क्या सामाजिक न्याय सैद्धांतिक है?
क्या सामाजिक न्याय सैद्धांतिक है?
Is Social Justice Theoretical? का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
क्या सामाजिक न्याय सैद्धांतिक है?
क्रियान्वयन में यह शक्ति और अर्थशास्त्र है
सदियों से निपुण दार्शनिकों और विद्वानों ने सामाजिक न्याय के बारे में लिखा है। कम से कम तीन शताब्दियों के बाद, हम सभी पूरी दुनिया में अभी भी 'सामाजिक न्याय' की वास्तविक परिभाषा खोजने के लिए दिन रात एक कर रहे हैं।
हम कभी भी इसका एक उत्तर नहीं खोज पाएंगे, क्योंकि, कोई एक है ही नहीं।
सामाजिक न्याय के नाम पर बदलाव को समायोजित करने के लिए समाजों ने खुद को पूरी तरह से बदल दिया। वे सभी अर्थशास्त्र से प्रेरित थे। मेरे तर्क के पक्ष में कुछ उदाहरण यहां दिए गए हैं।
यूके (UK) ने 60 के दशक के उत्तरार्ध में जमैका (Jamaica) जैसे गरीब देशों के प्रवासियों को प्रलोभित किया। उन्हें अच्छे जीवन के वादे के साथ जहाजों में ले जाया गया।
यह ब्रिटिश उपनिवेशों में समानता लाने के विचार के साथ नहीं था बल्कि, श्रम की कमी के अंतर को पूरा करने के लिए था।
यह पीढ़ी, जिसे 'विंडरश' (Windrush) कहा जाता है, उस जहाज के नाम पर है जिसने उन्हें यूके पहुँचाया और जिसे ठीक से प्रलेखित भी नहीं किया गया था।
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सैद्धान्तिक रूप से, समाज को समानता और नैतिकता के साथ निर्मित माना जाता है
विंडरश पीढ़ी की दुर्दशा तब सामने आई जब उनमें से कई को यूके में 40 साल बिताने के बाद निर्वासित करके वापस जमैका भेज दिया गया। इनमें से कई ब्रिटेन में पैदा हुए और वे कभी जमैका नहीं गए थे।
अमेरिका और उसके सहयोगियों ने अफ़ग़ानिस्तान में 2 दशक लंबा और इराक में एक लंबा युद्ध लड़ा। सहयोगी बुराई से लड़ना चाहते थे और 9/11 के पीड़ितों को न्याय दिलाना चाहते थे।
इस प्रक्रिया में, उनका उद्देश्य इन देशों को तानाशाही के चंगुल से छुड़ाना भी था। हजारों कीमती युवा सैनिकों ने अपने प्राण न्यौछावर कर दिए किंतु, आज इराक की स्थिति दयनीय है और यह शांतिपूर्ण नहीं है। देश और संस्कृति का ताना-बाना छिन्न-भिन्न हो गया है।
अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के साथ एक शांति संधि पर बातचीत की जा रही है, जबकि, देश को अक्सर मौतों और बमों से छलनी किया जाता है।
हर तरफ खरबों के नुकसान का जिक्र तक नहीं मिलता। तो, आखिर सामाजिक न्याय का वह कारण कहां है जिसके लिए इस 21 वीं सदी में इन सभी विशाल बलिदानों को छोड़ दिया गया है?
दिल्ली और मुंबई जैसे भारत के बड़े शहरों में, एक बड़ी आबादी अमानवीय परिस्थितियों में रह रही है। लाखों झोपड़ियों के इस समूह के बगल में मनोहर गगनचुंबी कार्यालय हैं।
कोई भी इन झोपड़ियों को बेहतर आवास और रहने की स्थिति में बदलने की कोशिश नहीं करना चाहता। ऐसा क्यों है, इसका उत्तर इन इलाकों से प्राप्त आर्थिक उत्पादन में निहित है।
इनमें बसी आबादी या तो कम वेतन वाली छोटी- मोटी नौकरियों में है उन्ही अमीर कोठियों में, गगन चुम्बी इमारतों में, या फिर जर्जर कुटीर कारखानों में काम कर रही है।
17वीं सदी के सुरक्षा मानकों वाली ये फैक्ट्रियां सभी के लिए जरूरी सामान बनाती हैं। चमड़े के पर्स, कमर की पेटी, जूते के फीते, चाकू, छुरी इत्यादि जैसी अनेक दैनिक उपयोग की वस्तुएँ यहाँ सस्ते में बनाई जाती हैं।
कई वस्तुओं का निर्यात भी किया जाता है। ये झोपड़ियाँ एक रोटीघर (बेकरी), अचार और बिस्कुट जैसे डिब्बाबन्द खाद्य पदार्थों का घर भी हैं। यद्यपि, आर्थिक लाभ पर्याप्त होगा किंतु, सभ्य मानव निवास स्थान का विचार एक ठंडे बस्ते में होगा।
