भारतीय प्लास्टिक: ज़रूरत और लालच
भारतीय प्लास्टिक: ज़रूरत और लालच
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एक ऐसे देश में जहाँ तेज़ आर्थिक विकास और पर्यावरण क्षरण (Environmental degradation) के बीच संघर्ष हर साल और तीव्र होता जा रहा है, प्लास्टिक सुविधा के प्रतीक और स्थायी खतरे दोनों के रूप में उभरा है।
दिल्ली के जाम नालों से लेकर तमिलनाडु के मैंग्रोव तक, गंगा के तटों से लेकर अरब सागर की गहराई तक, प्लास्टिक कचरा सिर्फ एक प्रदूषण की समस्या नहीं है—यह एक पूर्ण सामाजिक-पारिस्थितिकीय (Socio-ecological emergency) आपातकाल है।
केंद्रीय प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड (CPCB) के अनुसार, भारत ने 2022-23 में 35 लाख मीट्रिक टन से अधिक प्लास्टिक कचरा उत्पन्न किया।
यह हर एक दिन औसतन 9,600 टन होता है, एक चौंका देने वाला आँकड़ा जिसने लगातार ऊपर की ओर रुझान दिखाया है।
विशेष रूप से, प्रति व्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन पाँच वर्षों में दोगुने से अधिक हो गया है, जो सालाना 700 ग्राम से बढ़कर 1.6 किलोग्राम प्रति व्यक्ति हो गया है।
इस तीव्र वृद्धि का सीधा संबंध बढ़ते शहरीकरण, एकल-उपयोग वाले उपभोक्ता उत्पादों में वृद्धि और विस्तारित डिजिटल अर्थव्यवस्था से है, जो पैकेजिंग पर बहुत अधिक निर्भर है।
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नीतिगत महत्वाकांक्षा, कार्यान्वयन की कमी
भारत सरकार ने जुलाई 2022 में कई एकल-उपयोग वाली प्लास्टिक वस्तुओं, जिनमें स्ट्रॉ, ईयरबड और 75 माइक्रोन से कम मोटाई वाली पैकेजिंग फिल्में शामिल हैं, पर प्रतिबंध लगाकर एक निर्णायक कदम उठाया। हालाँकि, राज्यों में कार्यान्वयन असंगत बना हुआ है।
ज़मीनी स्तर पर प्राप्त जानकारी से पता चलता है कि प्रतिबंधित वस्तुओं का अवैध उत्पादन और वितरण निर्बाध रूप से जारी है, खासकर अर्ध-शहरी क्षेत्रों में जहाँ नियामक निरीक्षण कमज़ोर है और छोटे विक्रेताओं के लिए विकल्प आर्थिक रूप से असंभव हैं।
पर्यावरण, वन और जलवायु परिवर्तन मंत्रालय (MoEFCC) ने विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी ( ईपीआर ) नियम भी पेश किए हैं, जो प्लास्टिक कचरा संग्रह और पुनर्चक्रण की जिम्मेदारी उत्पादकों, आयातकों और ब्रांड मालिकों पर डालते हैं।
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दिल्ली और मुंबई में 2022 के एक अध्ययन में शहरी निवासियों के फेफड़ों और रक्तप्रवाह में माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए
ईपीआर अवसंरचना उन प्रणालियों, सुविधाओं और प्रक्रियाओं को संदर्भित करती है जो विस्तारित उत्पादक जिम्मेदारी (ईपीआर) का समर्थन करने के लिए स्थापित की जाती हैं—एक नीतिगत दृष्टिकोण जहाँ उत्पादकों को उनके द्वारा निर्मित
उत्पादों के पूरे जीवनचक्र, विशेष रूप से उनके उपभोक्ता के बाद के कचरे की वापसी, पुनर्चक्रण और अंतिम निपटान के लिए जिम्मेदार बनाया जाता है।
सैद्धांतिक रूप से एक स्वागत योग्य कदम होने के बावजूद, ईपीआर (EPR) की प्रभावशीलता एक मजबूत निगरानी तंत्र की कमी और निगमों द्वारा स्वैच्छिक खुलासे पर निरंतर निर्भरता से कमज़ोर हुई है।
ईपीआर (EPR) को सफल बनाने के लिए, भारत को तत्काल एक पारदर्शी डिजिटल ट्रैकिंग प्रणाली और गैर-अनुपालन के लिए दंडात्मक प्रावधान विकसित करने चाहिए।
प्लास्टिक पैकेजिंग: निपटान के लिए डिज़ाइन
