कोरोना काल में मीडिया कूटनीतियाँ – 2
कोरोना काल में मीडिया कूटनीतियाँ – 2
Media Tactics During COVID - Part 2 का हिन्दी रूपांतर एवं सम्पादन
~ सोनू बिष्ट
मीडिया हाउस (मीडिया एजेंसीज) शत्रु है, पत्रकार नहीं !
सामान्य परिस्थितयो में भी मीडिया दिमागी खेल खेलता है, बल्कि यह कहना अनुचित नहीं होगा कि हर एक घटना के लिए वह विशेष युक्तियाँ इस्तेमाल करता है, जिससे वह मुख्य समाचार (Headlines) बनाता है.
कोविड-19 एक विशेष घटना है जो प्रथम युद्ध के बाद, किसी भी अन्य खबर कि तुलना में, अधिक समय तक चली है. इस 'आलेख' का 'लक्ष्य' कोविड महामारी के दौरान, पूरी दुनिया में विशेष रूप से मीडिया के किरदार पर प्रकाश डालना है.
यह आलेख नोम चॉम्स्की (Noam Chomsky) की 10 मीडिया कूटनीतियां सूची से उत्प्रेरित है.
समस्याएं पैदा करना और फिर समाधानों की पेशकश करना -
हम सभी ने महामारी के शुरुआती दिनों में पीपीई (PPE) की कमी के बारे में सुना था। खासतौर से मास्क के बारे में।
मीडिया ने इसकी कमी की कहानी को हवा देना जारी रखा और जिस तरह से मास्क की कमी की कहानी सुनाई, ऐसा लग रहा था कि मास्क किसी जीवन रक्षक दवा के बराबर है।
मीडिया के गलत प्रचार और इसकी कमी को लेकर सनसनी फैलाने के कारण, दुनिया भर में दहशत पैदा हो गई। कुछ लोगों ने तो अत्यधिक निराशा में आकर स्कूबा डाइविंग जैसे मास्क पहनना शुरू कर दिया।
मीडिया के अनियंत्रित प्रचार की वजह से विकासशील देशों के बाजार में बहुत बड़ा हेरफेर देखा, और मास्क असल कीमत से 20 गुना की बढ़ोतरी पर बेचे भी गए।
क्या अपर्याप्तता (Shortage) असल समस्या थी?
जनता या तो उन मास्कों का विकल्प नहीं जानती थी या मास्क का उपयोग करने के पीछे के विज्ञान को नहीं समझती थी। अगर मीडिया ने वैज्ञानिक समुदाय की मदद से जनता को शिक्षित किया होता , तो स्थिति बेहतर होती।
महामारी के पहले कुछ हफ्तों में , आबादी विभिन्न मास्किंग विधियों का उपयोग करने से अनजान थी। यदि उन्हें पता होता तो उनके खुद के लिए या अस्पतालों के लिए कोई कमी नहीं होती ।
फलस्वरूप, हालांकि साबित नहीं हुआ है किंतु, कई लोगों की जान बचाई जा सकती थी। मीडिया को बस इतना करना था कि वह सही समय पर उचित जानकारी देता।
जैसा कि बाद में पता चला कि जनता को अपने घरों से बाहर निकलने पर अपनी नाक और मुंह को बस ढकने की आवश्यकता थी।
आखिर हम कैसे जानते हैं कि यह उचित तरीका था? क्योंकि, बाद में उसी वैज्ञानिक और राजनीतिक समुदाय ने 'मास्क पहनने का' प्रचार शुरू किया, आज कई देशों ने सभा ,समारोहों वाले स्थलों पर मास्क अनिवार्य कर दिया है।
एक बार जब मास्क की कमी के बारे में लोगों के बीच घबराहट पैदा हो गई, तो विशेषज्ञ पैनल प्राइम टाइम (मुख्य काल) पर अपने समाधानों के साथ आए।
लेकिन उसने इस बात पर चर्चा नहीं की कि जनता अपने मास्क कैसे बना सकती है और इस कमी में कैसे मदद कर सकती है।
