम को और ज्यादा अन्य देशों का पेट भरने से बचना चाहिए क्योंकि, भारत पहले से ही अपनी सहज क्षमता के पार कार्य कर रहा है।
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