भारत की प्लास्टिक पैकेजिंग का एक चौंका देने वाला 95% हिस्सा एकल-उपयोग वाला है—जिसमें से अधिकांश बहुस्तरीय प्लास्टिक (MLP) से बना है, जो वर्तमान तकनीकों के साथ लगभग गैर-पुनर्चक्रण योग्य है।
ये लचीली, कम लागत वाली और अत्यधिक प्रभावी पैकेजिंग सामग्री तेजी से बिकने वाली उपभोक्ता वस्तुओं ( Fast Moving Consumer Goods) क्षेत्र द्वारा व्यापक रूप से उपयोग की जाती है, जो अपनी ग्रामीण उपस्थिति का विस्तार करना जारी रखता है।
अनिवार्य डिज़ाइन परिवर्तनों और विकल्पों में निवेश के बिना, इस प्रकार का प्लास्टिक कचरा धाराओं से बचता रहेगा, और हमारी मिट्टी, जल निकायों और खाद्य श्रृंखलाओं में समाप्त होगा।
नदियों से महासागरों तक: प्लास्टिक का लगातार और कभी न रुकने वाला प्रवाह
भारत विश्व स्तर पर समुद्री प्लास्टिक प्रदूषण के शीर्ष योगदानकर्ताओं में से एक है, मुख्य रूप से गंगा, यमुना और ब्रह्मपुत्र जैसी नदी प्रणालियों के माध्यम से, जो हर साल दसियों हज़ार टन प्लास्टिक बंगाल की खाड़ी और अरब सागर में ले जाती हैं।
इससे न केवल जलीय जैव विविधता नष्ट होती है, बल्कि मछली पकड़ने और पर्यटन पर निर्भर तटीय समुदायों की आजीविका भी प्रभावित होती है।
आंतरिक रूप से भी, पर्यावरणीय क्षति गंभीर है।
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ज़मीनी स्तर पर प्राप्त जानकारी से पता चलता है कि प्रतिबंधित वस्तुओं का अवैध उत्पादन और वितरण निर्बाध रूप से जारी है
लगभग 20% प्लास्टिक कचरा या तो जला दिया जाता है या लैंडफिल में डाल दिया जाता है, जिससे वायु प्रदूषण और भूजल प्रदुषण होता है।
प्लास्टिक कचरे को जलाने से डाइऑक्सिन और फुरान जैसे कार्सिनोजेनिक विष निकलते हैं, जबकि डंपसाइटों से निकलने वाला लीचेट भूजल में रिसता है, जिससे आसपास के क्षेत्रों में पीने का पानी प्रभावित होता है।
माइक्रोप्लास्टिक घुसपैठ
प्लास्टिक समस्या का शायद सबसे परेशान करने वाला पहलू मानव शरीर में इसका घुसपैठ है। माइक्रोप्लास्टिक—5 मिमी से छोटे टुकड़े—बोतलबंद पानी, समुद्री भोजन, टेबल सॉल्ट, शहद और यहां तक कि हवा में मौजूद धूल में भी पाए गए हैं।
दिल्ली और मुंबई में 2022 के एक अध्ययन में शहरी निवासियों के फेफड़ों और रक्तप्रवाह में माइक्रोप्लास्टिक कण पाए गए।
सूजन, कैंसर के खतरे, अंतःस्रावी व्यवधान और तंत्रिका संबंधी विकारों से माइक्रोप्लास्टिक को जोड़ने वाले बढ़ते प्रमाणों के साथ, प्लास्टिक प्रदूषण का स्वास्थ्य बोझ काफी कम आंका जा सकता है।
बच्चे, गर्भवती महिलाएं और कमजोर प्रतिरक्षा वाले व्यक्ति विशेष रूप से असुरक्षित हैं, फिर भी इस मुद्दे पर सार्वजनिक स्वास्थ्य विमर्श में एक स्पष्ट कमी है।
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एक मंडराता हुआ संकट
पूर्वानुमान निराशाजनक हैं। यदि वर्तमान रुझान जारी रहे, तो 2030 तक भारत का वार्षिक प्लास्टिक कचरा तीन गुना बढ़कर 1 करोड़ 10 लाख टन से अधिक होने की उम्मीद है।
जीवनशैली में बदलाव, ई-कॉमर्स विस्तार और प्लास्टिक उपयोग के आसपास सीमित व्यवहार परिवर्तन एक चिंताजनक तस्वीर पेश करते हैं।
हम एक ऐसे मोड़ पर पहुँच रहे हैं जहाँ पारिस्थितिकी, समाज और अर्थव्यवस्था पर बहुत बुरा असर पड़ सकता है।
क्या बदलना होगा
मज़बूत कार्यान्वयन और स्थानीय स्तर पर कार्रवाई : पर्यावरण नीतियों को विशेष रूप से नगरपालिका स्तर पर सख्त प्रवर्तन द्वारा समर्थित किया जाना चाहिए। शहरी स्थानीय निकायों (ULBs) को प्रदूषण नियंत्रण बोर्डों के समर्थन से, प्रभावी ढंग से प्रतिबंधों की निगरानी और कार्यान्वयन के लिए सुसज्जित और प्रोत्साहित किया जाना चाहिए।