इसके बजाय, चैनलों ने अपने देश में विनिर्माण की कमी और चीन ने पीपीई (PPE) पर एकाधिकार कैसे किया, इस पर चर्चा की। मास्कों के लाभों से अधिक, चर्चा का विषय स्वाधीनता और नागरिक स्वतंत्रता रहा ।
अगर मीडिया ने ' मास्कों के लाभों ' को ठीक से पेश किया होता, तो सबसे प्रबल विरोधी भी चेहरा ढंकने की बात स्वीकार कर लेते, क्योंकि कोई भी एक छोटे से कपड़े के टुकड़े के लिए अपनी जान गंवाना नहीं चाहता।
समय बीतने के बावजूद, मीडिया ने सर्जिकल मास्क के विकल्प या उन्हें पहनने की सही विधि के उपयोग के बारे में जनता को शिक्षित नहीं किया।
नतीजतन, हम अक्सर प्रमुख नेताओं और हस्तियों को गलत तरीके से मास्क पहने हुए देखते हैं। कुछ जन नेताओं ने तो उसे बिल्कुल पहना ही नहीं।
यदि मीडिया जनता को लाभकारी जानकारी प्रदान करने के लिए जिम्मेदार है, तो पीपीई (PPE) की कमी को एक दहशत की कहानी के रूप में क्यों फैलाया गया? क्या यह वास्तविक कमी थी या अनावश्यक दहशत?
क्रमिक वृद्धि को लेकर रणनीति-
कोविड के दौरान, मीडिया ने उसकी प्रचण्डता को उजागर करने के लिए कई सांख्यिकी फार्मूला और इन्फोग्राफिक्स (Infographics) का उपयोग किया ।
उन्होंने उन भावहीन संख्याओं को लोगों के सामने लाकर रख दिया जैसे कि मौतें सामान्य है। एक प्रकार के ज्ञात संक्रमण के कारण प्रतिदिन 200 मौतें समाचार बन गईं, जैसे कि चिंता की कोई बात ही नहीं है।
इन रिपोर्टों ने सुझाव दिया कि यह एक कम मृत्यु दर है, और जीवन आगे बढ़ सकता है।
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इन मीडिया रिपोर्टों ने सुझाव दिया कि यह एक कम मृत्यु दर है, और जीवन आगे बढ़ सकता है
प्रतिदिन 1,00,000 मौतों में से 150 या रोग निवृत्ति (रिकवरी) दर जैसे आंकड़े जनता को दिए गए। उनका क्या मतलब था , और कोई इन संख्याओं को आखिर कैसे संसाधित कर सकता था?
जबकि इन संख्याएँ को स्थिति का ज्वलंत वर्णन प्रदान करने वाला होना चाहिए था, किन्तु ये संख्याएँ बहुत व्यक्तिपरक थी । इनका जनता के स्वास्थ्य को मापने के संबंध में कोई अर्थ नहीं था और उल्टा यह अधिक भ्रम फैला रही थी।
यदि किसी साधारण व्यक्ति से पूछा जाएं कि क्या वे उन आँकड़ों का विवेचन कर सकते हैं, तो वे इसमें असफल होते।
महामारी के दौरान जनता को बहुत सारे सांख्यिकीय सूत्र और अंक दिए गए थे। 7-दिन का औसत, मूविंग एवरेज, पीक, आर (R) वैल्यू, समतल वक्र, प्रायिकता,रोग निवृत्ति दर , मृत्यु और संक्रमण दर आदि उनमें से कुछ हैं।
कुल मिलाकर वे एक बौद्धिक स्तर के सुशिक्षित व्यक्ति को कुछ समझ देते हैं, लेकिन एक आम आदमी के लिए, वे समझ से बाहर हैं। इसके अलावा, इन आँकड़ों की तुलना करने के लिए कोई निर्धारित मानक नहीं है, और इसलिए संख्याएँ वहाँ व्यर्थ ही लटकी हुई हैं।
अंततः, यह एक जीवन को बचाने के बारे में है जिसमें एक महामारी को लेकर चिन्ता है और इससे अधिक कुछ नहीं।