ये केवल कुछ उच्च-स्तरीय मामले हैं जो, इस तर्क को स्थापित करते हैं कि, यह पूरी तरह से 'ऊर्जा अर्थशास्त्र' है।
आधुनिक और मध्यकालीन दोनों प्रकार का विश्व इतिहास, आर्थिक लक्ष्यों को प्राप्त करने के एकमात्र उद्देश्य से भरा हुआ है।
सैद्धान्तिक रूप से, समाज को समानता और नैतिकता के साथ निर्मित माना जाता है। दुनिया भर में से कई लोग इसके बारे में दृढ़ता से महसूस करते हैं, किन्तु, कुछ ही इसे लागू करने के लिए प्रेरित होते हैं। अतः, सामाजिक न्याय मुख्यतः एक सैद्धांतिक अभ्यास है।
पिछले साल 2019 में, दुनिया भर में, 'एक्सटिंक्शन रिबेलियन' (विलुप्त होने का विद्रोह) नामक दबाव समूह ने शहर में लागू लॉकडाउन का विरोध किया।
यहां तक कि, जो लोग भोजन की उच्च लागत और जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले प्रदूषण से पीड़ित थे, वे भी इस आंदोलन का समर्थन करने में विफल रहे।
चूँकि ये विरोध उनके व्यवसाय को नुकसान पहुंचा रहे थे, मुख्यतः छोटे व्यवसायों को, इसलिए वे लॉकडाउन की दबाव की रणनीति के खिलाफ थे।
अमेरिका और ब्रिटेन जैसे सबसे विकसित देशों में एक समान काम के लिए पुरुषों और महिलाओं के लिए समान वेतन अभी भी एक सपना है।
एक प्राइम टाइम शो के दौरान एक दूसरे के बगल में बैठे दो एंकर, एक पुरुष और दूसरी महिला की कल्पना करें। दोनों भिन्न कमाते हैं और वेतन अंतर भी 4 से 5 गुना हो सकता है।
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सामाजिक न्याय एक मृग मरीचिका है
हां, कर्मचारी अदालत जा सकते हैं और न्याय की अपील कर सकते हैं, किंतु, 21 वीं सदी के विकसित देशों में इसकी उम्मीद नहीं है। लैंगिक समानता में बहुत कुछ व्याप्त है।
हेग (Hague) स्थित अंतर्राष्ट्रीय न्यायालय (international court of justice) को न्याय का प्रतीक माना जाता है। शिकागो विश्वविद्यालय, लॉ स्कूल के शोध के अनुसार, जब अपने देश के खिलाफ मामलों की बात आती है तो, न्यायाधीश पक्षपाती रहे हैं।
शक्तिशाली देश फैसले की अवहेलना करते हैं और युद्ध अपराध के मामले केवल अफ्रीकी नेताओं के खिलाफ हैं।
विकसित देशों के नेता किसी तरह से आईसीजे (ICJ) से बच निकले हैं।
वे वैश्विक संगठन जो स्वयं दान के व्यवसाय में हैं, एक वाणिज्यिक महाशक्ति हैं। वो जनता को लुभाकर भावनात्मक रूप से अपने बारे में अच्छा महसूस कराने के लिए प्रसिद्ध हस्तियों के प्रभाव का उपयोग करते हैं।
उन संगठनों का समर्थन करने वाले प्रसिद्ध व्यक्ति लाखों डॉलर की कीमत पर ऐसा कर रहे हैं न कि, दान के लिए। उनके सीईओ (CEO) लाखों में वेतन पाते हैं और शायद एक निजी जेट विमान भी उड़ाते हैं।
अलग ढंग से कहे तो, वे दाताओं से मुफ्त धन जुटाने के कारोबार में हैं। सामाजिक कारण सिर्फ परिणाम के तौर पर होते हैं। यह सर्वविदित है कि, दानी संस्थाओं को भी अपना प्रशासन चलाने के लिए धन की आवश्यकता होती है।
किंतु, यह तर्क गंभीर नैतिक मुद्दों को उठाता है जब दान का कार्य अमुख्य हो जाता है और उन संगठनों में कुछ लोग दान की क़ीमत पर अमीर बन जाते हैं।
राजनीति, समाज, अर्थशास्त्र और शासन के क्षेत्रों से ऐसे ढेरों उदाहरण हैं जहाँ सामाजिक न्याय तीसरे स्थान पर है। पहले दो पायदानों पर शक्ति और अर्थशास्त्र हैं, या दोनों एक साथ हैं।
इस प्रकार, सामाजिक न्याय एक मृग मरीचिका है, जिसका सभी अध्ययनशील दिमाग पीछा कर रहे हैं। असल दुनिया में लोग हमेशा की तरह व्यवसाय करना जारी रखते हैं, चाहे वह राजनीतिक हो या आर्थिक।
सामाजिक न्याय यदि, आकस्मिक हो जाये तो, जनता भाग्यशाली महसूस करती है।
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