विकल्पों को प्रोत्साहन: जैव-निम्नीकरणीय पैकेजिंग, पुन: प्रयोज्य प्रणालियों और चक्रीय उत्पाद डिजाइन की ओर सब्सिडी और अनुसंधान एवं विकास सहायता निर्देशित की जानी चाहिए। टिकाऊ पैकेजिंग में सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (MSMEs) और स्टार्टअप लक्षित नीतिगत समर्थन के हकदार हैं।
मजबूत ईपीआर अवसंरचना: प्लास्टिक उत्पादन, संग्रह और पुनर्चक्रण पर नज़र रखने के लिए एक राष्ट्रीय डिजिटल प्लेटफॉर्म आवश्यक है। गैर-अनुपालन करने वाली कंपनियों को वित्तीय और प्रतिष्ठा संबंधी दंड का सामना करना होगा।
अनौपचारिक क्षेत्र का सशक्तिकरण: नीतियों को कचरा बीनने वालों की औपचारिक मान्यता की ओर बढ़ना चाहिए, स्वास्थ्य बीमा, सुरक्षा उपकरणों और कानूनी सुरक्षा के साथ अपशिष्ट प्रबंधन प्रणालियों में एकीकरण सुनिश्चित करना चाहिए।
जागरूकता और शिक्षा: स्कूली पाठ्यक्रम से लेकर जनसंचार माध्यमों तक, प्लास्टिक उपयोग और इसके विकल्पों पर एक सार्वजनिक शिक्षा अभियान व्यवहार पैटर्न को बदल सकता है, खासकर शहरी और अर्ध-शहरी क्षेत्रों में।
डेटा-संचालित शासन: भारत को प्लास्टिक कचरा प्रवाह पर वास्तविक समय, असंगठित डेटा की आवश्यकता है। एआई और रिमोट सेंसिंग तकनीकों का उपयोग लीकेज पॉइंट और कुप्रबंधित प्लास्टिक के हॉटस्पॉट का मानचित्रण करने के लिए किया जा सकता है।
वैश्विक सहयोग: भारत को चल रही संयुक्त राष्ट्र वैश्विक प्लास्टिक संधि वार्ताओं में सक्रिय रूप से शामिल होना चाहिए। इसे वैश्विक दक्षिण में अपशिष्ट पदचिह्नों के लिए वैश्विक ब्रांडों को जवाबदेह ठहराते हुए, समान जिम्मेदारियों की वकालत करनी चाहिए।
एक ऐसा मोड़ जहाँ हमें दो अलग-अलग विकल्पों में से एक को चुनना है
प्लास्टिक के साथ भारत का संबंध इसकी विकासात्मक बाध्यताओं—किफायती पैकेजिंग, टिकाऊ सामग्री और *स्केलेबल वितरण प्रणालियों—से आकार लेता है।
फिर भी ये विशेषताएँ, अनियंत्रित रूप से, अस्तित्वगत खतरे बनती जा रही हैं।
देश आज एक ऐसे मुकाम पर खड़ा है जहाँ से दो रास्ते जाते हैं: या तो वह प्लास्टिक के टिकाऊ उपयोग और चक्रीय अर्थव्यवस्था के सिद्धांतों का एक नया और अग्रणी तरीका विकसित कर सकता है या फिर वह अपने ही द्वारा पैदा किए गए कचरे के नकारात्मक प्रभावों से पूरी तरह से घिर सकता है।
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प्रति व्यक्ति प्लास्टिक कचरा उत्पादन पाँच वर्षों में दोगुने से अधिक हो गया है
यह सिर्फ एक पर्यावरणीय मुद्दा नहीं है।
यह एक सार्वजनिक स्वास्थ्य चुनौती, एक श्रम अधिकार चिंता और एक जलवायु न्याय अनिवार्यता है।
एक ऐसे देश के लिए जो जलवायु कार्रवाई और हरित विकास में वैश्विक नेतृत्व की आकांक्षा रखता है, प्लास्टिक कचरा शासन, नवाचार और नैतिक संकल्प की कसौटी है।
जैसा कि महात्मा गांधी ने एक बार कहा था, "दुनिया में सभी लोगों की ज़रूरतों को पूरा करने के लिए पर्याप्त संसाधन मौजूद हैं, लेकिन हर किसी के लालच को संतुष्ट करने के लिए नहीं। "
यदि भारत को अपने पर्यावरणीय धर्म (या कर्तव्य) का सम्मान करना है, तो प्लास्टिक पर निर्णायक रूप से कार्रवाई करने का यही सही समय है, अब और देर करना उचित नहीं है।
* स्केलेबल वितरण प्रणालियों से तात्पर्य उन वितरण प्रणालियों से है जिनकी क्षमता को मांग बढ़ने पर आसानी से बढ़ाया जा सकता है और मांग घटने पर कम किया जा सकता है, बिना प्रदर्शन या दक्षता पर नकारात्मक प्रभाव डाले।
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