ये संख्या उस परिवार के लिए महत्वहीन है जिसने इस महामारी के कारण अपने किसी प्रियजन को खोया है। उस स्थिति में, सब कुछ सौ प्रतिशत खो जाता है और दुःख होता है। ऐसी कोई संख्या नहीं खोजी गई है जो मापी गई त्रासदी को परिभाषित कर सके।
मीडिया रिपोर्टों और प्रस्तुतियों ने गंभीरता को सामान्य करके, मानवीय दुखों की तुलना में आंकड़ों को प्राथमिक बना दिया है। यह किसी क्रूरता से कम नहीं।
आज, जुलाई 2021 के मध्य में, संयुक्त राज्य अमेरिका में प्रतिदिन लगभग 500, भारत में लगभग 500 (आधिकारिक) और ब्राजील में 1000 से अधिक मौतें हो रही हैं। 16 अन्य देश तीन अंकों में दैनिक मौतों की रिपोर्ट कर रहे हैं।
नतीजतन, इन आँकड़ों ने समाज में पहले से ही बढ़ती असंवेदनशीलता को और बढ़ा दिया है। भविष्य में, जब कोई बड़ी दुखद घटना घटेगी, तो मीडिया के पास इसकी तुलना कोविड से करने का औचित्य होगा।
नतीजतन, जनता किसी भी अन्य त्रासदी की गंभीरता को अवशोषित करने की क्षमता खो देगी जो कोविड से कम होगी।
उदाहरण के लिए, दुनिया भूमध्य – सागर (Mediterranean Sea) पार करने वाले शरणार्थियों या युद्धग्रस्त सीरिया, इराक और अफगानिस्तान में मरने वाले शरणार्थियों की दुर्दशा के प्रति असंवेदनशील है।
वे सिर्फ संख्याएं बन कर रह गई हैं, जो भावनाओं और निवारण के बिना, कहानियों के रूप में मीडिया में दोहराई जा रही हैं।
हमें कितनी सुर्खियां मिली हैं जिन्होंने कोविड महामारी के कारणों को ठीक करने की कोशिश की?
दुनिया भर में कितनी सुर्खियों ने एक विशेष देश में हजारों लोगों की जान जाने की जवाबदेही तय करने की कोशिश की?
किसी भी देश ने महामारी की जांच शुरू नहीं की है। मीडिया में से भी कोई आक्रामक रूप से इसकी मांग नहीं कर रहा है, जबकि मुँह चुराते हुए , वे सभी विफलताओं और कुप्रबंधन की रिपोर्ट करना जारी रखे हैं जैसे कि यह सामान्य हो।
दुनिया भर में कितनी सुर्खियां वैक्सीन असमानता और इसकी उपचारात्मक कार्रवाई को उजागर करती रहती हैं? विकासशील देशों में वैक्सीन की कमी स्वीकार्य है क्योंकि अधिकांश टीके उन्नत देशों से आते हैं।
अमीर देशों ने टीकों की जमाखोरी की है, यह कोई खबर नहीं बन रही , जैसे कि ऐसा करना उनका अधिकार है।
मीडिया में टीकों के प्रतिकूल दुष्प्रभावों पर भी चर्चा नहीं की जाती है। प्रारंभ में, वैक्सीन के कारण रक्त के थक्के बन जाने के बारे में कुछ चर्चाएँ हुईं, लेकिन आँकड़ों द्वारा सांख्यिकीय तर्क देने से शांत हो गई।
कई लोगों ने सुना होगा कि थक्के के कारण होने वाली संभावित मौतें तूफ़ानी बिजली की चपेट में आने वाली मौतों से कम होती हैं। लेकिन मीडिया जवाबदेह लोगों को यह सवाल क्यों नहीं रहा है, कि "एक जिंदगी को खोने का अर्थ है उससे जुड़ी कई अन्य जिंदगियां को खो देना” ।
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"एक जिंदगी को खोने का अर्थ है उससे जुड़ी कई अन्य जिंदगियां को खो देना”
मीडिया इस विश्वास का निर्माण नहीं कर सका कि प्रतिकूल दुष्प्रभावों को उचित प्राथमिकता के साथ सूचित किया जाए। सौ मामलों में से कुछ गंभीर थे, और अन्य नहीं, लेकिन उन सभी को जनहित में रिपोर्ट करने की आवश्यकता थी।
उदाहरण के लिए, जब उन्होंने रक्त के थक्के जमने की सूचना दी, तो कई देशों ने टीकाकरण कार्यक्रम को निलंबित कर दिया था। इसी तरह, प्रभावी सरकारी प्रतिक्रिया के लिए मीडिया द्वारा अन्य प्रतिकूल दुष्प्रभावों को भी उजागर किया जाना चाहिए।
तब भी, ब्रिटेन ने प्रतिकूल दुष्प्रभावों की सूचना देने वाले येलो कार्ड (ICVP) प्रविष्टियों की एक बड़ी सूची के बावजूद टीकाकरण जारी रखा । यहाँ तक कि अन्य विकसित और विकासशील देशों ने औपचारिक रूप से भी प्रतिकूल प्रभावों को दर्ज करने का कष्ट नहीं उठाया।
इसलिए, जिस समय आबादी आकस्मिक भय (Panic) में होकर भी , दुष्प्रभावों की अनदेखी कर सरकारों पर भरोसा करते हुए टीके लगवा रही थी, उस वक़्त भी मीडिया आम तौर पर इस मुद्दे पर आंखें मूंद लेता था।
सामान्य परिस्थितियों में भी, किसी अन्य टीकाकरण या दवा के प्रतिकूल प्रभाव स्वीकार्य हैं। पहले से ही उन दवाओं के साथ अस्वीकृतियों की एक लंबी सूची है, जो अंतर्विरोधों (contraindications) को सूचित करती हैं।
आश्चर्य की बात है कि समय के साथ दुष्प्रभावों की सूची बढ़ती जा रही है।
यह इतनी सामान्य बात हो चुकी है कि इसे मुख्य धारा की मीडिया में चिंताजनक बात के रूप में सूचित भी नहीं किया जाता है।
मीडिया से अपेक्षा की जाती है कि वह उचित बल देकर तथ्यों का विवरण दे।
जैसा कि आशंका रहती है, प्रतिकूल प्रभावों की रिपोर्ट करने से टीका करण के प्रति झिझक को बढ़ावा नहीं मिलेगा; बल्कि इसके बजाय, यह दवा कंपनियों पर बेहतर संस्करण तैयार करने का दबाव बनाएगा।
साथ ही, यह जनता को उचित दृश्यता देगा और प्रणाली में विश्वास पैदा करेगा।
इसके विपरीत, मीडिया इस मामले पर चुप्पी साधे हुए है, और बदले में, चिकित्सा प्रणाली में अविश्वास, आधारभूत विज्ञान और सरकारी नीतियों के बारे में आशंका को बढ़ावा देने के लिए जिम्मेदार भी।
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यह अंतरात्मा की धीमी मौत की तरह है
सैद्धान्तिक रूप में, जैसे-जैसे अधिकाधिक महत्वहीन और ध्यान भंग करने वाली जानकारी सार्वजनिक क्षेत्र में डाली जाती है, वास्तविक समस्या के प्रति संवेदनशीलता कम होती जाती है, और समस्या की स्वीकार्यता बढ़ जाती है।
इसलिए, उन समस्याओं के साथ जीना दिनचर्या की तरह हो जाता है बजाय उनसे संघर्ष करके बाहर निकलने के।
यह अंतरात्मा की धीमी मौत की तरह है।
इसी तरह मीडिया हमें कुछ न करने ,चीजों को ज्यों का त्यों स्वीकारने और उसके साथ धीरे-धीरे आगे बढ़ते रहने के लिए प्रेरित करता है।
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